Sunday 16 April 2017

दिमाग में रहकर भी जुबान पर नहीं आता


क्या आपके साथ ऐसा कभी हुआ है कि आप किसी शब्द को याद कर रहे हों, और वो दिमाग में होकर भी आपकी जुबान पर नहीं आ रहा। पक्का आपके साथ ऐसा हुआ होगा। सबके साथ होता है। बार-बार ये लगता है कि वो शब्द आपकी जुबान पर है, पर बाहर नहीं आ रहा। वैसे मिलते-जुलते तमाम शब्द जेहन में आते हैं, मगर, दिमाग पर लाख जोर डाल लीजिए, वो सटीक शब्द उस वक़्त तो नहीं ही याद आता। बस आप झुंझलाकर रह जाते हैं। इसको हल्के में लेने की गलती न कीजिए। ये एक बीमारी होती है। वैज्ञानिकों ने इस बीमारी का नाम लेथोलॉजिका रखा है। अंग्रेजी का ये शब्द, ज्यादा पुराना नहीं। ये ग्रीक भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है। पहला शब्द है लेथे, यानी भूलने की आदत। और दूसरा ग्रीक शब्द है लोगोस जिसका मतलब है पढ़ाई। पुरानी यूनानी कहानियों में लेथे एक नदी का भी नाम था। ये उन पाँच नदियों में से एक थी, जिसका पानी, मर कर इस दुनिया से जाने वाले पीते थे, ताकि दुनियावी यादों को भुला सकें।
                                         जुबान पर आए शब्द न याद कर पाने वाली इस बीमारी को ये नाम, बीसवीं सदी के मशहूर मनोवैज्ञानिक, कार्ल गुस्ताव जंग ने दिया था। हालांकि जंग से भी पहले लेथोलॉजिका शब्द का जिक्र अमेरिका की इलस्ट्रेटेड मेडिकल डिक्शनरी में साल 1915 में हुआ था। बहरहाल, ये शब्द किसने सोचा, पहले पहल इस बीमारी को ये नाम किसने दिया, ये ज्यादा अहम नहीं। ये पक्का है कि पता होकर भी जुबान पर शब्द न आने की इस बीमारी पर सबसे पहले कार्ल जंग ने ही काम किया था। वैसे चिकित्सा विज्ञान की तरक्की के चलते, इस बीमारी के बारे में हमारी समझ भी बेहतर हुई है। ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक टॉम स्टैफोर्ड कहते हैं कि हमारा दिमाग किसी कंप्यूटर की तरह काम नहीं करता कि आपने किसी चीज को सर्च किया और झट से जवाब हाजिर। असल में किसी शब्द या जानकारी को हम जितनी शिद्दत से समझते हैं, महसूस करते हैं। हमारा दिमाग उसी हिसाब से उस शब्द या जानकारी को अपने अंदर अलग अलग खांचों में रखता है।
                                    किसी भी मानव के लिए पढ़ा हुआ हर शब्द सही समय पर याद करना करीब-करीब नामुमकिन है। अंग्रेजी भाषा को ही लें। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में आज की तारीख में छह लाख शब्द हैं। मगर, अंग्रेजी के बहुत से ऐसे शब्द हैं, जो इसमें नहीं। जानकार कहते हैं कि आम तौर पर हर मानव बोलने और लिखने में औसतन पचास हजार शब्द इस्तेमाल करता है। इसे वैज्ञानिकों की भाषा में किसी मानव का सक्रिय शब्दकोश है। इसके सिवा भी हर व्यक्ति को बहुत से और शब्द पता होते हैं। मगर, हम इन शब्दों को कम ही इस्तेमाल में लाते हैं। और इस तरह अपने दिमाग को संदेश देते हैं कि इन शब्दों की अहमियत हमारे लिए कम है। नतीजा ये कि दिमाग इन शब्दों को छांटकर किसी ऐसी जगह रख देता है, कि, कई बार पता होने पर भी ये याद नहीं आते। ऐसा लगता है कि बस अभी आपकी ज़ुबान पर ये शब्द आया, मगर याद नहीं आता। ये कुछ वैसा ही होता है, जैसे हम कोई चीज बक्से में बंद करके भूल जाए। और जिस चीज को हम नियमित रूप से इस्तेमाल नहीं करते, उसको भूल जाते हैं। यही हाल शब्दों के साथ होता है। जिन्हें हम बहुत कम इस्तेमाल करते हैं, उन्हें दिमाग अपने किसी पुराने बक्से में बंद करके भूल जाता है। और ऐसे ही शब्द होते हैं जो दिमाग पर बहुत जोर डालने पर याद नहीं आते। जैसे पुराना सामान, जिसके बारे में आपको पता है कि कहीं रख दिया था, मगर कहाँ, ये बहुत जोर देने पर भी याद नहीं आता।
                                      ऐसे हजारों शब्द होते हैं, जो हमारे दिमाग के किसी बक्से में बंद पड़े रहते हैं। और बहुत बार मौक़े पर याद नहीं आते। लेथोलॉजिका ऐसी बीमारी है, जिसमें हम शब्द भी भूल जाते हैं, और उसका पता ठिकाना भी। मतलब उससे हमारा रिश्ता टूट सा जाता है। मगर वो हमारे दिमाग के संग्रह की जगह, भी घेरे रहते हैं। शायद हमें जरूरत है ग्रीक पुराणों वाली नदी, लेथे का पानी पीने की, ताकि हम गैरजरूरी बातें भूल सकें, अपने दिमाग में की जगह बना सकें। इसका फायदा ये होगा कि गैरजरूरी जानकारी दिमाग से साफ होगी और हम अपने जरूरत वाली बातें ही याददाश्त के बक्से में रखेंगे, ताकि जब जरूरत पड़े फौरन उसे निकाल सकें।