Saturday 1 April 2017

भारतीय प्रशासन का संवैधानिक संदर्भ


प्रस्तावना

  • संविधान, किसी देश का उच्चतम कानून होता है। इनमेँ उन मूलभूत सिद्धांत का वर्णन होता है जिन पर किसी देश की सरकार और प्रशासन की प्रणाली टिकी होती है।
  • भारतीय प्रशासन के संवैधानिक संदर्भ का आशय भारतीय प्रशासन के उनके अधिकार और राजनीतिक ढांचों से है, जिनका निर्धारण भारतीय संविधान द्वारा किया गया है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते है कि भारतीय प्रशासन की प्रकृति, संरचना, शक्ति और भूमिका भारतीय संविधान के सिद्धांतों और प्रावधानों  द्वारा निर्धारित एवं प्रभावित है।
  • भारतीय संविधान की रचना कैबिनेट मिशन योजना के तहत वर्ष 1946 मेँ गठित संविधान सभा द्वारा की गई थी। इस संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे – डॉ. बी. आर. अंबेडकर उस सात सदस्यीय प्रारुप समिति के अध्यक्ष थे जिसने संविधान का प्रारुप तैयार किया था। संविधान सभा ने संविधान के निर्माण मेँ दो वर्ष, 11 माह और 18 दिन का समय लिया।
  • भारतीय संविधान 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ। इसी दिन से भारत एक गणतंत्र बन गया।
  • भारतीय संविधान विश्व के लिखित एवं विस्तृत संविधानों मेँ से एक है। मूलतः इस संविधान में 22 अध्याय, 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं। वर्तमान में इसमेँ 24 अध्याय, लगभग 450 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ शामिल हैँ।
  • संविधान की प्रस्तावना द्वारा भारत को संप्रभुता संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है। इसके अतिरिक्त संविधान के उद्देश्यों के रुप में न्याय, स्वतंत्रता समानता और भाईचारे की भावना को प्रमुखता प्रदान की गई है। संविधान की प्रस्तावना में 
  • समाजवादी और पंथ निरपेक्ष शब्दोँ को 42 वेँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा जोड़ा गया है।

भारतीय प्रशासन के संवैधानिक संदर्भ के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या निम्नलिखित शीर्षकों के तहत की गई है-
1. मौलिक अधिकार
2. राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत
3. मौलिक कर्तव्य
4. संघीय प्रणाली
5. केंद्र और राज्य के बीच विधायी संबंध
6. केंद्र और राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध
7. केंद्र राज्य के मध्य वित्तीय संबंध
8. संसदीय प्राणाली
9. संविधान-एक झलक
10. संविधान की अनुसूचियाँ

मौलिक अधिकार Fundamental Rights
  • मौलिक अधिकारों का उल्लेख संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद 12 से 35 में है। संविधान निर्माताओं को इस संदर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान (बिल ऑफ राइट्स) से प्रेरणा मिली थी।
  • संविधान में भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गई है। इसका आशय 2 चीजो से है- पहला संसद इन अधिकारों  को निरस्त या कम केवल संविधान संशोधन करके ही कर सकती है और यह संशोधन संविधान की धारा 368 में उल्लिखित क्रियाविधि के अनुसार ही किया जा सकता है।
  • इन अधिकारों के संरक्षण का उत्तरदायित्व उच्चतम नन्यायालय पर है। अर्थात मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए पीड़ित व्यक्ति सीधे उत्तम न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है।
  • मौलिक अधिकार औचित्यपूर्ण हैं, परंतु निरपेक्ष नहीं। सरकार इन पर न्यायोचित प्रतिबंध लगा सकती है, परंतु इन प्रतिबंधों के औचित्य या अनौचित्य का निर्धारण उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाता है।
  • ये अधिकार राज्य द्वारा अतिक्रमण किए जाने के विरुद्ध नागरिकोँ की स्वतंत्रताओं और अधिकारों की सुरक्षा करते हैं।
  • संविधान के अनुच्छेद 12 के अनुसार राज्य के अंतर्गत भारत सरकार, संसद तथा राज्यों की सरकारें, विधान सभायें तथा भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकरण शामिल हैं।
  • सभी न्यायालय किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने वाले विधायिका के कानूनों और कार्यपालिका के आदेशो को असंवैधानिक और गैर कानूनी घोषित कर सकते हैं (अनुच्छेद 13)।
  • मौलिक अधिकार राजनीतिक प्रजातंत्र के आदर्शोँ को बढ़ावा देने और देश मेँ अधिनायकवादी शासन की प्रवृत्ति को रोकने के लिए हैं।
संविधान मेँ मूलतया 7 मौलिक अधिकारोँ का प्रावधान था। संविधान के 44 वेँ संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से मौलिक अधिकारोँ की सूची से संपत्ति के अधिकार को हटा दिया गया है। इसलिए अब केवल 6 मौलिक अधिकार हैं यथा –
समता का अधिकार
  • कानून (विधि) के समक्ष समानता अथवा समान कानूनी संरक्षण (अनुच्छेद 14)
  • धर्म, मूल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 15)
  • लोक नियोजन मामलोँ मेँ अवसर की समानता (अनुच्छेद 16)
  • अस्पृश्यता (छुआछूत) का अंत तथा इस प्रकार के किसी भी आचरण पर रोक (अनुच्छेद 17)
  • पदवियों का अंत (सैन्य और शैक्षिक उपाधियों) को छोड़कर (अनुच्छेद 18)
स्वतंत्रता का अधिकार
  • सभी नागरिकोँ को अनुच्छेद 19-
  • वाक् स्वतंत्रता (बोलने की आजादी) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
  • शांतिपूर्ण और निःशस्त्र सम्मेलन की स्वतंत्रता
संगठन या संघ बनाने की स्वतंत्रता
  • भारत के राज्य क्षेत्र मेँ सर्वत्र स्वतंत्र रुप से घूमने फिरने की स्वतंत्रता
  • भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग मेँ बसने और रहने की स्वतंत्रता
  • कोई व्यवसाय, उपजीविका, व्यापार व कारोबार करने की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त होगा।
  • अपराधो के लिए दोष सिद्धि के संबंध मेँ संरक्षण (अनुच्छेद 20)
  • जीवन और स्वतंत्रता (व्यक्तिगत) का संरक्षण (अनुच्छेद 21)
  • आरंभिक शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21 क), जिसे 86वें मेँ संविधान संशोधन 2002 द्वारा जोड़ा गया है।
  • कुछ स्थितियों मेँ गिरफ्तारी और नजरबंदी से संरक्षण (अनुच्छेद 22)
शोषण के विरुद्ध अधिकार
  • मानव दुर्व्यापार और बलात श्रम पर प्रतिबंध (अनुच्छेद 23)
  • कारखानो मेँ 14 वर्ष से कम आयु के बालकोँ के नियोजन पर निषेधात्मक प्रतिबंध (अनुच्छेद 24)
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
  • अंतकरण और धर्म को मनाने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25)
  • धार्मिक आयोजनोँ की आजादी (अनुच्छेद 26)
  • किसी धर्म विशेष की अभिवृद्धि के लिए करोँ का भुगतान संबंधी स्वतंत्रता (अनुच्छेद 27)
  • शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा प्राप्ति या धार्मिक उपासना की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 28)
सांस्कृतिक और अधिकार
  • भाषा लिपि और संस्कृति के संबंध मेँ अल्पसंख्यक वर्ग के हितों का संरक्षण (अनुच्छेद 29)
  • शिक्षण संस्थान की स्थापना और उन पर प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार (अनुच्छेद 30)
संवैधानिक उपचारोँ का अधिकार
मौलिक अधिकारोँ को लागू करने के लिए उच्चतम न्यायालय का फैसला लेने के अधिकार की गारंटी है।
उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारोँ को लागू करने के लिए निर्देश या आदेश या रिट, जिनमें बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकारी-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट शामिल हैं, जारी करने की शक्ति प्राप्त होगी (अनुच्छेद 32)।

राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतोँ का उल्लेख संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 मेँ किया गया है। यह श्रेष्ठ विचार आयरलैंड के संविधान से प्रेरित है।
देश पर प्रशासन के लिए यह सिद्धांत मौलिक हैं, इसलिए कानून बनाते समय इनके अनुपालन की जिम्मेदारी राज्य की है। ये सिद्धांत मौलिक अधिकारो से निम्नलिखित संदर्भ मेँ अलग हैं-
मौलिक अधिकारोँ का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है जबकि निर्देशक सिद्धांतों का औचित्य सिद्ध नहीँ किया जा सकता, इसलिए इन सिद्धांतो के उल्लंघन होने पर न्यायालय द्वारा उन्हें लागू नहीँ करवाया जा सकता।
मौलिक अधिकारोँ का उद्देश्य राज्य की कड़ी कार्यवाही से नागरिकोँ की रक्षा करके उन्हें राजनीतिक आजादी की गारंटी प्रदान करना है, जबकि निदेशक तत्वो का उद्देश्य राज्य द्वारा समुचित कार्यवाही के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक आजादी को सुनिश्चित करना है।
निदेशक (निर्धारण) तत्वों को उनकी उनकी प्रकृति के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
कल्याणकारी (समाजवादी) सिद्धांत
गांधीवादी सिद्धांत
उत्तरवादी-बौद्धिक सिद्धांत
कल्याणकारी (समाजवादी) सिद्धांत
लोगोँ में कल्याण की भावना को बढ़ावा देने के लिए समाज व्यवस्था को द्वारा बनाए रखेगा- सामाजिक, आर्थिक, एवं राजनीतिक- तथा आय, स्तर, सुविधाओं एवं अवसरोँ मेँ असमानता को न्यूनतम करना (अनुच्छेद 38)।

राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि-
  • सभी नागरिकों के लिए जीविका के पर्याप्त साधनो के अधिकार को सुनिश्चित करना।
  • सर्वसाधारण के हित के लिए समुदाय के भौतिक संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करना।
  • उत्पादन के साधनों एवं धन के विकेंद्रीकरण के निवारण हेतु प्रयास करेगा।
  • पुरुषोँ और महिलाओं के लिए लिए समान कार्य के लिए समान वेतन हो।
  • श्रमिकों की शक्ति एवं स्वास्थ्य की सुरक्षा तथा बच्चो की बलात श्रम के विरुद्ध सुरक्षा हो।
  • बच्चो के स्वस्थ विकास हेतु अवसर उपलब्ध हों।
  • समान न्याय को संवर्धित करना और गरीबों को निःशुल्क वैधानिक सहायता उपलब्ध कराना (अनुच्छेद 39 क)।
  • रोजगार और शिक्षा पाने तथा बेरोजगारी, वृद्धावस्था और विकलांगता की स्थिति मेँ सार्वजनिक सहायता पाने का अधिकार हो (अनुच्छेद 41)।
  • कार्य की न्याय संगत और मानवोचित दशाओं के अनुसार प्रसूति सहायता का प्रावधान हो (अनुच्छेद 42)।
  • सभी श्रमिकोँ के लिए मजदूरी जीवन के गरिमामय मानकों एवं सांस्कृतिक अवसरोँ की उपलब्धता हो।
  • उद्योगो के प्रबंधन मेँ मजदूरोँ की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना (अनुच्छेद 43 क)।
  • आजीविका स्तर और पोषण के स्तर को ऊपर उठाना और जन स्वास्थ्य मेँ सुधार करना (अनुच्छेद 47)।
गांधीवादी सिद्धांत
  • ग्राम पंचायतो का गठन तथा उन्हें आवश्यक शक्तियों व प्राधिकारों से सुस्सजित करना ताकि वे स्वशासन की इकाइयोँ के रुप मेँ कार्य कर सकें (अनुच्छेद 40)।
  • ग्रामीण क्षेत्रोँ मेँ व्यक्तिगत या सहकारी आधार पर कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना (अनुच्छेद 43)।