Tuesday, 4 April 2017

ग्रीन बिल्डिंग

हाल ही में मुंबई में ग्रीन बिल्डिंग कांग्रेस का आयोजन किया गया था। ग्रीन बिल्डिंग की अवधारणा यूएस ग्रीन बिल्डिंग काउंसिल की तर्ज पर शुरू की गई थी। ऐसा अनुमान है, कि आने वाले दो वर्षों में भारत में ग्रीन बिल्डिंग उद्योग 20 प्रतिशत की दर से वृद्धि करेगा। इतना ही नहीं बल्कि 2018 में भारत के निर्माण क्षेत्र के तीन प्रमुख तरीकों में ग्रीन बिल्डिंग शामिल होगी। 70 देशों में किए सर्वेक्षण में पता लगता है कि हर तीन वर्ष में ग्रीन बिल्डिंग का बाज़ार दुगुना होता जा रहा है।
  • ग्रीन बिल्डिंग क्या है ?
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का ऐसा मानना है कि परंपरागत तरीके से हो रहे भवन निर्माण में 40% बिजली की खपत और 24% कार्बनडाई आक्साईड का उत्सर्जन होता है। ग्रीन बिल्डिंग ऐसी इमारतें हैं, जिनमे 30 से 40 प्रतिशत बिजली और 30 से 70 प्रतिशत पानी की बचत होती है। इसे बचाने के संसाधन अलग होते हैं, जिन्हें ग्रीन मैटेरियल कहा जाता है। प्राकृतिक ऊर्जा के उपयोग के कारण इनमें रहने वालों का स्वास्थ अपेक्षाकृत अच्छा रहता है। इसमें वेस्ट भी कम निकलता है।
  • भारत में ग्रीन बिल्डिंग –
इसकी शुरूआत 2001 में हैदराबाद के सोहराबजी गोदरेज ग्रीन बिजनेस सेंटर के निर्माण के साथ हुई थी। शुरूआत के वर्षों में इन भवनों की लागत आम भवनों से 18% ज्यादा आती थी। परंतु तकनीक के बेहतर उपयोग से अब यह अंतर महज 5% तक रह गया है।
  • ग्रीन बिल्डिंग के पैमाने –
कोई ईमारत ग्रीन है या नहीं, इसे जांचने के लिए भारत में दो प्रणालीयाँ हैं। पहली प्रणाली द लीडरशिप इन एनर्जी एंड एन्वायरलमेंटल डिजाइन (लीड) कहलाता है। दूसरा द ग्रीन रेटिंग फॉर इंटीग्रेटेड बिटेट है एसेसमेंट (ग्रिहा) कहलाता है। इस प्रणाली को दिल्ली स्थित अलाभकारी संस्था द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट एवं यूनियन मिनिस्ट्री ऑफ न्यू एंड रीन्यूएबल एनर्जी ने संयुक्त रूप से विकसित किया है। ग्रीन बिल्डिंग की रेटिंग की ये दोनों ही प्रणालियां एक तरह से बेंचमार्क हैं।
  • सच्चाई क्या है ?
यूं तो ग्रीन बिल्डिंग के मानकों में सबसे पहले बिल्डिंग की लोकेशन व साइट देखी जाती है। अगर यही गलत हो तो उसे ग्रीन बिल्डिंग नहीं माना जा सकता ।दूसरे, इसके लिए जो अलग संसाधन प्रयुक्त होते हैं, वे अलग-अलग राज्यों में उपलब्धता के अनुसार तय किए जाते हैं। जैसे असम में बांस ज्यादा मिलता है, तो उसे ही ग्रीन मटेरियल माना जाएगा।तीसरे, इसमें संरचना प्रणाली (Designs) का बहुत महत्व होता है। पुराने जमाने में जैसे ऊंची छतें और मोटी दीवारें ठंडक बनाए रखती थीं, उस तरह की बातों को ध्यान में रखा जाता है। जैसे- इसमें प्रयुक्त ऊर्जा व संसाधनों के सही उपयोग को ध्यान में रखा जाता है, जिससे ईमारत ग्रीन बनी रह सके।
                    सच्चाई यह है कि भारत में ग्रीन भवनों की रेटिंग के लिए न तो स्थानीय परिस्थितियों का ध्यान रखा जा रहा है और न ही ग्रीन बिल्डिंग का दावा करने वाले भवनों की जांच ठीक प्रकार से हो रही है, कि वे ग्रीन भवन के मानक पर खरी उतर रही हैं या नहीं। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारा नेशनल बिल्डिंग कोड (NBC) किसी तरह के ग्रीन मानकों को लागू करने या उनकी जांच करने के लिए बाध्य नहीं है। लीड और ग्रिहा जैसी संस्थाएं स्वतंत्र रूप से काम कर रही हैं, जिन पर सरकारी नियंत्रण नहीं के बराबर है। ये संस्थाएं भी वास्तविक ऊर्जा एवं संसाधनों की कड़ी जांच किए बिना भवनों को स्वीकृति दे देती हैं। महाराष्ट्र ने इस ओर कड़ा रूख ज़रूर अपनाया है। सरकार ने किसी भवन के ग्रीन बिल्डिंग पैमाने पर खरा न उतरने की स्थिति में उसको आर्थिक लाभ से वंचित करने का भी प्रावधान रखा है।
                    पश्चिमी देशों में लीड जैसी संस्था जिस प्रकार से काम कर रही हैं, भारत में भी वैसे ही तंत्र को अपनाकर ग्रीन बिल्डिंग को सफल बनाया जा सकता है। परंतु यह सफलता पश्चिमी  पैमानों पर नहीं वरन् भारतीय पैमानों को लागू करके ही प्राप्त की जा सकती है। जैसे पश्चिमी देशों की ग्रीन बिल्डिंग में कांच का ज्यादा उपयोग होता है, परंतु भारतीय मौसम के अनुसार कांच घरों को जल्दी गर्म करेगा और इसकी उपयोगिता नहीं है। इस तरह से व्यावहारिक धरातल पर अगर काम किया जाए, तो ग्रीन बिल्डिंग अत्यधिक लाभप्रद सिद्ध हो सकती हैं।