Wednesday 26 April 2017

चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष


पृष्ठभूमि
  • वैश्विक स्तर पर नील (Indigo) की मांग को देखते हुए ब्रिटिश शासन द्वारा औपनिवेशिक भारत में भी नील की खेती को बढ़ावा दिया गया। इसी परिप्रेक्ष्य में 1850 ई. से लेकर 1870 ई. तक बिहार में नील की खेती द्रुतगति से बढ़ी। वर्ष 1893 ई. के आस-पास वैश्विक बाजार में कृत्रिम नील आने के बाद नील की खेती का मुनाफा तेजी से कम हुआ। एक ओर कृत्रिम नील तो दूसरी ओर किसानों के प्रतिरोध के कारण नीलहों का मुनाफा बाधित होने लगा। अपने मुनाफे को बनाए रखने के लिए निलहों ने लगभग 41 गैर-कानूनी कर लगाए थे, जिनके भुगतान न करने पर किसानों को शारीरिक दंड दिया जाता था। निलहे (ब्रिटिश बागान मालिक) न केवल वार्षिक उपज का 70 प्रतिशत भूमि कर वसूल कर रहे थे, बल्कि उन्होंने एक छोटे से मुआवजे के बदले किसानों को प्रत्येक 20 कट्टे जमीन के 3 कट्टे में नील की खेती करने के लिए मजबूर किया था। 20वीं सदी के आरंभ में किसान सीधे विद्रोह पर उतारू हो गए। वर्ष 1908 तक यह संघर्ष अपने चरम पर पहुंच गया और असंतोष की आग लगातार बढ़ती चली गई।
गांधीजी का आगमन
  • 9 जनवरी, 1915 को मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण-अफ्रीका से भारत लौटे और देशव्यापी दौरे पर निकल पड़े ताकि उस भावी संघर्ष को समझ सकें, जिसका वे हिस्सा बनने वाले थे। इसी दौरान लखनऊ में राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी से मुलाकात की तथा नील किसानों के संघर्ष से वाकिफ कराने के लिए उन्हें चंपारण पहुंचने को राजी किया। फलतः 10 अप्रैल, 1917 को गांधी जी पटना पहुंचे।
चंपारण सत्याग्रह
  • चंपारण, बिहार में लागू तिनकठिया पद्धति, (जिसके तहत किसानों को अपने कृषि रकबे के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था) तथा नील किसानों के शोषण के खिलाफ गांधीजी द्वारा शुरू किया गया सत्याग्रह, चंपारण सत्याग्रह के नाम से प्रसिद्ध है। गांधीजी द्वारा भारत में शुरू किया गया यह पहला सत्याग्रह था।
नया राजनीतिक प्रयोग
  • चंपारण सत्याग्रह के माध्यम से गांधीजी ने भारतीय राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए ‘नागरिक असहयोग’ की नीति का प्रादुर्भाव किया। इसका सफल प्रयोग वे दक्षिण अफ्रीका में पहले ही कर चुके थे। आगे तीस वर्षों में उन्होंने सत्याग्रह के जरिए लाखों लोगों को उस समय की संभवतः सर्वाधिक शक्तिशाली राजशाही के खिलाफ एकजुट कर दिया था। चंपारण, गांधीवादी राजनीतिक रणनीति की शुरुआती झलक का साक्षी बना।
प्रमुख घटनाक्रम
  • 10 अप्रैल, 2017 को चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष पूरे हुए। 10 अप्रैल, 1917 को गांधीजी सर्वप्रथम पटना, बिहार पहुंचे थे।
  • उन दिनों कृषि से संबंधित मुद्दों को मुश्किल से ही राजनीतिक क्रिया-कलापों का हिस्सा बनाया जाता था। यहां तक कि गांधीजी भी प्रारंभ में इस कार्य के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध करने के प्रति अनिच्छुक थे।
  • मोतिहारी में गांधीजी के खिलाफ आपराधिक दंड संहिता की धारा 144 का उल्लंघन करने के आरोप में स्थानीय अदालत द्वारा सम्मन जारी किया गया।
  • लेकिन गांधीजी ने चंपारण छोड़ने से मना कर दिया।
  • 4 जून, 1917 को बिहार के लेफ्टिनेंट गवर्नर, सर एडवर्ड गाइट ने रांची में गांधीजी से मुलाकात करते हुए नील किसानों के शोषण के मामले में एक औपचारिक जांच समिति के गठन की घोषणा की। गांधीजी को भी इस समिति का सदस्य बनाया गया।
  • चंपारण जांच समिति ने 11 जुलाई, 1917 को अपनी प्रारंभिक बैठक से शुरुआत की तथा कई बैठकों और स्थलों की यात्रा के बाद समिति ने 4 अक्टूबर, 1917 को अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंप दी।
  • समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सरकार ने तिनकठिया व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त कर दिया।
  • 10 अप्रैल, 2017 को चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री ने नई दिल्ली में ‘स्वच्छाग्रह-बापू को कार्यांजलि-एक अभियान, एक प्रदर्शनी’ नामक एक प्रदर्शनी का शुभारंभ किया।
  • प्रधानमंत्री द्वारा स्वच्छ भारत के निर्माण हेतु गंदगी के खिलाफ सत्याग्रह का आह्वान किया गया।
निष्कर्ष
एक सदी पूर्व मोहनदास करमचंद गांधी नील किसान राजकुमार शुक्ल के लगातार तकादे पर किसानों की दुर्दशा जानने बिहार के चंपारण गए थे। उस समय के लोगों और बाद में तो पूरे भारत के साथ-साथ समूची दुनिया ने भी देखा कि दक्षिण अफ्रीका में अपनाए गए हथियारों पर गांधीजी ने चंपारण में किस तरह शान चढ़ाया जिससे न केवल भारत बल्कि दुनिया में कहीं भी आजादी की लड़ाई में अहिंसा और सत्याग्रह को एक कारगर और कामयाब हथियार बना दिया। चंपारण, खुद गांधीजी के साथ-साथ समग्र भारत को उसकी नियति से पहला साक्षात्कार करा गया। लेकिन अफसोस इस बात का है कि सौ साल के अंतराल में किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं आया। आजादी के बाद से ही गांधीवादी विचारों एवं आदर्शों की तिलांजलि दे दी गई। वर्ष 1991 में नई आर्थिक नीति की शुरुआत के बाद से किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति भी तीव्र हो गई है। पूंजीवाद ने ग्रामीण सामाजिक जीवन के पूरे ताने-बाने को हिला कर रख दिया है। कहा जा सकता है कि, भारत को आजादी मिली, लेकिन किसानों की दुर्दशा का अंत नहीं हुआ। चंपारण समेत पूरा देश एक बार फिर से गांधीजी के आगमन की उम्मीद संजोए प्रतीक्षारत है।