Friday, 6 January 2017

"स्त्री संघर्ष" (Woman Conflict)

                      

                     एक स्त्री जब छोटी बच्ची होती है तो माँ - बाप व भाई के कब्जे में होती है, जब बड़ी होती है तो पति के कब्जे में होती है, व जब बूढी होती है तो बेटे के कब्जे में रहती है, जैसे उसमें जीवन ही नहीं बल्की वह संपत्ति हो या फिर कोई वस्तु। 'कब्जा', सूनने में ही लगता है वह कोई समंपत्ति हो या बस्तु। पुरुषों की अगर बस चले तो वह स्त्री को रोबोट बनाकर छोड़े, जहाँ जब चाहे उसे अपनी मर्जी के अनुसार इस्तेमाल करे फिर छोड दे एक कोने में पड़े रहने के लिए।
                      गृहस्थी चलाने के लिए, वंशवृद्रि के लिए, भोगने के लिए स्त्री को इस्तेमाल किया जाता रहा है, उसे यह भी याद दिलाया जाता रहा है कि यह सब तुम्हारी जिम्मेदारी है, कर्तब्य है, बदले में पारिवारीक, सामाजिक, आर्थिक, मांसिक, सुरक्षा मिलती रहेगी। देखा जाऐ तो, स्त्री व पुरुष के बीच सामाज में यह अघोषित करार हो गया है ओर इच्छा जाने बगैर उसे इस जिम्मेदारियों का निर्वाह करना ही होता है, वह चाहे या न चाहे। इसके बदले जिस तथाकथित सुरक्षा का दावा था, उसे तो शायद कब का भुला दिया गया है। मेरी समझ में तो यह बिल्कुल उस शराबी की तरह है जो रोज सुबह यह कहता है कि मैंने अब शराब छोड़ दिया है ओर अब कभी भी नहीं पिउंगा, लेकिन उसी शाम फिर से ............।
                  स्त्री हो, तो पाँच पतियों में बँटने के लिऐ तैयार रहो, भले उनमें से एक भी भरी सभा में तुम्हारा चीरहरण होने से रोकने की हिम्मत न दिखा सके, उसके लिए तो तथाकथित किसी दैवीय शक्ति को ही आना होगा। स्त्री हो तो तुम्हारी सीमा तय करने का हक लक्ष्मन के पास होगा न की तुम्हारे पास और उसे लांघने की जुर्रत की, तो सीधे रावण के हाथ लगेगी, और रावण  की सीमा में रहने की हिदायात की जाए, ऐसी परंमपरा तो हम ने नहीं सुनी। स्त्री हो तो किसी पुरुष पर मोहित होने की सोचना भी मत  नहीं, वरना नाक काट दी जाएगी। स्त्री हो व स्त्री को जन्म दिया तो 100 % तुमहारी गलती है हलाँकी सच्चाई ........... । स्त्री हो और अगर तुम्हारी चुनरी में दाग लगता है, तो यह तुम्हारी सोचने की बात है कि तुम इसे कैसे छिपाओ, क्योंकि जिनके द्वारा दाग लगाया गया वे तो बेफिक्र ही रहें हैं व बेफिक्र ही रहेंगे।
                    स्त्री चरित्र का तो एक ही अर्थ होता है, बस कि स्त्री, पुरुष से बँधी रहे, चाहे पुरुष कैसा भी गलत क्यों न हो। रोज मारे, पिटे, गालियाँ दे तो भी। अगर कोई पत्नी अपने बूढ़े-मरते, कुष्ट रोग से गलते पति को भी कंधे पर रखकर वेश्या के घर पहुँचा दे तो हम कह सकते हैं की-यह चरित्र देखो क्या चरित्र है कि मरते पति ने इच्छा जाहिर की, कि मुझे वेश्या के घर जाना है और स्त्री ने इसको कंधे पर रखकर पहुँचा आई।
                     एक आदमी जब पैदा होता है तो उस समय उसकी जीवन की ऊर्जा बड़ी संवेदनशील होती है ऐसे में उसे एक स्त्री ही संभालती है-उसकी माँ, जब तब वह इतना बड़ा नहीं हो जाता कि बाहर के संसार में अपने दोस्त बना सके तो वहाँ भी एक स्त्री ही होती है और वह है उसकी बहन। फिर जब वह स्कूल जाता, तो वहाँ भी एक स्त्री होती है, जो उसकी सहायता करती है, उसकी कमजोरियों को दूर करने में और उसको एक अच्छा इंसान बनने में, वह है अध्यापिका। और जब वह बड़ा होता है और जीवन से उसका संघर्ष शुरू होता है, जब भी वो संघर्ष में कमजोर हो जाता है तो उस समय भी एक। स्त्री ही उसको साहस देती है वह है उसकी प्रेमिका। जब आदमी को जरुरत होती है साथ की, अपनी अभिव्यक्ती के लिऐ, अपना दुख और सुख बाँटने के लिए , फिर एक स्त्री वहाँ होती है और वह है उसकी पत्नी। जीवन के संघर्ष और रोज की मुश्किलों का सामना करते-करते आदमी कठोर होने लगता है तब उसे निर्मल बनाने वाली भी एक स्त्री होती है और वो है उसकी बेटी, और जब आदमी की जीवन यात्रा खत्म होती है तब फिर उसका अंतिम मिलन होता है मातृभूमि से लेकिन हैरत की बात है बदले में उसे मिलता ...........।
                     ऊँची-ऊँची दीवारो को घर बनाने वाली भी एक स्त्री ही होती है , लेकिन इन दीवारो के भीतर घरों में भौतिकता का हर सामान रहते हुए भी, सन्नाटे के साये में खामोश जीती है। उन्हें बच्चे व पति के फैलाब के अलाबा और कुछ सोचने का अधिकार नहीं मिला है या फिर यूँ कहें की बच्चे, पति के लिये जीते-जीते वे अपने बारे में सोचने का मौका नही मिलता। देखा जाए तो उनकी पीडा, उस आकश की तरह है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं होता। फिर भी अपने पति, बच्चे, परिवार को खुश रखने के लिए, झुठी मुस्कान को लिहाफ की तरह ओढ कर इन सबके  के सामने खड़ी रहती है। ठिक उसी तरह जैसे आपने विमान परिचारिका (Air hostess) को देखा होगा, वह भले घर से पिट कर आयी हो, या फिर स्वास्थ्य ही क्यों न ठिक हो उन्हें हवाईजहाज पर मुस्कान का लिहाफ ओढे रखना होता है। अपनी भावनात्मक उजाड़पण को, महसूस करने के बाबजूद आँखों के आँसू को टपकने नहीं देती, बल्कि उसे पी जाती है। अपने जीवन की लक्क्षहीन त्रासदी को भलीभांति जानती हुई भी, अपने बेजान कँपकंपाती पाहचान को बनाये रखने की नाकामयाब  कोशिश में लगी रहती है। खुद को टुकड़े - टुकड़े  में बँटते देख मन ही मन में बिफरती रहती है, लेकिन किसी भी हाल में इसका मुकाबला करने की कोशिश नहीं करती। पंखहीन पक्षी की तरह छटपटा कर रह जाती है। परिवार के सभी सदस्यों को अपनी सेवा से खुशी देनेवाली नारी, भीतर कितनी अकेली है, परिवार का कोई सदस्य, जानने तक का जुर्रत नहीं करता। वहरहाल  समस्या यह है की हम मूक कबतक रहेंगे।
                      आपने धैर्यपूर्वक पूरा पढ़ा इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।