Sunday 30 April 2017

महात्मा गांधी, (GK Q & A, भाग-54)


भारत में खनिज और उद्योग विशेष (GK, Q & A, भाग-53)



सामाजिक सुधार आंदोलन ने 19 शताब्दी में स्त्रियों की किस सीमा तक योगदान दिया ?


भारतीय इतिहास में 11वी शताब्दी एक सक्रमणकालीन अवस्था को प्रदर्शित करती है यह वह समय था जब भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग पाश्चात्य विचारो के संपर्क में आ रहा था पाश्चात्य चिंतको द्वारा सामाजिक समस्याओ को उठाया जा रहा था| जेम्स मिल जैसे चिंतक स्त्रियों की समस्याओ पर अत्यधिक बल दे रहे थे ऐसे में भारत भी अछूता ना रहा यहाँ भी सामाजिक सुधर आंदोलन प्रारम्भ हुआ और समाज की शल्य चिकित्सा आरम्भ हु। भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण समस्या थी स्त्रियों की गिरती दशा जिसके परिरामस्वरोप्प भारतीय समाज का पतन हो रहा था स्त्रियों प्रमुख समस्याएं थी - सती प्रथा , बाल विवाह, शिशु वध, अशिक्षा, विधवाओं के साथ सामजिक भेदभाव सर्वप्रथम राजा राम मोहन राय द्वारा सती प्रथा का मुद्दा प्रमुखता से उठाया गया यह उनके प्रयासों का परिराम था की १८२९ में सती प्रथा को गैर कानूनी घोसित कर दिया गया स्त्रियों से सम्बंधित एक प्रमुख समस्या थी उनकी अशिक्षा इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम प्रयास इंग्लिश मिशनरियों द्वारा किआ गया तत्पश्चात ईश्वर चंद्र विद्यासागर और डी वि कर्वे जैसे समाज सुधारको ने इस दिशा में सराहनीय योगदान दिया| कर्वे द्वारा एक महिला विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी ईश्वर चंद्र विद्यासागर भारतीय समाज में विधवाओं की दशा देखकर चिंतित थे उन्होंने विधवा पुनर्विवाह के लिए  प्रयास किया, परिरामस्वरूप १८५६ में विधवा विवाह को मान्यता मिल गयी समाज को प्रोत्साहित करने के लिए विद्यासागर ने अपने पुत्र का विवाह एक विधवा के साथ किआ वही कर्वे ने स्वयं के विधवा से विवाह किआ विधवा विवाह सती प्रथा की एक तार्किक परिणीति थी क्योंकि जब तक विधवाओं की दशा में सुधार ना होता तब तक सती प्रथा को प्रोत्साहन मिलता रहता स्त्रियों से सम्बंधित इन सभी समस्याओं की एक मूल जड़ थी बाल विवाह जिसके परिरामस्वरूप स्त्रियों का समुचित विकास ही नहीं हो पाता था इस सम्बन्ध में केशव राय द्वारा प्रयास किये गए परिरामस्वरूप १८७२ में मैरिज नेटिव एक्ट आया जिससे विवाह के लिए स्त्रियों की एक न्यूनतम अवस्था १२ वर्ष तय की गयी

इस प्रकार हम देखते हैं की सामाजिक सुधार आंदोलन ने स्त्री समस्या को गंभीरता से उठाया परन्तु इन प्रयासों की अभी अपनी एक सीमा थी| यह सभी प्रयास कुछ सामाजिक सुधारको द्वारा किये गए थे इन्हे अभी भी जनसमर्थन प्राप्त नहीं हुआ था पूरी १९वी शताब्दी में मात्रा ३५ विधवा विवाह हुए थे वही सती प्रथा तो आज भी समाज में कई स्थानों पर सम्मानीय मानी जाती है एक सुधारो की एक बड़ी सीमा यह थी की यह सभी प्रयास पुरुषो द्वारा किये गए थे अतः उन्होंने समाज की चौहदी में रह कर ही प्रयास किये हिन्दू सुधारको ने हिन्दू स्त्रियों की बात की परिरामस्वरूप समाज में महिलाये स्वयं में एक वर्ग ना बन पायी जिसका परिराम यह हुआ की हर धरम विशेष में महिलाओ की दशा अलग अलग रही जिन सुधारो के लिए अंग्रेजो ने विधि बनायीं उन्हें समर्थन प्राप्त नहीं हुआ यही वजह थी की १८५७ के बाद अंग्रेजो ने सामाजिक सुधार में कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई परन्तु इससे इन सुधारो की महत्ता कम नहीं होती इन्ही के कारण से आने वाले वर्षो में स्त्री समस्या एक प्रमुख विषय रहा तथा उनके सुधार के लिए प्रयास किये जाते रहे

सोशल मीडिया का तेजी से बढ़ रहा है कारोबारी जगत पर प्रभाव


                     सोशल मीडिया ने राजनीतिक संवाद की दशा ही बदल दी है। नरेंद्र मोदी और डॉनल्ड ट्रंप इसकी बानगी हैं। परंतु कारोबारी जगत पर इसका प्रभाव उतना मुखर नहीं रहा है। अमेरिका के तीन बड़े कॉर्पोरेशन से जुड़ी हालिया घटनाएं बताती हैं कि वैश्विक स्तर पर उपभोक्ताओं द्वारा नए मीडिया को अपनाए जाने के बीच कंपनियों के सामने नीतिगत और जन संपर्क जैसी अहम चुनौतियां पैदा हो गई हैं।
                       यूनाइटेड एयरलाइंस का उदाहरण हमें बताता है कि जनसंपर्क के मुद्दों से निपटते समय क्या सावधानी बरतनी चाहिए? शिकागो एयरपोर्ट पर एक उम्रदराज और चोटिल हो गए एशियाई व्यक्ति को सुरक्षाकर्मियों द्वारा घसीटते हुए विमान से उतारे जाने का वीडियो वायरल होने के बाद कंपनी का बाजार पूंजीकरण एक सप्ताह में 57 करोड डॉलर तक कम हुआ। 69 वर्षीय पीडि़त का नाम डॉ. दाओ था। वह वियतनामी मूल के चिकित्सक थे। वह चार ऐसे यात्रियों में से एक थे जिन्हें विमान चालक दल के सदस्यों के लिए जगह बनाने और विमान से उतरने को कहा गया था।
                       पहले डॉ. दाओ 1,000 डॉलर लेकर विमान से उतरने को मान गए थे लेकिन जब उन्हें बताया गया कि अगला विमान अगले दिन ही जाएगा तो उन्होंने उतरने से इनकार कर दिया। उन्हें अगली सुबह मरीज देखने थे। उन्होंने यह कारण बताते हुए उतरने से इनकार कर दिया। इस पर उन्हें जबरन विमान से उतार दिया गया। जबरदस्ती करने से उनके नाक और दांत टूट गए, हालांकि उन्हें विमान में बैठने दिया गया।
                      सोशल मीडिया पर लोगों ने खूब नाराजगी दिखाई। खासतौर पर चीन और वियतनाम के लोगों ने। पूरी बहस विमान कंपनियों द्वारा जरूरत से ज्यादा यात्रियों को बिठाने पर केंद्रित थी। हालांकि इस मामले में ऐसा नहीं था। यूनाइटेड एयरलाइंस ने सीट के बराबर यात्री बिठाए थे लेकिन अतिरिक्त क्रू सदस्यों के कारण सीट खाली करानी पड़ी। नस्ली भेदभाव को लेकर भी बात होने लगी। कहा गया कि श्वेत यात्री के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जाता। आपको लग रहा होगा कि इसके बाद यूनाइटेड एयरलाइंस की जनसंपर्क एजेंसी हरकत में आ गई होगी। यह सच है लेकिन वैसे नहीं जैसे कि अधिकांश लोगों ने सोचा होगा। कंपनी के मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) ऑस्कर मुनोज जिन्हें कुछ ही दिन पहले पीआरवीक ने मलाला यूसुफजई के साथ संयुक्त रूप से कम्युनिकेटर ऑफ द इयर का खिताब दिया था, ने एक संक्षिप्त पत्र भेजा जिसमें यात्रियों को विमान में दोबारा समायोजित करने के लिए माफी मांगी गई लेकिन एक यात्री को उतारने के लिए सुरक्षा अधिकारियों के इस्तेमाल को लेकर कुछ नहीं कहा। शाम को उन्होंने कर्मचारियों को एक ई-मेल भेजकर कहा कि वह उनके साथ हैं। हालांकि उनके पत्र पर यूनाइटेड के कर्मचारियों ने कैसी प्रतिक्रिया दी यह सामने नहीं आया है लेकिन विमानन कंपनी के शेयर औंधे मुंह जा गिरे। इसमें दो राय नहीं कि शेयर कीमतों में यह गिरावट और मुकदमा चलाए जाने के डर ने कंपनी के सीईओ को अपना कदम वापस लेने पर मजबूर किया। उन्होंने तुरंत क्षमा मांगते हुए कहा कि वह हालात को समझ नहीं सके। अब उनको विमान कंपनी की छवि दोबारा सुधारने के लिए पीआरवीक की सराहना मिली है। लंबी अवधि में सस्ते किराये के चलते परिचालन पर असर हो सकता है लेकिन कंपनी की छवि को जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई में बहुत वक्त लगेगा। शायद सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि मैक्सिकन मूल के मुनोज इस घटना में अंतर्निहित पूर्वग्रह को भांप नहीं पाए। क्या कारोबारी जीवन इन अधिकारियों को इतना असंवेदनशील बना देता है? पेप्सी, जिसकी सीईओ भारतीय मूल की एक महिला हैं, उसने भी नस्ली संवेदनशीलता को लेकर ऐसी ही उपेक्षा एक विज्ञापन में बरती। विज्ञापन में रियलिटी टीवी स्टार केंडल जेनर जो एक सड़क पर मॉडलिंग कर रही हैं, एक विरोध प्रदर्शन में शामिल हो जाती हैं। प्रदर्शनकारियों के साथ वह पुलिस की घेरेबंदी तक पहुंचती हैं और एक अधिकारी को पेप्सी का केन पीने की पेशकश करती हैं। वह उसे पी लेता है और सब प्रसन्न हो जाते हैं। हाल ही में अमेरिका में पुलिस विरोधी प्रदर्शन खूब हुए थे। ऐसे में सोशल मीडिया उबल पड़ा। जेनर पेप्सी की पेशकश वाले दृश्य में एक अफ्रीकी अमेरिकी लड़की की नकल कर रही थीं जिसने पुलिसकर्मियों के समक्ष अपना हाथ बढ़ाया था ताकि उसे पकड़ा जा सके।
                    यूनाइटेड एयरलाइंस के उलट पेप्सी को गलती जल्दी समझ में आ गई। मानव अधिकार के नेता रहे मार्टिन लूथर किंग की बेटी कॉरेटा स्कॉट किंग ने उक्त विज्ञापन की आलोचना की और तमाम टॉक शो में पेप्सी को आड़े हाथों लिया जाने लगा। इतने में ही इस बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अपना विज्ञापन वापस लेकर माफी मांग ली। जेनर इस मसले पर खामोश हैं लेकिन आश्चर्य है कि यह विज्ञापन बनाने की इजाजत किसने दी?
                    फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग की हालिया समस्या इस श्रेणी की तो नहीं थी लेकिन क्लीवलैंड में हुई हत्या के बाद हत्यारे द्वारा अपलोड किए गए वीडियो को लेकर जो आलोचना हुई वह अनुकरणीय थी। जुकरबर्ग को यह श्रेय दिया जाना चाहिए कि वह सामने आए और उन्होंने इस मसले पर अपने संस्थान की ढीली प्रतिक्रिया की जवाबदेही ली। वीडियो को फेसबुक से हटाने में दो घंटे लग गए। जुकरबर्ग ने एक वीडियो जारी कर माफी मांगी और कहा कि भविष्य में और तेजी से कदम उठाए जाएंगे। यूनाइटेड एयरलाइंस, पेप्सी और फेसबुक सभी जबरदस्त आलोचना के शिकार हुए। सबक यही है कि सोशल मीडिया अब इतना प्रभावी हो चुका है कि वह शेयर कीमतों तक में गिरावट की वजह बन सकता है।

Thursday 27 April 2017

क्षय रोग उन्मूलन : ‘कार्यवाही आह्वान’ समझौता


क्षय रोग उन्मूलन समझौता (Call for Action)
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन के दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के देशों द्वारा वर्ष 2030 तक क्षय रोग के पूर्ण उन्मूलन हेतु वैश्विक प्रयासों को गति प्रदान करने तथा पर्याप्त रूप से वित्त पोषित, अभिनव, बहुक्षेत्रीय और व्यापक उपायों को लागू करने के लिए दिल्ली में 16 मार्च, 2017 को ‘कॉल टू इंड टी.बी. अभियान, 2030 (Call to End T.B. Campaign, 2030)’ के अंतर्गत विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ किया गया समझौता।
दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र में क्षय रोग की स्थिति
  • क्षय रोग से पीड़ित दुनिया की लगभग आधी आबादी दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र में स्थित है। वर्ष 2015 में लगभग 8 लाख लोगों की मृत्यु इस क्षेत्र में हुई तथा लगभग 4.74 मिलियन लोगों में क्षय रोग की पुष्टि हुई। इस क्षेत्र के 6 देशों-बांग्लादेश, लोकतांत्रिक जनवादी कोरिया गणराज्य (उ. कोरिया), भारत, इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक प्रभावित 30 देशों में शामिल हैं।
भारत में स्थिति
  • वैश्विक स्तर पर सर्वाधिक भारत में 2.8 मिलियन क्षय रोग के मामले प्रति वर्ष प्रकाश में आते हैं जबकि लगभग 5 लाख लोगों की प्रति वर्ष क्षय रोग से मृत्यु हो जाती है।
लक्ष्य
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वैश्विक स्तर पर क्षय रोग से मृत्यु में 90 प्रतिशत तथा क्षय रोग के मामलों में 80 प्रतिशत की कमी करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र में क्षय रोग में वार्षिक कमी की दर को 10 प्रतिशत से 15 प्रतिशत तक बढ़ाने का लक्ष्य है जो कि वर्तमान में 1.5 से 2 प्रतिशत तक है।
समझौते के मुख्य बिंदु
  • i. टी.बी. उन्मूलन योजनाओं हेतु सरकारों तथा सहयोगियों द्वारा वित्त आवंटन में वृद्धि किया जाएगा।
  • ii. ज्ञान-बौद्धिक संसाधनों और नवाचारों को त्वरित रूप से साझा करने हेतु ‘कार्यान्वयन हेतु क्षेत्रीय नवाचार कोष’ स्थापित किया जाएगा।
कॉल टू इंड टी.बी. अभियान, 2030
  • यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ष 2030 तक दुनिया से क्षय रोग के उन्मूलन हेतु एक पहल है।
सहयोगी
  • इस अभियान में विभिन्न देशों के अतिरिक्त विश्व बैंक, द ग्लोबल फंड, स्टॉप टी.बी. भागीदारी, यूएसआईडी तथा डीएफएटी ऑस्ट्रेलिया मुख्य सहयोगी हैं।
विशेष तथ्य
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन के दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के अंतर्गत भूटान, बांग्लादेश, लोकतांत्रिक जनवादी कोरिया गणराज्य (उ. कोरिया), भारत, इंडोनेशिया, मालदीव, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड तथा तिमोर लेस्ते कुल 11 सदस्य देश हैं।
क्षय रोग (Tuberculosis)
  • क्षय रोग माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस नामक बैक्टीरिया से होने वाला एक वायुजनित, संक्रामक रोग है। यह मुख्यतः फेफड़ों को प्रभावित करता है। यह मुख्यतः वायु के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलने वाला रोग है जो टी.बी. प्रभावित व्यक्ति के कफ, छींक, हंसने अथवा बोलने तथा थूकने आदि के द्वारा वातावरण में रोगाणुओं के प्रसार से फैलता है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के दो अभिसमय को भारत की मंजूरी


कैबिनेट की मंजूरी
  • 31 मार्च, 2017 को कैबिनेट द्वारा ‘अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ (ILO) के दो अभिसमय न्यूनतम आयु अभिसमय 1973 (Minimum Age Convention, 1973) और बाल श्रम का निकृष्टतम रूप अभिसमय, 1999 (Worst Form of Child Labour Convention, 1999) को मंजूरी प्रदान की गई।
  • 10 अप्रैल, 2017 को श्रम एवं रोजगार मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने स्वीकृति हेतु इन अभिसमयों के अनुमोदन के प्रस्ताव को संसद के समक्ष रखा।
आईएलओ (ILO) के अभिसमय एवं भारत
  • भारत, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का संस्थापक सदस्य है और इसने अभी तक आईएलओ के 45 अभिसमयों को अनुमोदित किया है। आईएलओ के कुल 8 मूलभूत अभिसमय हैं। इनमें से जिन 4 का अनुमोदन भारत द्वारा किया जा चुका है वे निम्न हैं-
  • (1) बलात् श्रम अभिसमय, 1930 (सं.-29)
  • (2) बलात् श्रम उन्मूलन अभिसमय, 1957 (सं.-105)
  • (3) समान पारिश्रमिक अभिसमय, 1951 (सं.-100)
  • (4) भेदभाव (रोजगार व्यवसाय) अभिसमय, 1958 (सं.-111)
  • जिन दो अभिसमयों का अनुमोदन प्रक्रिया में है वे हैं-
  • (1) न्यूनतम आयु अभिसमय, 1973 (सं.-138)
  • (2) बालश्रम का निष्कृष्टतम रूप अभिसमय, 1999 (सं.-182)
न्यूनतम आयु अभिसमय, 1973
  • जून, 1973 में आईएलओ द्वारा अपनाया गया वह अभिसमय रोजगार में प्रवेश के लिए आवश्यक न्यूनतम आयु से संबंधित है। यह अभिसमय 19 जून, 1976 से प्रभावी है। इसका अनुमोदन करने वाले प्रत्येक देश की निम्न बाध्यताएं होंगी-
  • (1) बाल श्रम के प्रभावी उन्मूलन हेतु राष्ट्रीय नीति का निर्माण एवं क्रियान्वयन।
  • (2) रोजगार में प्रवेश हेतु एक न्यूनतम आयु का निर्दिष्टीकरण, जो अनिवार्य स्कूली शिक्षा के पूरा होने की उम्र से कम नहीं होनी चाहिए।
  • (3) इस बात की प्रत्याभूति देना कि युवाओं के स्वास्थ्य एवं उनकी नैतिकता की सुरक्षा से समझौता करने वाले किसी भी प्रकार के रोजगार में प्रवेश की आयु 18 वर्ष से कम नहीं होगी।
बाल श्रम उन्मूलन हेतु भारत द्वारा किए गए प्रयास
  • भारत सरकार द्वारा बाल श्रम (निषेध एवं विनियम) अधिनियम, 1986 अधिनियमित किया गया है और इसका सफलतापूर्वक क्रियान्वयन भी किया जा रहा है। वर्ष 2011 में हाथियों की देखभाल एवं सर्कस में बाल श्रम को प्रतिबंधित किया गया। अभी भारत में कुल 18 व्यवसाय, 65 गतिविधियां बाल श्रम अधिनियम, 1986 के अंतर्गत प्रतिबंधित हैं। वर्ष 1987 में नेशनल चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट (NCLP) प्रारंभ किया गया। इसके अंतर्गत बाल श्रमिकों को रोजगार से हटाकर विशेष स्कूलों में नामांकित किया जा रहा है, जहां उन्हें औपचारिक शिक्षण तंत्र में आने से पूर्व प्रशिक्षित किया जाता है। इसके अतिरिक्त 1 अप्रैल, 2010 से 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया गया।
  • 30 जुलाई, 2016 को बाल श्रम अधिनियम (1986) में संशोधन करके 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को ऑटोमोबाइल वर्कशाप, बीड़ी-निर्माण, कॉरपेट, बुनाई, हैंडलूम एवं पॉवरलूम और खदानों में काम करने से प्रतिबंधित कर दिया गया। 14-18 वर्ष की आयु के बच्चों को एक अन्य नाम ‘किशोर’ (Adolescent) दिया गया।
बाल श्रम का निकृष्टतम् रूपों के उन्मूलन हेतु अभिसमय, 1999
  • जून, 1999 में आईएलओ द्वारा अपनाया गया यह अभिसमय बाल श्रम के निकृष्टतम् रूपों के उन्मूलन हेतु आवश्यक निषेध एवं तत्काल कार्यवाही से संबंधित है। यह अभिसमय 19 नवंबर, 2000 को प्रभावी हुआ। इस अभिसमय में 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को बालक (Child) की श्रेणी में रखा गया है। इस अभिसमय के अनुसार, बाल श्रम के निकृष्टतम् रूप निम्न हैं-
  • (1) दासता या इसके समकक्ष सभी गतिविधियां जैसे-बच्चों की खरीद-फरोख्त और तस्करी, ऋण बंधन एवं बलात् श्रम तथा सशस्त्र संघर्ष हेतु बच्चों की अनिवार्य भर्ती।
  • (2) पोर्नोग्राफी या अश्लील कार्यक्रम या वेश्यावृत्ति के लिए बच्चों का उपयोग या खरीद या पेशकश।
  • (3) अवैध गतिविधियों विशेषकर अंतरराष्ट्रीय संधियों द्वारा परिभाषित ड्रग्स के उत्पादन एवं तस्करी के लिए बच्चों का उपयोग या खरीद या पेशकश।
  • (4) ऐसा कार्य जिसमें चाहे कार्य की प्रकृति या परिस्थितिवश बच्चों के स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं नैतिकता की क्षति होने की संभावना है।
अभिसमय एवं भारत में विधायन
  • भारत में बंधुआ उन्मूलन अधि. 1976, अनैतिक तस्करी निवारण अधि. 1956, नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंसेज एक्ट, 1985 और बाल श्रम (निवारण एवं विनियम) अधि. 1986 के द्वारा उपर्युक्त दोनों अभिसमयों के तत्सम उपबंध बनाए गए थे। परंतु इन अधिनियमों में आवश्यक संशोधनों के उपरांत ही भारत इन दोनों अभिसमयों का अनुमोदन करने की स्थिति में आ पाया है।
अनुमोदन की आवश्यकता
  • इन अभिसमयों के अनुमोदन से बाल श्रम उन्मूलन के भारतीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रावधानों में एकरूपता आएगी। स्थायी विकास लक्ष्य वर्ष 2030 के अनुसार, बाल श्रम उन्मूलन महत्वपूर्ण लक्ष्य है, और इन अभिसमयों का अनुमोदन करने के बाद इनके प्रावधानों का पालन करना भारत के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी होगा। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल आबादी की 29 प्रतिशत जनसंख्या 14 वर्ष से कम आयु वर्ग की है, जबकि 14-18 वर्ष की आयु वर्ग का कुल आबादी में 10 प्रतिशत योगदान है। इतनी बड़ी आबादी के हिस्से को जनांकिकीय लाभ में बदलने हेतु अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रावधानों का भारत में भी लागू होना एक महत्वपूर्ण कदम है।

वर्ष 2016-17 में पवन ऊर्जा में वृद्धि


भारत में पवन ऊर्जा का विकास 1990 के दशक में प्रारंभ हुआ। इस ऊर्जा के विकास हेतु नोडल मंत्रालय नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय है। बहती वायु से उत्पन्न की गई ऊर्जा को ‘पवन ऊर्जा’ कहते हैं। वायु एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। पवन ऊर्जा हेतु हवादार स्थलों पर पवन चक्कियों को स्थापित किया जाता है जिनके द्वारा वायु की गतिज ऊर्जा, यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। इस यांत्रिक ऊर्जा को जनित्र की मदद से विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। पवन ऊर्जा को एक अतिविकसित, कम लागत वाला और प्रमाणित अक्षय ऊर्जा प्रौद्योगिकी के रूप में मान्यता प्राप्त है। तटवर्ती पवन ऊर्जा प्रौद्योगिकी व्यापक स्तर पर भारत में निरंतर वृद्धि के साथ क्रियान्वित हो रही है और इसके दोहन की अपार संभावनाएं हैं।
  • नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2016-17 में पवन ऊर्जा में 5400 मेगावॉट की वृद्धि हुई है।
  • वर्ष 2016-17 के दौरान मंत्रालय ने 4000 मेगावॉट वृद्धि का लक्ष्य निर्धारित किया था।
  • पिछले वर्ष 3423 मेगावॉट की वृद्धि हुई थी।
  • वर्ष 2016-17 के दौरान आंध्र प्रदेश 2190 मेगावॉट पवन ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि के साथ पहले स्थान पर है।
  • गुजरात (1275 मेगावॉट) और कर्नाटक (882 मेगावॉट) वृद्धि के संदर्भ में क्रमशः दूसरे व तीसरे स्थान पर हैं।
  • चौथे स्थान पर मध्य प्रदेश (357 मेगावॉट) और पांचवें स्थान पर राजस्थान (288 मेगावॉट) है।
  • अन्य राज्यों में वृद्धि-तमिलनाडु (262 मेगावॉट), महाराष्ट्र (118 मेगावॉट), तेलंगाना (23 मेगावॉट) और केरल (8 मेगावॉट)।
  • वर्ष 2016-17 के दौरान नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा पवन ऊर्जा के क्षेत्र में निविदा प्रक्रिया शुरू की गई।
  • इसके अलावा मंत्रालय द्वारा रिपॉवरिंग नीति, पवन-सौर संकर नीति का मसौदा बनाने और नई पवन ऊर्जा परियोजनाएं लगाने हेतु दिशा-निर्देश की नीतिगत पहल की गई।
  • वर्तमान में भारत में पवन ऊर्जा से विद्युत उत्पादन 9500 मेगावॉट है।
वैश्विक पवन रिपोर्ट, 2015
  • 21 दिसंबर, 2016 को वैश्विक पवन ऊर्जा परिषद द्वारा वैश्विक पवन रिपोर्ट, 2015 प्रकाशित की गई।
  • इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत पवन ऊर्जा उत्पादन में चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी के बाद चौथे स्थान पर है।
  • भारत की पवन ऊर्जा के उत्पादन में कुल वैश्विक भागीदारी 5.8 प्रतिशत है।
  • भारत की संस्थापित पवन ऊर्जा क्षमता (25,088 मेगावॉट) देश की कुल वैद्युत संस्थापित क्षमता का 8.7 प्रतिशत है।
  • यह कुल नवीकरणीय ऊर्जा की संस्थापित क्षमता का लगभग दो-तिहाई है।
  • फरवरी, 2015 में भारत ने वर्ष 2022 तक पवन ऊर्जा की संस्थापित क्षमता 60 गीगावॉट करने का लक्ष्य निर्धारित किया था।

Wednesday 26 April 2017

चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष


पृष्ठभूमि
  • वैश्विक स्तर पर नील (Indigo) की मांग को देखते हुए ब्रिटिश शासन द्वारा औपनिवेशिक भारत में भी नील की खेती को बढ़ावा दिया गया। इसी परिप्रेक्ष्य में 1850 ई. से लेकर 1870 ई. तक बिहार में नील की खेती द्रुतगति से बढ़ी। वर्ष 1893 ई. के आस-पास वैश्विक बाजार में कृत्रिम नील आने के बाद नील की खेती का मुनाफा तेजी से कम हुआ। एक ओर कृत्रिम नील तो दूसरी ओर किसानों के प्रतिरोध के कारण नीलहों का मुनाफा बाधित होने लगा। अपने मुनाफे को बनाए रखने के लिए निलहों ने लगभग 41 गैर-कानूनी कर लगाए थे, जिनके भुगतान न करने पर किसानों को शारीरिक दंड दिया जाता था। निलहे (ब्रिटिश बागान मालिक) न केवल वार्षिक उपज का 70 प्रतिशत भूमि कर वसूल कर रहे थे, बल्कि उन्होंने एक छोटे से मुआवजे के बदले किसानों को प्रत्येक 20 कट्टे जमीन के 3 कट्टे में नील की खेती करने के लिए मजबूर किया था। 20वीं सदी के आरंभ में किसान सीधे विद्रोह पर उतारू हो गए। वर्ष 1908 तक यह संघर्ष अपने चरम पर पहुंच गया और असंतोष की आग लगातार बढ़ती चली गई।
गांधीजी का आगमन
  • 9 जनवरी, 1915 को मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण-अफ्रीका से भारत लौटे और देशव्यापी दौरे पर निकल पड़े ताकि उस भावी संघर्ष को समझ सकें, जिसका वे हिस्सा बनने वाले थे। इसी दौरान लखनऊ में राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी से मुलाकात की तथा नील किसानों के संघर्ष से वाकिफ कराने के लिए उन्हें चंपारण पहुंचने को राजी किया। फलतः 10 अप्रैल, 1917 को गांधी जी पटना पहुंचे।
चंपारण सत्याग्रह
  • चंपारण, बिहार में लागू तिनकठिया पद्धति, (जिसके तहत किसानों को अपने कृषि रकबे के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था) तथा नील किसानों के शोषण के खिलाफ गांधीजी द्वारा शुरू किया गया सत्याग्रह, चंपारण सत्याग्रह के नाम से प्रसिद्ध है। गांधीजी द्वारा भारत में शुरू किया गया यह पहला सत्याग्रह था।
नया राजनीतिक प्रयोग
  • चंपारण सत्याग्रह के माध्यम से गांधीजी ने भारतीय राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए ‘नागरिक असहयोग’ की नीति का प्रादुर्भाव किया। इसका सफल प्रयोग वे दक्षिण अफ्रीका में पहले ही कर चुके थे। आगे तीस वर्षों में उन्होंने सत्याग्रह के जरिए लाखों लोगों को उस समय की संभवतः सर्वाधिक शक्तिशाली राजशाही के खिलाफ एकजुट कर दिया था। चंपारण, गांधीवादी राजनीतिक रणनीति की शुरुआती झलक का साक्षी बना।
प्रमुख घटनाक्रम
  • 10 अप्रैल, 2017 को चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष पूरे हुए। 10 अप्रैल, 1917 को गांधीजी सर्वप्रथम पटना, बिहार पहुंचे थे।
  • उन दिनों कृषि से संबंधित मुद्दों को मुश्किल से ही राजनीतिक क्रिया-कलापों का हिस्सा बनाया जाता था। यहां तक कि गांधीजी भी प्रारंभ में इस कार्य के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध करने के प्रति अनिच्छुक थे।
  • मोतिहारी में गांधीजी के खिलाफ आपराधिक दंड संहिता की धारा 144 का उल्लंघन करने के आरोप में स्थानीय अदालत द्वारा सम्मन जारी किया गया।
  • लेकिन गांधीजी ने चंपारण छोड़ने से मना कर दिया।
  • 4 जून, 1917 को बिहार के लेफ्टिनेंट गवर्नर, सर एडवर्ड गाइट ने रांची में गांधीजी से मुलाकात करते हुए नील किसानों के शोषण के मामले में एक औपचारिक जांच समिति के गठन की घोषणा की। गांधीजी को भी इस समिति का सदस्य बनाया गया।
  • चंपारण जांच समिति ने 11 जुलाई, 1917 को अपनी प्रारंभिक बैठक से शुरुआत की तथा कई बैठकों और स्थलों की यात्रा के बाद समिति ने 4 अक्टूबर, 1917 को अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंप दी।
  • समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सरकार ने तिनकठिया व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त कर दिया।
  • 10 अप्रैल, 2017 को चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री ने नई दिल्ली में ‘स्वच्छाग्रह-बापू को कार्यांजलि-एक अभियान, एक प्रदर्शनी’ नामक एक प्रदर्शनी का शुभारंभ किया।
  • प्रधानमंत्री द्वारा स्वच्छ भारत के निर्माण हेतु गंदगी के खिलाफ सत्याग्रह का आह्वान किया गया।
निष्कर्ष
एक सदी पूर्व मोहनदास करमचंद गांधी नील किसान राजकुमार शुक्ल के लगातार तकादे पर किसानों की दुर्दशा जानने बिहार के चंपारण गए थे। उस समय के लोगों और बाद में तो पूरे भारत के साथ-साथ समूची दुनिया ने भी देखा कि दक्षिण अफ्रीका में अपनाए गए हथियारों पर गांधीजी ने चंपारण में किस तरह शान चढ़ाया जिससे न केवल भारत बल्कि दुनिया में कहीं भी आजादी की लड़ाई में अहिंसा और सत्याग्रह को एक कारगर और कामयाब हथियार बना दिया। चंपारण, खुद गांधीजी के साथ-साथ समग्र भारत को उसकी नियति से पहला साक्षात्कार करा गया। लेकिन अफसोस इस बात का है कि सौ साल के अंतराल में किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं आया। आजादी के बाद से ही गांधीवादी विचारों एवं आदर्शों की तिलांजलि दे दी गई। वर्ष 1991 में नई आर्थिक नीति की शुरुआत के बाद से किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति भी तीव्र हो गई है। पूंजीवाद ने ग्रामीण सामाजिक जीवन के पूरे ताने-बाने को हिला कर रख दिया है। कहा जा सकता है कि, भारत को आजादी मिली, लेकिन किसानों की दुर्दशा का अंत नहीं हुआ। चंपारण समेत पूरा देश एक बार फिर से गांधीजी के आगमन की उम्मीद संजोए प्रतीक्षारत है।

चेनानी-नाशरी : देश की सबसे लंबी सड़क सुरंग


भूमिका

सुरम्य घाटियों, बर्फ से ढके पहाड़ों, हरे-भरे मैदानों आदि के बीच बसा जम्मू एवं कश्मीर राज्य पर्यटकों के लिए सदा ही आकर्षण का केंद्र रहा है। जम्मू एवं श्रीनगर के मध्य सड़क यात्रा के दौरान पर्यटक यहां के प्राकृतिक सौंदर्य से सम्मोहित हो जाते हैं। हालांकि इस यात्रा का एक दूसरा पक्ष यह है कि जम्मू एवं श्रीनगर राजमार्ग बहुत लंबा एवं घुमावदार सड़कों से युक्त है जिसके कारण पर्यटकों को सड़क मार्ग से यात्रा के दौरान कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है, साथ ही सर्दियों में भारी बर्फबारी की वजह से यह मार्ग अवरुद्ध हो जाता है जिसके कारण श्रीनगर का संपर्क देश के बाकी हिस्सों से कट जाता है। बहरहाल, अब चेनानी-नाशरी सुरंग के उद्घाटन से इस मार्ग पर यात्रा न केवल आरामदायक हो जाएगी, बल्कि यात्रा में लगने वाले समय की भी बचत होगी।

चेनानी-नाशरी सुरंग : राष्ट्र को समर्पित

2 अप्रैल, 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू एवं कश्मीर स्थित ‘चेनानी-नाशरी सुरंग’ (Chenani-Nashri Tunnel) को राष्ट्र को समर्पित किया। यह सुरंग 286 किमी. लंबे जम्मू एवं श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग (NH-44) के चौड़ीकरण की परियोजना का अंग है। इस सुरंग का निर्माण कार्य 23 मई, 2011 को प्रारंभ हुआ था। यह सुरंग 3720 करोड़ रु. की लागत से बनकर तैयार हुई है।

देश की सबसे लंबी सुरंग

9.2 किमी. लंबी चेनानी-नाशरी सुरंग ‘देश की सबसे लंबी सड़क सुरंग’ (India’s Longest Road Tunnel) है, साथ ही यह एशिया की सबसे लंबी ‘द्वि-दिशात्मक राजमार्ग सुरंग’ (Bi-directional Highways Tunnel) भी है। यह सुरंग जम्मू एवं कश्मीर के ऊधमपुर जिले में स्थित चेनानी को रामबन जिले स्थित नाशरी से जोड़ती है। इस सुरंग के निर्माण से जम्मू एवं श्रीनगर के बीच की दूरी 41 किमी. से घटकर 10.9 किमी. रह जाएगी। जिससे जम्मू एवं श्रीनगर के बीच की यात्रा में लगने वाला समय दो घंटे तक कम हो जाएगा। इसके परिणामस्वरूप प्रतिदिन 27 लाख रुपये मूल्य तक के ईंधन की बचत का भी अनुमान व्यक्त किया गया है।

सुरंग की संरचना

चेनानी-नाशरी सुरंग की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि इसमें लगभग 9.2 किमी. लंबी एवं दो-लेन वाली मुख्य सुरंग तो शामिल है ही, साथ ही इस मुख्य सुरंग के समानांतर इतनी ही लंबाई की एक ‘निकास सुरंग’ (Escape Tunnel) का निर्माण भी किया गया है। दरअसल, जब 1200 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय की निचली पर्वत शृंखला में इस सुरंग की नींव पड़ी, तो इंजीनियरों के सामने बिना पहाड़ को नुकसान पहुंचाए एक ऐसा रास्ता निकालने की चुनौती थी जो न सिर्फ दूरी कम करे बल्कि इससे गुजरने वाले यात्रियों के सफर को भी यादगार बना दे, परिणामस्वरूप 9.2 किमी. लंबी सुरंग के साथ-साथ उसके समानांतर एक छोटी सुरंग भी बनाने का निर्णय हुआ ताकि दुर्घटना आदि की स्थिति में छोटी सुरंग के जरिए बीच में फंसे किसी यात्री/वाहन को बाहर निकाला जा सके। बड़ी (मुख्य) सुरंग का व्यास 13 मीटर जबकि छोटी सुरंग का व्यास 6 मीटर है। दोनों सुरंगों को जोड़ने के लिए प्रत्येक 300 मीटर के अंतराल पर 29 रास्ते (Cross-passages) बनाए गए हैं। निकास सुरंग का प्रयोग केवल पैदल यात्रियों द्वारा ही किया जा सकेगा।

अन्य विशेषताएं
  • यह सुरंग एक कुशल वायु-संचार प्रणाली (Ventilation System) से युक्त है। सुरंग में प्रत्येक 8 मीटर की दूरी पर ताजी हवा अंदर आने के लिए इनलेट (Inlet) बनाए गए हैं। हवा बाहर जाने के लिए भी प्रति 100 मीटर पर आउटलेट बनाए गए हैं।
  • यह सुरंग एक ‘कुशल परिवहन तंत्र’ (Intelligent Traffic Mechanism) से लैस है और यह पूर्णतः स्वचालित (Fully Automatic) है, जिसके कारण इसके संचालन में मानवीय हस्तक्षेप आवश्यक नहीं है।
  • सुरंग में अत्याधुनिक स्कैनर लगे हैं, ताकि ये सुरक्षा संबंधी किसी खतरे को भांप सकें।
  • सुरंग में प्रति 150 मीटर पर एसओएस कॉल बॉक्स (SOS Call Box) लगे हैं, आपातकालीन स्थिति में यात्री इनका प्रयोग हॉट-लाइन की तरह कर सकेंगे।
  • यह एक पर्यावरण-अनुकूल (Environment-Friendly) सुरंग है, इसके निर्माण के लिए पेड़ों को नहीं काटा गया है।

निष्कर्ष
  • यह सुरंग केंद्र सरकार की ‘मेक इन इंडिया’ एवं ‘स्किल इंडिया’ पहलों का एक आदर्श उदाहरण है। स्किल इंडिया पहल के अनुसरण में जम्मू एवं कश्मीर के स्थानीय लोगों के कौशल विकास के पश्चात उन्हें इस सुरंग के निर्माण हेतु तैनात किया गया। इस परियोजना ने राज्य के 2000 से अधिक अकुशल एवं कुशल युवाओं को रोजगार प्रदान किया। इस परियोजना के निर्माण में संलग्न लगभग 94 प्रतिशत कार्यबल जम्मू एवं कश्मीर से ही था।
  • जम्मू एवं ऊधमपुर से रामबन, बनिहाल एवं श्रीनगर तक जाने वाले यात्रियों को यह सुरंग सभी मौसम में एक सुरक्षित एवं आरामदायक मार्ग उपलब्ध कराएगी। अब वाहन चालकों को ट्रैफिक जाम से निजात के साथ घुमावदार पहाड़ी रास्ते से भी छुटकारा मिलेगा। उल्लेखनीय है कि अभी तक चेनानी से नाशरी तक का 41 किमी. लंबा रास्ता काफी टेढ़ा-मेढ़ा और जबर्दस्त चढ़ाई वाला था, जिस पर वाहन चलाने में काफी मुश्किल आती थी।
  • इस सुरंग का संचालन प्रारंभ होने से कश्मीर घाटी में न केवल पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर भी उत्पन्न होंगे तथा राज्य के विकास की गति भी तीव्र होगी।

Tuesday 25 April 2017

टाइम-100 सूची, 2017


टाइम-100 ‘विश्व के 100 सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्तियों’ (100 Most Influential People in the World) की एक वार्षिक सूची है जो अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ (TIME) द्वारा जारी की जाती है। अमेरिकी शिक्षाविदों, राजनीतिज्ञों एवं पत्रकारों के मध्य विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप यह सूची सर्वप्रथम वर्ष 1999 में प्रकाशित की गई थी। टाइम पत्रिका के अंतरराष्ट्रीय लेखक मंडल तथा टाइम- 100 सूची में पूर्व में शामिल व्यक्तियों द्वारा नामित की गई शख्सियतों के आधार पर अंतिम सूची का चुनाव विशेष रूप से टाइम के संपादकों द्वारा किया जाता है। विश्व भर के राजनीति, मीडिया, खेल, संगीत सहित अन्य क्षेत्रों से जुड़े विशिष्ट लोगों को इस सूची में शामिल किया जाता रहा है। हालांकि आधिकारिक सूची जारी करने से कुछ दिन पूर्व आम जनता द्वारा मतदान के माध्यम से विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में ‘रीडर्स पोल’ (Reader’s Poll) के विजेता की घोषणा टाइम पत्रिका द्वारा की जाती है।
  • वर्ष 2017 की टाइम-100 सूची टाइम पत्रिका द्वारा 20 अप्रैल, 2017 को जारी की गई।
  • इसमें विश्व के 100 प्रभावशाली व्यक्तियों को निम्नलिखित 5 श्रेणियों में सूचीबद्ध किया गया है –
    (i) असाधारण व्यक्ति (Titans), (ii) नेतृत्वकर्ता (Leaders), (iii) कलाकार (Artists), (iv) मार्गदर्शक (Pioneers) तथा (v) आइकॉन (Icons)।
  • वर्ष 2017 की टाइम-100 सूची में दो भारतीयों यथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा पेटीएम (Paytm) के संस्थापक विजय शेखर शर्मा को स्थान प्राप्त हुआ है।
  • उल्लेखनीय है कि पेटीएम नोएडा स्थित मोबाइल भुगतान एवं वाणिज्य क्षेत्र की कंपनी है।
  • टाइम पत्रिका ने मोदी को नेतृत्वकर्ता की श्रेणी में शामिल करते हुए उन्हें एक ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ (Hindu Nationalist) की संज्ञा दी है।
  • नेतृत्वकर्ता श्रेणी के अंतर्गत शामिल कुछ अन्य प्रमुख लोगों में ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, विकीलीक्स के मुख्य संपादक जूलियन असांजे, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन एवं पोप फ्रांसिस के नाम उल्लेखनीय हैं।
  • विजय शेखर शर्मा को टाइम पत्रिका ने असाधारण व्यक्ति श्रेणी के अंतर्गत शामिल किया है।
  • पत्रिका के अनुसार, नवंबर, 2016 में भारत में नोटबंदी के बाद शर्मा की कंपनी पेटीएम ने भारतीयों को रोजमर्रा की वस्तुओं एवं सेवाओं के भुगतान के लिए पेटीएम के डिजिटल वॉलेट के प्रयोग हेतु प्रोत्साहित किया।
  • उनका यह कदम रंग लाया और वर्ष के अंत तक पेटीएम के प्रयोक्ताओं की संख्या बढ़कर 177 मिलियन तक पहुंच गई, जो वर्ष 2016 के प्रारंभ में 122 मिलियन थी।
  • असाधारण व्यक्ति श्रेणी के अंतर्गत शामिल कुछ अन्य प्रमुख लोगों में अमेरिकी फेडरल रिजर्व के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की प्रमुख जेनेट येलेन, अमेरिकी पेशेवर बास्केटबॉल खिलाड़ी लेब्रॉन जेम्स तथा अमेजन डॉट कॉम के संस्थापक जेफ बेजोस के नाम उल्लेखनीय हैं।
  • फरवरी, 2017 में 89वें ऑस्कर पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री घोषित एम्मा स्टोन (अमेरिका) एवं अमेरिकी गायिका एलिशिया कीज कलाकार श्रेणी के अंतर्गत प्रमुख व्यक्तियों में शामिल हैं।
  • मार्गदर्शक श्रेणी में शामिल प्रमुख व्यक्ति हैं -इवांका ट्रम्प (अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की पुत्री) एवं उनके पति जेरेड कुशनर और टोक्यो की पहली महिला गवर्नर यूरिको कोइके।
  • आइकॉन श्रेणी में शामिल प्रमुख व्यक्ति हैं-बुकर पुरस्कार विजेता एवं कनाडा की लेखिका मार्गरेट एटवुड, ब्राजीलियाई फुटबॉल खिलाड़ी नेमार तथा रियो ओलंपिक में स्वर्ण पदक विजेता अमेरिकी जिम्नास्ट सिमोन बाइल्स।
  • उल्लेखनीय है कि 17 अप्रैल, 2017 को फिलीपींस के राष्ट्रपति रॉड्रिगो दुतेर्ते टाइम-100 रीडर्स पोल के विजेता घोषित किए गए थे।

भारत-मंगोलिया संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण अभ्यास


भारत और मंगोलिया के मध्य राजनयिक संबंध दिसंबर, 1955 में स्थापित किए गए थे। भारत समाजवादी गुट से बाहर मंगोलिया से राजनयिक संबंध स्थापित करने वाला पहला देश था। हाल के वर्षों में भारत-मंगोलिया संबंध तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2001 में मंगोलियाई राष्ट्रपति नात्सागीन बागाबंदी (Natsagiin Bagabandi) की भारत की राजकीय यात्रा के दौरान रक्षा सहयोग सहित छः समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए थे। मई, 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगोलिया यात्रा के दौरान मंगोलिया के लिए 1 अरब डॉलर की साख-सीमा में वृद्धि की थी। रक्षा सहयोग को मजबूत करने के लिए दोनों देशों द्वारा संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण अभ्यास ‘नोमैडिक एलीफैंट’ सहित विभिन्न प्रयास किए जा रहे हैं।
  • 5-18 अप्रैल, 2017 के मध्य भारत-मंगोलिया संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण अभ्यास ‘नोमैडिक एलीफैंट, 2017’ का आयोजन भारत में किया गया।
  • यह नोमैडिक एलीफैंट का 12वां संस्करण था।
  • इस संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण अभ्यास का आयोजन वैरंग्ते, मिजोरम में किया गया।
  • ध्यातव्य है कि वैरंग्ते में भारतीय सेना का काउंटर इंश्योरजेंसी एंड जंगल वारफेयर स्कूल अवस्थित है।
  • सैन्य अभ्यास का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र शासनादेश के अधीन सैनिकों को बगावती (Insurgency) और आतंकवाद विरोधी कार्रवाई में प्रशिक्षण देना था।
  • प्रशिक्षण अभ्यास में भारतीय सेना की ओर से जम्मू & कश्मीर राइफल्स के तीन अधिकारी, 4 जेसीओ और 39 सैनिकों ने भाग लिया।
  • जबकि मंगोलियाई सेना की 084 स्पेशल फोर्सेस टॉस्क बटालियन के 9 अधिकारी और 36 सैनिकों ने भाग लिया।
  • उल्लेखनीय है कि नोमैडिक एलीफैंट भारत-मंगोलिया के मध्य वार्षिक सैन्य प्रशिक्षण अभ्यास है।
  • इस सैन्य अभ्यास का प्रथम आयोजन वर्ष 2004 में किया गया था।
  • वर्ष 2016 में 11वें नोमैडिक एलीफैंट का आयोजन मंगोलिया में किया गया था।

Monday 24 April 2017

भारत में महिलाओं की वर्तमान स्थिति की सामाजिक विवेचना


भारत में महिलाओं की स्थिति सदैव एक समान नहीं रही है। इसमें युगानुरूप परिवर्तन होते रहे हैं। उनकी स्थिति में वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे हैं तथा उनके अधिकारों में तदनरूप बदलाव भी होते रहे हैं। वैदिक युग में स्त्रियों की स्थिति सुदृढ़ थी, परिवार तथा समाज में उन्हे सम्मान प्राप्त था। उनको शिक्षा का अधिकार प्राप्त था। सम्पत्ति में उनको बराबरी का हक था। सभा व समितियों में से स्वतंत्रतापूर्वक भाग लेती थी तथापि ऋगवेद में कुछ ऐसी उक्तियां भी हैं जो महिलाओं के विरोध में दिखाई पड़ती हैं। मैत्रयीसंहिता में स्त्री को झूठ का अवतार कहा गया है। ऋगवेद का कथन है कि स्त्रियों के साथ कोई मित्रता नही है, उनके हृदय भेड़ियों के हृदय हैं। ऋगवेद के अन्य कथन में स्त्रियों को दास की सेना का अस्त्र-शस्त्र कहा गया है। स्पष्ट है कि वैदिक काल में भी कहीं न कहीं स्त्रियाीं नीची दृष्टि से देखी जाती थी। फिर भी हिन्दू जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह समान रूप से आदर और प्रतिष्ठित थी। शिक्षा, धर्म, व्यक्तित्व और सामाजिक विकास में उसका महान योगदान था। संस्थानिक रूप से स्त्रियों की अवनति उत्तर वैदिककाल से शुरू हुई। उन पर अनेक प्रकार के निर्योग्यताओं का आरोपण कर दिया गया। उनके लिए निन्दनीय शब्दों का प्रयोग होने लगा। उनकी स्वतंत्रता और उन्मुक्तता पर अनेक प्रकार के अंकुश लगाये जाने लगे। मध्यकाल में इनकी स्थिति और भी दयनीय हो गयी। पर्दा प्रथा इस सीमा तक बढ़ गई कि स्त्रियों के लिए कठोर एकान्त नियम बना दिए गये। शिक्षण की सुविधा पूर्णरूपेण समाप्त हो गई।
नारी के सम्बन्ध में मनु का कथन ''पितारक्षति कौमारे..........न स्त्री स्वातंन्न्यम् अर्हति।'' वहीं पर उनका कथन ''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता'', भी दृष्टव्य है वस्तुतः यह समस्या प्राचीनकाल से रही है। इसमें धर्म, संस्कृति साहित्य, परम्परा, रीतिरिवाज और शास्त्र को कारण माना गया है। भारतीय दृष्टि से इस पर विचार करने की की जरूरत है। पश्चिम की दृष्टि विचारणीय नहीं। भारतीय सन्दर्भों में समस्या के समाधान के लिए प्रयास हो तो अच्छे हुए हैं। भारतीय मनीषा समानाधिकार, समानता, प्रतियोगिता की बात नहीं करती वह सहयोगिता सहधर्मिती, सहचारिता की बात करती है। इसी से परस्पर सन्तुलन स्थापित हो सकता है।
वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल में महिलाओं को गरिमामय स्थान प्राप्त था। उसे देवी, सहधर्मिणी अर्द्धांगिनी, सहचरी माना जाता था। स्मृतिकाल में भी ''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता'' कहकर उसे सम्मानित स्थान प्रदान किया गया है। पौराणिक काल में शक्ति का स्वरूप मानकर उसकी आराधना की जाती रही है। किन्तु 11 वीं शताब्दी से 19 वीं शताब्दी के बीच भारत में महिलाओं की स्थिति दयनीय होती गई। एक तरह से यह महिलाओं के सम्मान, विकास, और सशक्तिकरण का अंधकार युग था। मुगल शासन, सामन्ती व्यवस्था, केन्द्रीय सत्ता का विनष्ट होना, विदेशी आक्रमण और शासकों की विलासितापूर्ण प्रवृत्ति ने महिलाओं को उपभोग की वस्तु बना दिया था और उसके कारण बाल विवाह, पर्दा प्रथा, अशिक्षा आदि विभिन्न सामाजिक कुरीतियों का समाज में प्रवेश हुआ, जिसने महिलाओं की स्थिति को हीन बना दिया तथा उनके निजी व सामाजिक जीवन को कलुषित कर दिया।
धर्मशास्त्र का यह कथन नारी स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं है अपितु नारी के निर्बाध रूप से स्वधर्म पालन कर सकने के लिए बाह्य आपत्तियों से उसकी रक्षा हेतु पुरूष समाज पर डाला गया उत्तरदायित्व है। इसलिए धर्मनिष्ठ पुरूष इसे भार न मानकर ,धर्मरूप में स्वीकार अपना कल्याणकारी कर्त्तव्य समझता है। पौराणिक युग में नारी वैदिक युग के दैवी पद से उतरकर सहधर्मिणी के स्थान पर आ गई थी। धार्मिक अनुष्ठानों और याज्ञिक कर्मो में उसकी स्थिति पुरूष के बराबर थी। कोई भी धार्मिक कार्य बिना पत्नी नहीं किया जाता था। श्रीरामचन्द्र ने अश्वमेध के समय सीता की हिरण्यमयी प्रतिमा बनाकर यज्ञ किया था। यद्यपि उस समय भी अरून्धती (महर्षि वशिष्ठ की पत्नी), लोपामुद्रा, महर्षि अगस्त्य की पत्नी),अनुसूया (महर्षि अ़त्रि की पत्नी) आदि नारियाँ दैवी रूप की प्रतिष्ठा के अनुरूप थी तथापि ये सभी अपने पतियों की सहधर्मिणी ही थीं।
मध्यकाल में विदेशियों के आगमन से स्त्रियों की स्थिति में जबर्दस्त गिरावट आयी। अशिक्षा और रूढ़िवाद जकड़ती गई,घर की चाहरी दीवारी में कैद होती गई और नारी एक अबला,रमणी और भोग्या बनकर रह गई। आर्य समाज आदि समाज-सेवी संस्थाओं ने नारी शिक्षा आदि के लिए प्रयास आरम्भ किये। उन्नीसवीं सदीं के पूर्वार्द्ध में भारत के कुछ समाजसेवियों जैसे राजाराम मोहन राय, दयानन्द सरस्वती, ईश्वरचन्द विद्यासागर तथा केशवचन्द्र सेन ने अत्याचारी सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध आवाज उठायी। इन्होंने तत्कालीन अंग्रेजी शासकों के समक्ष स्त्री पुरूष समानता, स्त्री शिक्षा, सती प्रथा पर रोक तथा बहु विवाह पर रोक की आवाज उठायी। इसी का परिणाम था सती प्रथा निषेध अधिनियम ,1829,1856 में हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम,1891 में एज आफ कन्सटेन्ट बिल ,1891 , बहु विवाह रोकने के लिये वेटिव मैरिज एक्ट पास कराया। इन सभी कानूनों का समाज पर दूरगामी परिणाम हुआ। वर्षों के नारी स्थिति में आयी गिरावट में रोक लगी। आने वाले समय में स्त्री जागरूकता में वृद्धि हुई ओैर नये नारी संगठनों का सूत्रपात हुआ जिनकी मुख्य मांग स्त्री शिक्षा, दहेज, बाल विवाह जैसी कुरीतियों पर रोक, महिला अधिकार, महिला शिक्षा का माँग की गई।
महिलाओं के पुनरोत्थान का काल ब्रिटिश काल से शुरू होता है। ब्रिटिश शासन की अवधि में हमारे समाज की सामाजिक व आर्थिक संरचनाओं में अनेक परिवर्तन किए गए। ब्रिटिश शासन के 200 वर्षों की अवधि में स्त्रियों के जीवन में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष अनेक सुधार आये। औद्योगीकरण, शिक्षा का विस्तार, सामाजिक आन्दोलन व महिला संगठनों का उदय व सामाजिक विधानों ने स्त्रियों की दशा में बड़ी सीमा तक सुधार की ठोस शुरूआत की।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक स्त्रियों की निम्न दशा के प्रमुख कारण अशिक्षा, आर्थिक निर्भरता, धार्मिक निषेध, जाति बन्धन, स्त्री नेतृत्व का अभाव तथा पुरूषों का उनके प्रति अनुचित दृष्टिकोण आदि थे। मेटसन ने हिन्दू संस्कृति में स्त्रियों की एकान्तता तथा उनके निम्न स्तर के लिए पांच कारकों को उत्तरदायी ठहराया है, यह है- हिन्दू धर्म, जाति व्यवस्था, संयुक्त परिवार, इस्लामी शासन तथा ब्रिटिश उपनिवेशवाद। हिन्दूवाद के आदर्शों के अनुसार पुरूष स्त्रियों से श्रेष्ठ होते हैं और स्त्रियों व पुरूषों को भिन्न-भिन्न भूमिकाएं निभानी चाहिए। स्त्रियों से माता व गृहणी की भूमिकाओं की और पुरूषों से राजनीतिक व आर्थिक भूमिकाओं की आशा की जाती है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से सरकार द्वारा उनकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार लाने तथा उन्हे विकास की मुख्य धारा में समाहित करने हेतु अनेक कल्याणकारी योजनाओं और विकासात्मक कार्यक्रमों का संचालन किया गया है। महिलाओं को विकास की अखिल धारा में प्रवाहित करने, शिक्षा के समुचित अवसर उपलब्ध कराकर उन्हे अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति सजग करते हुए उनकी सोंच में मूलभूत परिवर्तन लाने, आर्थिक गतिविधियों में उनकी अभिरूचि उत्पन्न कर उन्हे आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन की ओर अग्रसारित करने जैसे अहम उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पिछले कुछ दशकों में विशेष प्रयास किये गए हैं।
उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल से लेकर इक्कीसवीं सदी तक आते-आते पुनः महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ और महिलाओं ने शैक्षिक, राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, प्रशासनिक, खेलकूद आदि विविध क्षेत्रों में उपलब्धियों के नए आयाम तय किये। आज महिलाएँ आत्मनिर्भर, स्वनिर्मित, आत्मविश्वासी हैं, जिसने पुरूष प्रधान चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में भी अपनी योग्यता प्रदर्शित की है। वह केवल शिक्षिका, नर्स, स्त्री रोग की डाक्टर न बनकर इंजीनियर, पायलट, वैज्ञानिक, तकनीशियन, सेना, पत्रकारिता जैसे नए क्षेत्रों को अपना रही है। राजनीति के क्षेत्रों में महिलाओं ने नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर श्रीमती प्रतिभा पाटिल, लोकसभा स्पीकर के पद पर मीरा कुमार, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, वसुन्धरा राजे, सुषमा स्वराज, जयललिता, ममता बनर्जी, शीला दीक्षित आदि महिलाएँ राजनीति के क्षेत्र में शीर्ष पर हैं। सामाजिक क्षेत्र में भी मेधा पाटकर, श्रीमती किरण मजूमदार, इलाभट्ट, सुधा मूर्ति आदि महिलाएँ ख्यातिलब्ध हैं। खेल जगत में पी.टी. ऊषा, अंजू बाबी जार्ज, सुनीता जैन, सानिया मिर्जा, अंजू चोपड़ा आदि ने नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं। आई.पी.एस. किरण बेदी, अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स आदि ने उच्च शिक्षा प्राप्त करके विविध क्षेत्रों में अपने बुद्धि कौशल का परिचय दिया है।
20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध और अब 21 वीं सदी के प्रारम्भ में बराबरी व्यवहार वाले जोड़े बनने लगे हैं। नौकरी वाली नारी के साथ पुरूष की मानसिकता में बदलाव आया है। पहले नौकरी वाली औरत के पति को ''औरत की कमाई खाने वाला'' कह कर चिढ़ाया जाता था। आज यह सोच बदल चुकी है। स़्त्री स्वातय में अर्थशास्त्र का योगदान अद्भुत है। स्त्रियां धन कमाने लगीं हैं तो पुरूष की मानसिकता में भी परिवर्तन आया है। आर्थिक दृष्टि से नारी अर्थचक्र के केन्द्र की ओर बढ़ रही है। विज्ञापन की दुनियां में नारियां बहुत आगे हैं। बहुत कम ही ऐसे विज्ञापन होंगे जिनमें नारी न हो लेकिन विज्ञापन में अश्लीलता चिन्तन का विषय है। इससे समाज में विकिर्तियाँ भी बढ़ रही हैं। अर्थशास्त्र ने समाजशास्त्र को बौना बना दिया है।
आज की नारी राजनीति, कारोबार, कला तथा नौकरियों में पहुीचकर नये आयाम गढ़ रही हैं। भूमण्डलीकृत दुनियां में भारत और यहाी की नारी ने अपनी एक नितांत सम्मानजनक जगह कायम कर ली है। आंकड़े दर्शाते हैं कि प्रतिवर्ष कुल परीक्षार्थियों में 50 प्रतिशत महिलाऐं डाक्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण करती हैं। आजादी के बाद लगभग 12 महिलाएीं विभिन्न राज्यों की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। भारत के अग्रणी साफ्टवेयर उद्योग में 21 प्रतिशत पेशेवर महिलाऐं हैं। फौज, राजनीति, खेल, पायलट तथा उद्यमी सभी क्षेत्रों में जहाी वषरें पहले तक महिलाओं के होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वहां सिर्फ नारी स्वयं को स्थापित ही नहीं कर पायी है बल्कि वहां सफल भी हो रही हैं।
महिलाओं को शिक्षा देने तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिये जो सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुआ उससे समाज में एक नयी जागरूकता उत्पन्न हुई है। बाल-विवाह, भ्रूण-हत्या पर सरकार द्वारा रोक लगाने का अथक प्रयास हुआ है। शैक्षणिक गतिशीलता से पारिवारिक जीवन में परिवर्तन हुआ है। गांधी जी ने कहा था कि एक लड़की की शिक्षा एक लड़के की शिक्षा की उपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है क्यों लड़के को शिक्षित करने पर वह अकेला शिक्षित होता है किन्तु एक लड़की की शिक्षा से पूरा परिवार शिक्षित हो जाता है । शिक्षा ही वह कुंजी है जो जीवन के वह सभी द्वार खोल देती है जो कि आवश्यक रूप से सामाजिक है। शिक्षित महिलाओं को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय होने में बहुत मदद मिली। महिलायें अपनी स्थिति व अपने अधिकारों के विषय में सचेत होने लगी। शिक्षा ने उन्हें आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक न्याय तथा पुरूष के साथ समानता के अधिकारों की माीग करने को प्रेरित किया।
संवैधानिक अधिकारों में विभिन्न कानूनों के द्वारा महिलाओं को पुरूषों के समान अधिकार मिलने से उनकी स्थिति में परिवर्तन हुआ। महिलाओं की विवाह विच्छेद परिवार की सम्पत्ति में पुरूषों के समान अधिकार दिये गये। दहेज पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा तथा उन व्यक्तियों के लिये कठोर दण्ड की व्यवस्था की गयी जो दहेज की मांग को लेकर महिलाओं का उत्पीड़न करते हैं। अब सरकार लिव इन पर विचार कर रही है। संयुक्त परिवारों के विघटन होने से जैसे-जैसे एकांकी परिवार की संख्या बढ़ी इनमें न केवल महिलाओं को सम्मानित स्थान मिलने लगा बल्कि लड़कियों की शिक्षा को भी एक प्रमुख आवश्यकता के रूप में देखा जाने लगा। वातावरण अधिक समताकारी होने से महिलाओं को अपने वयक्तित्व का विकास करने के अवसर मिलने लगे।
महिला शिक्षा समाज का आधार है। समाज द्वारा पुरूष को शिक्षित करने का लाभ केवल मात्र पुरूष को होता है जबकि महिला शिक्षा का स्पष्ट लाभ परिवार, समाज एवं सम्पूर्ण राष्ट्र को होता है। चूंकि महिला ही माता के रूप में बच्चे की प्रथम अध्यापक बनती है। महिला शिक्षा एवं संस्कृति को सभी क्षेत्रों में पर्याप्त समर्थन मिला। यद्यपि कुछ समय तक महिला शिक्षा के समर्थक कम किन्तु आज समय एवं परिस्थितियों ने महिला शिक्षा को अनिवार्य बना दिया है।
स्त्री और मुक्ति आज भी नदी के दो किनारे की तरह है जो कभी मिल नहीं पाती सतही तौर पर देखा जाये तो लगता है कि भारत ही नहीं, विश्व पटल पर अपनी पहचान बनाती हुई स्त्रियों ने अपनी पुरानी मान्यतायें बदली हैं। आज की स्त्री की अस्मिता का प्रश्न मुखर होता जा रहा है। अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये संघर्ष करती हुई स्त्रियों ने लम्बा रास्ता तय कर लिया है, परन्तु आज भी एक बड़ा हिस्सा सदियों से सामाजिक अन्याय का शिकार है। ''जब-जब स्त्री अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है तब तब जाने कितने रीति-रिवाजों, परम्पराओं पौराणिक आख्यानों की दुहाई देकर उसे गुमनाम जीवन जीने पर विवश कर दिया जाता है।''
वस्तुतः इक्कीसवीं सदी महिला सदी है। वर्ष 2001 महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया। इसमें महिलाओं की क्षमताओं और कौशल का विकास करके उन्हें अधिक सशक्त बनाने तथा समग्र समाज को महिलाओं की स्थिति और भूमिका के संबंध में जागरूक बनाने के प्रयास किये गए। महिला सशक्तिकरण हेतु वर्ष 2001 में प्रथम बार प्रथम बार ''राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति'' बनाई गई जिससे देश में महिलाओं के लिये विभिन्न क्षेत्रों में उत्थान और समुचित विकास की आधारभूत विशेषताए निर्धारित किया जाना संभव हो सके। इसमें आर्थिक सामाजिक, सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ समान आधार पर महिलाओं द्वारा समस्त मानवाधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं का सैद्धान्तिक तथा वस्तुतः उपभोग पर तथा इन क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी व निर्णय स्तर तक समान पहुँच पर बल दिया गया है।
आज देखने में आया है कि महिलाओं ने स्वयं के अनुभव के आधार पर, अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के आधार पर अपने लिए नई मंजिलें, नये रास्तों का निर्माण किया है। क्या मात्र इस आधार पर उस सफलता के पीछे क्षणांश भी किसी पुरुष के हाथ होने की सम्भावना को नकार दिया जायेगा? यदि नहीं तो फिर समस्या कहाँ है? मैं कौन हूँ का प्रश्न अभी भी उत्तर की आस में क्यों खड़ा है?
जवाब हमारे सभी के अन्दर ही है पर उसको सामने लाने में हम घबराते भी दिखते हैं। स्त्री को एक देह से अलग एक स्त्री के रूप में देखने की आदत को डालना होगा। स्त्री के कपड़ों के भीतर से नग्नता को खींच-खींच कर बाहर लाने की परम्परा से निजात पानी होगी। कोड ऑफ कंडक्ट किसी भी समाज में व्यवस्था के संचालन में तो सहयोगी हो सकते हैं किन्तु इसके अपरिहार्य रूप से किसी भी व्यक्ति पर लागू किये जाने से इसके विरोध की सम्भावना उतनी ही प्रबल हो जाती है जितनी कि इसको लागू करवाने की। क्या बिकाऊ है और किसे बिकना है, अब इसका निर्धारण स्वयं बाजार करता है, हमें तो किसी को बिकने और किसी को जोर जबरदस्ती से बिकने के बीच में आकर खड़े होना है। किसी की मजबूरी किसी के लिए व्यवसाय न बने यह समाज को ध्यान देना होगा।
नग्नता और शालीनता के मध्य की बारीक रेखा समाज स्वयं बनाता और स्वयं बिगाड़ता है। एक नजर में उसका निर्धारक पुरुष होता है तो दूसरी निगाह उसका निर्धारक स्त्री को मानती है। उचित और अनुचित, न्याय और अन्याय, विवेकपूर्ण और अविवेकपूर्ण, स्वाधीनता और उच्छृंखलता, दायित्व और दायित्वहीनता, श्लीलता और अश्लीलता के मध्य के धुँधलके को साफ करना होगा। समाज में सरोकारों का रहना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि किसी भी स्त्री-पुरुष का। सामाजिकता के निर्वहन में स्त्री-पुरुष को समान रूप से सहभागी बनना होगा और इसके लिए स्त्री पुरुष को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझे और पुरुष भी स्त्री को एक देह नहीं, स्त्री रूप में एक इंसान स्वीकार करे। स्त्री की आज़ादी और खुले आकाश में उड़ान की शर्त उत्पादन में उसकी भूमिका हो। स्त्री की असली आज़ादी तभी होगी जब उसके दिमाग की स्वीकार्यता हो, न कि केवल उसकी देह की। अन्ततः कहीं ऐसा न हो कि स्त्री स्वतन्त्रता और स्वाधीनता का पर्व सशक्तिकरण की अवधारणा पर खड़ा होने के पूर्व ही विनष्ट होने लगे और आने वाली पीढ़ी फिर वही सदियों पुराना प्रश्न दोहरा दे कि 'मैं कौन हूँ?'
वर्तमान समय में भारतीय सरकार द्वारा महिलाओं के उत्थान के लिए अनेक कार्यक्रम एवं योजनाओं का संचालन तो की जा रहीं हैं लेकिन इन योजनाओं का क्रियान्वयन निचले स्तर तक उचित ढंग से न पहुँच सकने के कारण स्त्रियों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है। यह सत्य है कि वर्तमान समय में स्त्रियों की स्थिति में काफी बदलाव आए हैं, लेकिन फिर भी वह अनेक स्थानों पर पुरुष-प्रधान मानसिकता से पीड़ित हो रही है। इस सन्दर्भ में युगनायक एवं राष्ट्रनिर्माता स्वामी विवेकानन्द का यह कथन उल्लेखनीय है- ''किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है, वहाँ की महिलाओं की स्थिति। हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुँचा देना चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्याओं को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। हमें नारीशक्ति के उद्धारक नहीं, वरन् उनके सेवक और सहायक बनना चाहिए। भारतीय नारियाँ संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भाँति अपनी समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखती हैं। आवश्यकता है उन्हें उपयुक्त अवसर देने की। इसी आधार पर भारत के उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ सन्निहित हैं।''

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