Tuesday, 4 April 2017

वनाधिकार अधिनियम

आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए वनाधिकार अधिनियम एक सशक्त हथियार है। दूसरी ओर यह अधिनियम कार्पोरेट जगत के उन लोगों के लिए बहुत बड़ी बाधा है, जो हमारे प्राकृतिक संसाधनों को बेहिसाब लूटना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि वर्तमान सरकार इस अधिनियम के कई कानूनों में ढील देकर इसे कमजोर कर देना चाहती है।
                          वर्तमान सरकार ऐसे कई कानून ला रही है, जो वनाधिकार अधिनियम के अंतर्गत आदिवासियों को मिले अधिकारों और सुरक्षा की जड़ खोदने का काम करेंगे। इसी कड़ी में सरकारी योजनाओं की पूर्ति के लिए जंगलों से आदिवासियों को हटाकर उनके पुनर्वास के लिए ग्राम सभा की अनुमति लेने वाला कानून भी शामिल है। इस कानून से छेड़छाड़ करने से पहले सरकार ने आदिवासी समुदायों से कोई मंत्रणा भी नहीं की। सरकार ने खदान एवं खनिज अधिनियम, क्षतिपूरक वनीकरण निधि अधिनियम एवं वनाधिकार अधिनियम के तहत ऐसे सुधार किए हैं, जो इस अधिनियमको खोखला कर देंगे। मझोले कोयला खदानों को स्वीकृति देने के लिए सरकार ने जनता की सुनवाई और ग्रामसभा की अनुमति को खत्म कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी और आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, झारखंड जैसे राज्यों में इसके सहयोगी दलों ने वनाधिकार अधिनियम के कानूनों की धज्जियां उड़ा दी हैं। यह सब विकास के नाम पर रियल एस्टेट, कार्पोरेट, शिक्षा एवं चिकित्सा के निजी संस्थानों को लाभ पहुँचाने के लिए किया जा रहा है। महाराष्ट्र में तो ‘ग्राम नियमों’ की अधिसूचना के द्वारा वन प्रबंधन से संबंधित ग्रामसभा के सारे अधिकार सरकार द्वारा संरक्षित समितियों को दे दिए गए हैं।
                          सरकार ने ‘ईज ऑफ डूईंग बिजनेस’ का जो बिगुल बजाया है, उसका अर्थ आदिवासी आवासीय क्षेत्रों को साफ करके उसे निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए उपलब्ध कराना है। राष्ट्रीय वन्य जीवन बोर्ड के अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं। इस बोर्ड में विशेषज्ञों को संख्या को तेरह से घटाकर तीन कर दिया गया है। कार्यालय के शुरुआती तीन महीनों में ही प्रधानमंत्री ने अपने इन तीन सहायकों के साथ मिलकर 41 में से 33 प्रस्तावों को पारित कर दिया। इसके साथ ही वन की 7,000 हेक्टेयर भूमि को इन परियोजनाओं के लिए दे दिया। इसमें भूमि का अधिकतर भाग गुजरात की कंपनियों को दिया गया है। अगर यही हाल रहा, तो आने वाले वर्षों में विस्थापित हुए आदिवासियों की संख्या कई गुना बढ़ जाएगी। अकेले आंध्रप्रदेश में ही पोलावरम परियोजना को पूरा करने में 2 लाख हेक्टेयर वन भूमि जल-मग्न हो जाएगी। इसमें 85,000 परिवार विस्थापित होंगे, जिसमें से आधे आदिवासी होंगे।
                      वनाधिकार नियमों के अनुरुप विस्थापित आदिवासियों को न तो निजी और न ही समुदायों को पट्टा दिया जा रहा है। यूपीए सरकार के द्वितीय कार्यकाल में ही वनाधिकार नियमों का उल्लंघन बहुत बढ़ गया था। अब स्थिति और भी खराब हो चुकी है। एक वर्ष की अवधि में ही आदिवासियों को पट्टा दिए जाने के 10 में से आठ दावों को खारिज किया गया है। ऐसा लगता है कि गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू किया जा रहा है। पट्टे के दावों को खारिज करने के मामले में गुजरात सबसे ऊपर है, वहीं त्रिपुरा जैसे राज्य में 98 प्रतिशत दावों को मान लिया जाता है।
                     ये तीन बिन्दु ऐसे हैं, जिनके आधार पर वनाधिकार अधिनियम का उल्लंघन करके आदिवासियों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है। इन मामलों से न्यायालय अनभिज्ञ नहीं है और वह अपना काम करेगा। न्यायालय ने जिस प्रकार पहले नियामगिरी मामले में अपना फैसला सुनाया था, उससे आदिवासियों को अपने अधिकारों की प्राप्ति की उम्मीद बंधी हुई है। पिछली जनवरी को ही न्यायालय ने सभी राज्यों को उनके अधिकृत क्षेत्रों में खारिज हुए दावों का विवरण भेजने का आदेश दिया है।
                   दरअसल, आदिवासियों की समस्या को हमेशा चलने वाली समस्या के रूप में देखा जाता है। वर्तमान स्थितियों में इस सोच को बदलने की जरूरत है। आदिवासियों को समय पर उनके अधिकार देकर उनकी निरंतर चलने वाली समस्याओं का अंत किया जा सकता है। वनाधिकार अधिनियम की दसवीं वर्षगांठ पर आदिवासियों के अंतर्मन भी अपनी अधिकारों के प्रति जागृत हो उठे हैं और वे अपने अधिकारों के लिए संघर्षशील हैं।