Monday, 3 April 2017

"ग्लोबल वार्मिंग"


ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएँ बढ़ेगी और मौसम का मिज़ाज पूरी तरह बदला हुआ दिखेगा। यदि वर्तमान गति से पर्यावरण प्रदूषण जारी रहा तो आने वाले 75 वर्षों में पृथ्वी के तापमान में 3-6 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हो सकती है। जिसके बर्फ के पिघलने से समुद्री जल-स्तर में 1 से 1.2 फीट तक की वृद्धि हो सकती है और मुम्बई, न्यूयार्क, पेरिस, लन्दन, मालदीव, हालैण्ड और बांग्लादेश जैसे देशों के अधिकांश भूखण्ड समुद्र में जलमग्न हो सकते हैं।


क्या है ग्लोबल वार्मिंग?

आसान शब्दों में समझें तो ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ है ‘पृथ्वी के तापमान में वृद्धि और इसके कारण मौसम में होने वाले परिवर्तन’ पृथ्वी के तापमान में हो रही इस वृद्धि के परिणाम स्वरूप बारिश के तरीकों में बदलाव, हिमखण्डों और ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और वनस्पति तथा जन्तु जगत पर प्रभावों के रूप के सामने आ सकते हैं। ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की कितनी बड़ी समस्या है, यह बात एक आम आदमी समझ नहीं पाता है। उसे ये शब्द थोड़ा टेक्निकल लगता है। इसलिये वह इसकी तह तक नहीं जाता है। लिहाजा इसे एक वैज्ञानिक परिभाषा मानकर छोड़ दिया जाता है। ज्यादातर लोगों को लगता है कि फिलहाल संसार को इससे कोई खतरा नहीं है। भारत में भी ग्लोबल वार्मिंग एक प्रचलित शब्द नहीं है और भाग-दौड़ में लगे रहने वाले भारतीयों के लिये भी इसका अधिक कोई मतलब नहीं है। लेकिन विज्ञान की दुनिया की बात करें तो ग्लोबल वार्मिंग को लेकर भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं। इसको 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। यह खतरा तृतीय विश्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह (एस्टेराॅइड) के पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है।

                   ग्लोबल वार्मिंग के कारण प्रकृति में बदलाव आ रहा है। कहीं भारी वर्षा तो कहीं सूखा, कहीं लू तो कहीं ठंड। कहीं बर्फ की चट्टानें टूट रही हैं तो कहीं समुद्री जल-स्तर में बढ़ोत्तरी हो रही हैं। आज जिस गति से ग्लेशियर पिघल रहे हैं इससे भारत और पड़ोसी देशों को खतरा बढ़ सकता है। ग्लोबल वार्मिंग से फसल चक्र भी अनियमित हो जाएगा इससे कृषि उत्पादकता भी प्रभावित होगी। मनुष्यों के साथ-साथ पक्षी भी इस प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग पक्षियों के दैनिक क्रिया-कलाप और जीवन-चक्र को प्रभावित करता है।

                    ग्लोबल वार्मिंग में सर्वाधिक योगदान CO2 का है। 1880 से पूर्व वायुमण्डल में CO2 की मात्रा 280 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) थी जो आज आईपीसीसी रिपोर्ट के अनुसार 379 पीपीएम हो गई है। CO2 की वार्षिक वृद्धि दर गत वर्षों में (1995-2005) 1.9 पीपीएम वार्षिक है। आईपीसीसी ने भविष्यवाणी की है कि सन् 2100 आते-आते इसके तापमान में 1.1 से 6.40C तक बढ़ोत्तरी हो सकती है। सदी के अन्त तक समुद्री जल-स्तर में 18 से 58 से.मी. तक वृद्धि की सम्भावना है।

                      आईपीसीसी की रिपोर्ट में इस बात की चेतावनी दी गई है कि समस्त विश्व के पास ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करने के लिए मात्र 10 वर्ष का समय और है। यदि ऐसा नहीं होता है तो समस्त विश्व को इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2080 तक 3.80 अरब लोगों को पानी उपलब्ध नहीं होगा। 60 करोड़ लोग भूखे मरेंगे। खासकर के इससे अल्प विकसित देशों को हानि होगी। अल्पाइन क्षेत्रों और दक्षिणी अमेरिका के आमेजन वन के समाप्त हो जाने की सम्भावना है। प्रशान्त क्षेत्र के कई द्वीप जलमग्न हो जाएँगे। वायुमण्डल के इस प्रकार के परिवर्तन को रेडिएटिव फोर्सिंग द्वारा मापा जाता है। आईपीसीसी के प्रमुख आर.के. पचौरी ने जलवायु परिवर्तन के लिए निम्न कारकों को उत्तरदायी बताया है :

1. औद्योगीकरण (1880) से पूर्व CO2 की मात्रा 280 पीपीएम थी जो अब (2005 के अन्त में) बढ़कर 379 पीपीएम हो गई है।

2. औद्योगीकरण के पूर्व मीथेन की मात्रा 715 पार्ट्स पर बिलियन (पीपीबी) थी और 2005 में बढ़कर 1734 पीपीबी हो गई है।

3. मीथेन की सान्द्रता में वृद्धि के लिए कृषि एवं जीवाश्म ईन्धन को उत्तरदायी माना गया है।

4. उपरोक्त वर्षों में नाइट्रस ऑक्साइड की सान्द्रता क्रमशः 270 पीपीबी से बढ़कर 319 पीपीबी हो गई है।

5. समुद्री तापमान में भी 3000 मि.मी. वृद्धि हुई है।

6. समुद्री जल-स्तर में वृद्धि 1961 के मुकाबले 2003 में औसत वृद्धि 1.8 मि.मी. हुई है।

7. पिछले 100 वर्षों में अण्टार्कटिका के तापमान में दोगुना वृद्धि हुई है तथा इसके बर्फीले क्षेत्रफल में भी कमी आई है।

8. मध्य एशिया, उत्तरी यूरोप, दक्षिणी अमेरिका आदि में वर्षा की मात्रा में वृद्धि हुई है तथा भूमध्य सागर, दक्षिणी एशिया और अफ्रीका में सूखा में वृद्धि दर्ज की गई है।

9. मध्य अक्षांशों में वायु प्रवाह में तीव्रता आई है।

10. उत्तरी अटलाण्टिक से उत्पन्न चक्रवातों की संख्या में वृद्धि हुई है।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में इस बात की चेतावनी दी गई है कि समस्त विश्व के पास ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करने के लिए मात्र 10 वर्ष का समय और है। यदि ऐसा नहीं होता है तो समस्त विश्व को इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। कुछ वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि वैश्विक तापन से पृथ्वी की अपनी धुरी पर घूमने की गति में लगातार कमी होती जा रही है। जर्मनी के वैज्ञानिकों के एक शोध के अनुसार भविष्य में पैदा होने वाली सन्तान में लड़कों की संख्या बढ़ेगी जिसका कारण लड़कों का लिंग निर्धारण करने वाले Y-गुण सूत्र में गर्मी को सहन करने की क्षमता अधिक होती है। अभी तक के इतिहास में 1990 का दशक सर्वाधिक गर्म रहा।


कारण

ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस हैं। ग्रीन हाउस गैसें, वे गैसें होती हैं जो बाहर से मिल रही गर्मी या ऊष्मा को अपने अंदर सोख लेती हैं। ग्रीन हाउस गैसों का इस्तेमाल सामान्यतः अत्यधिक सर्द इलाकों में उन पौधों को गर्म रखने के लिये किया जाता है जो अत्यधिक सर्द मौसम में खराब हो जाते हैं। ऐसे में इन पौधों को काँच के एक बंद घर में रखा जाता है और काँच के घर में ग्रीन हाउस गैस भर दी जाती है। यह गैस सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी सोख लेती है और पौधों को गर्म रखती है। ठीक यही प्रक्रिया पृथ्वी के साथ होती है। सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी की कुछ मात्रा को पृथ्वी द्वारा सोख लिया जाता है। इस प्रक्रिया में हमारे पर्यावरण में फैली ग्रीन हाउस गैसों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। अगर इन गैसों का अस्तित्व हमारे में न होता तो पृथ्वी पर तापमान वर्तमान से काफी कम होता।

                         ग्रीन हाउस गैसों में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण गैस कार्बन डाइआॅक्साइड है, जिसे हम जीवित प्राणी अपने साँस के साथ उत्सर्जित करते हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी पर कार्बन डाइआॅक्साइड गैस की मात्रा लगातार बढ़ी है। वैज्ञानिकों द्वारा कार्बन डाइआॅक्साइड के उत्सर्जन और तापमान वृद्धि में गहरा सम्बन्ध बताया जाता है। सन 2006 में एक डाॅक्यूमेंट्री फिल्म आई – ‘द इन्कन्वीनियेंट ट्रुथ’। यह डाॅक्यूमेंट्री फिल्म तापमान वृद्धि और कार्बन उत्सर्जन पर केन्द्रित थी। इस फिल्म में मुख्य भूमिका में थे – अमेरिकी उपराष्ट्रपति ‘अल गोरे’ और इस फिल्म का निर्देशन ‘डेविड गुग्न्हेम’ ने किया था। इस फिल्म में ग्लोबल वार्मिंग को एक विभीषिका की तरह दर्शाया गया, जिसका प्रमुख कारण मानव गतिविधि जनित कार्बन डाइआॅक्साइड गैस माना गया। इस फिल्म को सम्पूर्ण विश्व में बहुत सराहा गया और फिल्म को सर्वश्रेष्ठ डाॅक्यूमेंट्री का आॅस्कर एवार्ड भी मिला। यद्यपि ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों द्वारा शोध कार्य जारी है, मगर मान्यता यह है कि पृथ्वी पर हो रहे तापमान वृद्धि के लिये जिम्मेदार कार्बन उत्सर्जन है जोकि मानव गतिविधि जनित है। इसका प्रभाव विश्व के राजनीतिक घटनाक्रम पर भी पड़ रहा है। सन 1988 में ‘जलवायु परिवर्तन पर अन्तरशासकीय दल’ (Inter Governmental Panel on Climate Change) का गठन किया गया था। सन 2007 में इस अन्तरशासकीय दल और तत्कालीन अमेरिकी उपराष्ट्रपति ‘अल गोरे’ को शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया।

                     आई.पी.सी.सी. वस्तुतः एक ऐसा अन्तरशासकीय वैज्ञानिक संगठन है जो जलवायु परिवर्तन से जुड़ी सभी सामाजिक, आर्थिक जानकारियों को इकट्ठा कर उनका विश्लेषण करता है। आई.पी.सी.सी का गठन सन 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली के दौरान हुआ था। यह दल खुद शोध कार्य नहीं करता और न ही जलवायु के विभिन्न कारकों पर नजर रखता है। यह दल सिर्फ प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित शोध पत्रों के आधार पर जलवायु को प्रभावित करने वाले मानव जनित कारकों से सम्बन्धित राय को अपनी रिपोटर्स के जरिए सरकारों और आम जनता तक पहुँचाता है। आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट के अनुसार मानवजनित ग्रीन हाउस गैसें वर्तमान में पर्यावरण में हो रहे तापमान वृद्धि के लिये पूरी तरह से जिम्मेदार हैं, जिनमें कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा सबसे ज्यादा है।

                     इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग में 90 प्रतिशत योगदान मानवजनित कार्बन उत्सर्जन का है। जबकि प्रो. यू.आर. राव अपने शोध के आधार पर कह रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग में 40 प्रतिशत योगदान तो सिर्फ काॅस्मिक विकिरण का है। इसके अलावा कई अन्य कारक भी हैं जिनका ग्लोबल वार्मिंग में योगदान है और उन पर शोध कार्य जारी है।

                  भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा ‘इसरो’ के पूर्व चेयरमैन और भौतिकविद प्रो. यू.आर. राव अपने शोध-पत्र में लिखते हैं कि अंतरिक्ष से पृथ्वी पर आपतित हो रहे काॅस्मिक विकिरण का सीधा सम्बन्ध सौर-क्रियाशीलता से होता है। अगर सूरज की क्रियाशीलता बढ़ती है तो ब्रह्माण्ड से आने वाला काॅस्मिक विकिरण निचले स्तर के बादलों के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाता है। इस बात की पेशकश सबसे पहले स्वेन्समार्क और क्रिस्टेन्सन नामक वैज्ञानिकों ने की थी। निचले स्तर के बादल सूरज से आने वाले विकिरण को परावर्तित कर देते हैं, जिस कारण से पृथ्वी पर सूरज से आने वाले विकिरण के साथ आई गर्मी भी परावर्तित होकर ब्रह्माण्ड में वापस चली जाती है।

               वैज्ञानिकों ने पाया कि सन 1925 से सूरज की क्रियाशीलता में लगातार वृद्धि हुई। जिसके कारण पृथ्वी पर आपतित होने वाले काॅस्मिक विकिरण में लगभग 9 प्रतिशत कमी आई है। इस विकिरण में आई कमी से पृथ्वी पर बनने वाले खास तरह के निचले स्तर के बादलों के निर्माण में भी कमी आई है, जिससे सूरज से आने वाला विकिरण सोख लिया जाता है और इस कारण से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता है। प्रो. राव के निष्कर्ष के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग में इस प्रक्रिया का 40 प्रतिशत योगदान है जबकि काॅस्मिक विकिरण सम्बन्धी जलवायु ताप की प्रक्रिया मानव गतिविधि जनित नहीं है और न ही मानव इसे संचालित कर सकता है। इस तरह यह शोध आई.पी.सी.सी के इस निष्कर्ष का खंडन करता है कि ग्लोबल वार्मिंग में 90 प्रतिशत योगदान मानव का है। अगर ग्लोबल वार्मिंग के अन्य कारकों का अध्ययन किया जाए तो ग्लोबल वार्मिंग में मानव-गतिविधियों का योगदान आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट की अपेक्षा बहुत कम होगा।

                 प्रो. राव के इस शोध-पत्र के प्रकाशन के ठीक दो दिन बाद विश्व के प्रख्यात वैज्ञानिक जर्नल ‘नेचर’ में यूनिवर्सिटी आॅफ लीड्स के प्रो. ऐन्ड्रयू शेफर्ड का शोध-पत्र प्रकाशित हुआ, जिसमें कहा गया है कि ग्रीनलैंड की बर्फ को पिघलने में उस समय से कहीं अधिक समय लगेगा जितना की आई.पी.सी.सी. की चौथी रिपोर्ट में कहा गया है। ऐन्ड्रयू शेफर्ड अपने शोध-पत्र में लिखते हैं कि ग्रीनलैंड की बर्फ अपेक्षाकृत सुरक्षित है, उसे पिघलने में काफी वक्त लगेगा। सन 1999 में डाॅ. वी.के. रैना ने अपने शोध के दौरान पाया था कि हिमालय ग्लेशियर भी अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं।

                 हालाँकि, प्रो. राव के इस शोध के प्रमुख आधार काॅस्मिक विकिरण और निचले स्तर के बादलों की निर्माण प्रक्रिया के बीच के अन्तःसम्बन्धों पर कुछ वैज्ञानिकों ने इस दिशा में शोध भी किए, मगर अब तक अंतरिक्ष से पृथ्वी पर आपतित हो रहे काॅस्मिक विकिरण और पृथ्वी पर निचले स्तर के बादलों के निर्माण के अन्तःसम्बन्धों पर विश्व के सभी वैज्ञानिकों में आम सहमति नहीं बन पाई है। यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि इस पूरे मुद्दे पर सही निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये ‘यूरोपीय नाभिकीय अनुसंधान संगठन’ (CERN) के ‘लार्ज हैड्रोन कोलाइडर’ की सहयता से वैज्ञानिकों ने प्रयोगों की एक श्रृंखला संपन्न करने का निर्णय लिया है। यह प्रयोग अभी हाल ही में प्रारम्भ हुआ है और ऐसी आशा है कि परिणाम आने जल्द शुरू हो जाएँगे। इस प्रोजेक्ट को ‘क्लाउड’, (Cosmic Leaving Outdoor)’ का नाम दिया गया है। इस प्रोजेक्ट में काॅस्मिक विकिरण का पृथ्वी पर बादलों के बनने की प्रक्रिया पर प्रभाव, जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव आदि सम्बन्धित विषयों पर अध्ययन और शोध किया जा रहा है। जलवायु विज्ञान के इतिहास में यह पहली बार होने जा रहा है कि जलवायु से जुड़े मुद्दों पर ‘उच्च-ऊर्जा कण त्वरक’ (High Energy Particle Accelerator) का इस्तेमाल किया जाएगा। उम्मीद है कि इस प्रयोग के संपन्न होने के बाद इस पूरे विषय पर हमारी समझ और विकसित हो सकेगी।

ग्रीन हाउस प्रभाव

वायुमण्डल के संघटन में CO2 एक महत्वपूर्ण कारक है। कुछ और अन्य गैसें और CO2 सूर्य की किरणों का अवशोषण करके वायुमण्डल को अपेक्षित ताप तक गर्म रखती है। इसे ही ग्रीन हाउस प्रभाव कहते हैं। इस प्रभाव में मुख्य भूमिका CO2 के अलावा CH4, CFC, N2O और O3 गैसें हैं। ये गैसें पृथ्वी के चारों ओर एक आवरण बना लेती हैं। जिसमें सौर विकिरण प्रवेश तो कर लेता है लेकिन वापस नहीं जा पाता है और पृथ्वी तथा वायुमण्डल दोनों का ताप बढ़ता है। ग्रीन हाउस प्रभाव की घटना बहुत पुरानी है। लेकिन इस पर पहले ध्यान नहीं दिया जाता था। जब औद्योगीकरण की शुरुआत हुई तो यह प्रभाव चर्चा में आया।

                       यदि वर्तमान गति से पर्यावरण प्रदूषण जारी रहा तो आने वाले 75 वर्षों में पृथ्वी के तापमान में 3-60C की वृद्धि हो सकती है। जिसके बर्फ के पिघलने से समुद्री जल-स्तर में 1 से 1.2 फीट तक की वृद्धि हो सकती है और मुम्बई, न्यूयार्क, पेरिस, लन्दन, मालदीव, हालैण्ड और बांग्लादेश जैसे देशों के अधिकांश भूखण्ड समुद्र में जलमग्न हो सकते हैं।

घातक परिणाम

ग्रीन हाउस गैस वो गैस होती है जो पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश कर यहाँ का तापमान बढ़ाने में कारक बनती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 21वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 डिग्री से 8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक होंगे। दुनिया के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जाएँगी, समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर तक बढ़ जाएगा। समुद्र के इस बर्ताव से दुनिया के कई हिस्से जलमग्न हो जाएँगे, भारी तबाही मचेगी। यह तबाही किसी विश्वयुद्ध या किसी ‘ऐस्टेराॅइड’ के पृथ्वी से टकराने के बाद होने वाली तबाही से भी बढ़कर होगी। हमारे ग्रह पृथ्वी के लिये भी यह स्थिति बहुत हानिकारक होगी।

जागरूकता

ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का कोई इलाज नहीं है। इसके बारे में सिर्फ जागरूकता फैलाकर ही इससे लड़ा जा सकता है। हमें अपनी पृथ्वी को सही मायनों में ‘ग्रीन’ बनाना होगा। अपने ‘कार्बन फुटप्रिंट्स’ (प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन को मापने का पैमाना) को कम करना होगा।

                      हम अपने आस-पास के वातावरण को प्रदूषण से जितना मुक्त रखेंगे, इस पृथ्वी को बचाने में उतनी ही बड़ी भूमिका निभाएंगे।

ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन

माना जा रहा है कि इसकी वजह से उष्णकटिबंधीय रेगिस्तानों में नमी बढ़ेगी। मैदानी इलाकों में भी इतनी गर्मी पड़ेगी जितनी कभी इतिहास में नहीं पड़ी। इस वजह से विभिन्न प्रकार की जानलेवा बीमारियाँ पैदा होंगी। हमें ध्यान में रखना होगा कि हम प्रकृति को इतना नाराज न कर दें कि वह हमारे अस्तित्व को खत्म करने पर ही आमादा हो जाए। हमें इन सब बातों का ख्याल रखना पड़ेगा।

                      आज हर व्यक्ति पर्यावरण की बात करता है। प्रदूषण से बचाव के उपाय सोचता है। व्यक्ति स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त पर्यावरण में रहने के अधिकारों के प्रति सजग होने लगा है और अपने दायित्वों को समझने लगा है। वर्तमान में विश्व ग्लोबल वार्मिंग के सवालों से जूझ रहा है। इस सवाल का जवाब जानने के लिये विश्व के अनेक देशों में वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोग और खोजें हुई हैं। उनके अनुसार अगर प्रदूषण फैलने की रफ्तार इसी तरह बढ़ती रही तो अगले दो दशकों में धरती का औसत तापमान 0.3 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक के दर से बढ़ेगा। जो चिंताजनक है।

                    तापमान की इस वृद्धि से विश्व के सारे जीव-जंतु बेहाल हो जाएँगे और उनका जीवन खतरे में पड़ जाएगा। पेड़-पौधों में भी इसी तरह का बदलाव आएगा। सागर के आस-पास रहने वाली आबादी पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। जल स्तर ऊपर उठने के कारण सागर तट पर बसे ज्यादातर शहर इन्हीं सागरों में समा जाएँगे। हाल ही में कुछ वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि जलवायु में बिगाड़ का सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो कुपोषण और विषाणु जनित रोगों से होने वाली मौतों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हो सकती है।

                      इस पारिस्थितिक संकट से निपटने के लिये मानव को सचेत रहने की जरूरत है। दुनिया भर की राजनीतिक शक्तियाँ इस बहस में उलझी हैं कि गर्माती धरती के लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाए। अधिकतर राष्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग नहीं हो रही है। लेकिन सच यह है कि इसके लिये कोई भी जिम्मेदार हो, भुगतना सबको है। यह बहस जारी रहेगी लेकिन ऐसी कई छोटी पहल है जिनसे अगर हम शुरू करें तो धरती को बचाने में बूँद भर योगदान कर सकते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग

संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों ने 2015 तक नई जलवायु संधि कराने के लिये पहला कदम उठाया है और इस पर बातचीत शुरू की है कि वे किस तरह इस लक्ष्य को पूरा करेंगे। यह संधि विकसित और विकासशील देशों पर लागू होगी।

                       संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लाइमेट चेंज (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) पर दस्तखत करने वाले 195 देशों ने बाॅन में इस बात पर बहस शुरू की है कि पिछले साल दिसंबर में डरबन सम्मेलन में तय लक्ष्य पाने के लिये वह किस तरह काम करेंगे। उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने वाली दक्षिण अफ्रीका की माइते एनकोआना मशाबाने ने सदस्य देशों से वार्ता के पुराने और नकारा तरीकों को छोड़ने की अपील की। उन्होंने समुद्र के बढ़ते जल स्तर की वजह से डूबने का संकट झेल रहे छोटे देशों का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘समय कम है और हमें अपने कुछ भाइयों, खासकर छोटे द्वीपों वाले देशों की अपील को गम्भीरता से लेना है।’’

                         जर्मनी की पुरानी राजधानी बाॅन में आयोजित सम्मेलन के अनुसार 2015 तक नई संधि पूरी हो जाएगी और उसे 2020 से लागू कर दिया जाएगा। इसमें गरीब और अमीर देशों को ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिये और जहरीली गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिये एक ही कानूनी ढाँचे में रखा जाएगा। इस समय संयुक्त राष्ट्र के तहत विकसित और विकासशील देशों के लिये पर्यावरण सुरक्षा सम्बन्धी अलग-अलग कानूनी नियम हैं।

                     आलोचकों का कहना है कि ये नियम अब समय के अनुसार नहीं हैं। ग्लोबल वार्मिंग के लिये ज्यादातर ऐतिहासिक जिम्मेदारी अमीर देशों की है, लेकिन उनका कहना है कि भविष्य में समस्या को सुलझाने का बोझ उन पर डालना अनुचित होगा। इस बीच सबसे ज्यादा जहरीली गैसों का उत्सर्जन करने वालों की सूची में चीन, भारत और ब्राजील जैसे देश शामिल होते जा रहे हैं जो अपनी आबादी को गरीबी से बाहर निकालने के लिये कोयला, तेल और गैस का व्यापक इस्तेमाल कर रहे हैं। हालाँकि, अभी भी प्रति व्यक्ति औसत खपत पश्चिमी देशों से कम है।

                        समुद्र में बसे छोटे देशों और अफ्रीकी देशों ने चेतावनी देते हुए कहा है कि गैसों के उत्सर्जन में कटौती के वायदों और ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिये उसकी जरूरत के बीच बड़ी खाई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि वर्तमान उत्सर्जन जारी रहता है तो दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा, जबकि यू.एन.एफ.सी.सी.सी. ने 2011 में 2 डिग्री सेल्सियस को सुरक्षित अधिकतम वृद्धि बताया है।

                      यू.एन.एफ.सी.सी.सी. ने सिर्फ इतना तय किया है कि उसे साझा, लेकिन अलग-अलग, जिम्मेदारी तय करनी है। इसका मतलब है कि गरीब और अमीर अर्थव्यवस्थाओं पर अलग-अलग बोझ डाला जाएगा। 2015 तक जिन मुद्दों पर फैसला लिया जाना है, वह यह है कि कौन देश कितनी कटौती करेगा, संधि को लागू करने की संरचना क्या होगी, उसका कानूनी दर्जा क्या होगा।

                     विकासशील देश विकसित औद्योगिक देशों से सद्भावना दिखाने की मांग कर रहे हैं। वे यूरोपीय संघ से क्योटो संधि के वायदों को फिर से दोहराने की अपील कर रहे हैं। वह अकेली संधि है जिसमें ग्रीन हाउस गैसों में कटौती तय की गई थी। इसके विपरीत क्योटो को पास करने वाला अमेरिका उभरते देशों से कटौती के अपने वायदों को बढ़ाने की मांग कर रहा है। आने वाले विवादों को संकेत देते हुए ग्रीन क्लाइमेट फंड की पहली बैठक स्थगित कर दी गई है। इसका गठन गरीब देशों की मदद के लिये 10 अरब डाॅलर जमा करना है।

ग्लोबल वार्मिंग रोकने के उपाय

वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग में कमी के लिये मुख्य रूप से सी.एफ.सी. गैसों का उत्सर्जन रोकना होगा और इसके लिये फ्रिज़, एयर कंडीशनर और दूसरे कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिससे सी.एफ.सी.गैसें कम निकलती हों। औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ हानिकारक है और इनसे निकलने वाला कार्बन डाइआॅक्साइड गर्मी बढ़ाता है। इन इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे। वाहनों में से निकलने वाले धुएँ का प्रभाव कम करने के लिये पर्यावरण मानकों का सख्ती से पालन करना होगा। उद्योगों और ख़ासकर रासायनिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे को फिर से उपयोग में लाने लायक बनाने की कोशिश करनी होगी और प्राथमिकता के आधार पर पेड़ों की कटाई रोकनी होगी और जंगलों के संरक्षण पर बल देना होगा।

                   अक्षय ऊर्जा के उपायों पर ध्यान देना होगा यानि अगर कोयले से बनने वाली बिजली के बदले पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और पनबिजली पर ध्यान दिया जाए तो वातावरण को गर्म करने वाली गैसों पर नियंत्रण पाया जा सकता है तथा साथ ही जंगलों में आग लगने पर रोक लगानी होगी।जलवायु में परितर्वन के लिए ग्रीन हाउस गैसें जिम्मेदार हैं। इनमें सबसे ज्यादा उत्सर्जन कार्बन डाई आक्साइड, नाइट्रस आक्साइड, मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, वाटर वेपर, ओजोन आदि करती हैं। कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन पिछले 10-15 सालों में 40 गुना बढ़ गया है। दूसरे शब्दों में औद्यौगिकीकरण के बाद से इसमें 100 गुना का इजाफा हुआ है। दरअसल, आम इस्तेमाल के उपकरणों एसी, फ्रिज, कंप्यूटर, स्कूटर, कार आदि से इन गैसों का उत्सर्जन होता है। कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन का सबसे बड़ा जरिया पेट्रोलियम ईंधन और परंपरागत चूल्हे हैं।

              पशुपालन से मीथेन का उत्सर्जन होता है। कोयला बिजली घर भी ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत हैं। हालांकि क्लोरोफ्लोरो का इस्तेमाल देश में बंद हो चुका है। लेकिन इसके स्थान पर इस्तेमाल हो रही गैस हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन सबसे खतरनाक ग्रीन हाउस गैस है जो कार्बन डाई आक्साइड की तुलना में एक हजार गुना ज्यादा नुकसानदेह है।

                कार्बन डाई आक्साइड गैस तापमान बढ़ाती है। उदाहरण के तौर पर वीनस यानी शुक्र ग्रह पर 97.5 फीसदी कार्बन डाई आक्साइड है जिस कारण उसकी सतह का तापमान 467 डिग्री सेल्सियस है। राहत की बात यह है कि धरती पर उत्सर्जित होने वाली 40 फीसदी कार्बन को पेड़-पौधे सोख लेते हैं। वातावरण में ग्रीन हाऊस गैसें थर्मल इंफ्रारेड रेंज के विकिरण का अवशोषण और उत्सजर्न करती है। सोलर सिस्टम में शुक्र, मंगल और टाइटन में ऐसी गैसें पाई जाती हैं जिसकी वजह से ग्रीन हाऊस इफेक्ट होता है।

ओजोन क्या है?

ओजोन ऑक्सीजन का एक प्रकार है। लेकिन ऑक्सीजन के विपरीत, ओजोन एक विषैली गैस है। प्रत्येक ओजोन का मॉलेक्यूल तीन ऑक्सीजन के अणुओं से मिलकर बना है इसलिये इसका सूत्र ओ3 (O3) है। ओजोन तब बनती है जब पराबैंगनी किरणें ऑक्सीजन मॉलेक्यूल्स को ऊपरी वातावरण में बनाती है। यदि एक मुक्त ऑक्सीजन का अणु किसी ऑक्सीजन मॉलेक्यूल में जाता है तब ये तीन ऑक्सीजन अणु मिलकर ओजोन अथवा ओ3 (O3) बनाते हैं।

अच्छा व बुरा ओजोन

पृथ्वी की परत से 15-50 किमी का ऊपरी भाग, जहां पर ओजोन प्राकृतिक रूप से उपस्थित होती है, ये सूर्य की पराबैंगनी किरणों को धरती तक आने से रोकती है और इस तरीके से पृथ्वी की रक्षा करती है।

                पृथ्वी के नजदीक की वातावरणीय परत, इसमें गाड़ियों से निकलने वाले धुंए के कारण नाइट्रोजन ऑक्साइड व हाइड्रोकार्बन का स्तर बढ़ ज़ाता है। सूर्य प्रकाश की उपस्थिति में, ये रसायन ओजोन का निर्माण करते हैं। इस ओजोन के कारण स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव हो सकता है जैसे खांसी, गले में खराश, अस्थमा का आघात, ब्रॉन्काइटिस आदि। इससे फसलों को भी नुकसान हो सकता है।

               पृथ्वी से ऊपर की परत में स्थित ओजोन हमारे लिये रक्षा परत के समान होती है जबकि पृथ्वी की परत के नज़दीक की ओजोन हमारे लिये स्वास्थ्य संबंधी तकलीफें पैदा कर सकती है।

ओजोन का कम होना क्या है?

क्लोरो फ्लोरोकार्बन, ओजोन परत के क्षय के लिये उत्तरदायी हैं जो कि मुख्यतः प्रशीतन, वातानुकूलन आदि के लिये इस्तेमाल किया जाता है। इनमें क्लोरीन की मात्रा होती है।

ओजोन क्षरण


वायुमण्डल के स्ट्रेटोस्फीयर में 20 कि.मी. की मोटाई में ओजोन गैस पायी जाती है। ओजोन (O3) अत्यन्त क्रियाशील गैस मानी जाती है। सूर्य के प्रकाश की पराबैगनी किरणें अन्तरिक्ष से पृथ्वी की ओर आती हैं तो पृथ्वी के वायुमण्डल की समताप मण्डल परत पर उपस्थित ऑक्सीजन के अणुओ को परमाणुओं में तोड़ देती हैं। ऑक्सीजन के ये एकांकी परमाणु उसके अणु से मिलकर (O2+O= O3) ओजोन का निर्माण करते हैं। ओजोन अपनी सक्रियता के कारण नाइट्रस ऑक्साइड के साथ क्रिया करके विघटित होती है। इस प्रकार विनाश और निर्माण की प्राकृतिक प्रक्रिया से गतिक सन्तुलन बना रहता है। इस सन्तुलन में उस समय बाधा आती है जब वायुमण्डल में सीएफसी तथा क्लोरीनयुक्त अन्य यौगिक (हेलोन्स, कार्बन टेट्राक्लोराइड) अधिक मात्रा में आने लगते हैं। अब ये क्लोरीन के परमाणु ओजोन के साथ क्रिया करके क्लोरीन मोनो-ऑक्साइड (सीएलओ) बनाते हैं तथा ओजोन को ऑक्सीजन में तोड़ देते हैं। इसे ओजोन क्षरण कहा जाता है। क्लोरीन पुनः उत्प्रेरक का कार्य करता है और अभिक्रिया क्रियाशील रहती है।

                       ओजोन छिद्र का पता सर्वप्रथम 1973 में अमेरिका के वैज्ञानिकों ने अण्टार्कटिका के ऊपर लगाया। 1985 में जोसफ फोरमेन ने ओजोन परत में 50 प्रतिशत का ह्रास देखा। ओजोन ह्रास मानव के लिए चिन्ता का विषय है। क्योंकि इससे मनुष्य को अनेक बीमारियाँ हो सकती हैं जिसमें प्रमुख हैं- चर्म कैंसर, पेड़-पौधों के क्लोरोफिल पर भी विपरित प्रभाव देखा जा रहा है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम ओजोन क्षरण पदार्थ (ओडीसी) के स्थान पर ओजोन मित्र पदार्थ (ओएफसी) जैसे- हाइड्रोक्लोरोफ्लोरो कार्बन, का प्रयोग करें।

ओजोन व पर्यावरण

चरण-1: मानवीय गतिविधियों के कारण क्लोरो फ्लोरोकार्बन का निर्माण होता है और ये वातावरण में ओजोन परत का निर्माण करती है।

चरण-2: सूर्य से आनेवाले पराबैंगनी विकिरण, क्लोरो फ्लोरोकार्बन को तोड़कर क्लोरीन का निर्माण करता है।

चरण-3: क्लोरीन के अणु ओजोन के मॉलेक्यूल्स को तोड़कर उसका क्षरण करते हैं।


ओजोन का क्षरण हमें कैसे प्रभावित कर सकता है?

जब ओजोन परत का क्षरण होता है, तब धरती पर सूर्य की पराबैंगनी किरणों का आगमन बढ़ जाता है। इससे वंशानुगत बीमारियां, आंखों पर दुष्प्रभाव व जल जीवन प्रभावित हो सकता है।