Thursday, 6 April 2017

भारतीय शहरों के मास्टर प्लान के साथ समस्याएं

भारतीय शहरों की योजना और प्रशासन के गिरे हुए स्तर के बारे में हम सब जानते हैं। हांलाकि हर दस-बीस सालों में शहरों के मास्टर प्लान की औपचारिक रस्म अदा की जाती है, लेकिन इसका लगातार उल्लंघन किया जाता है। हमारी अधिकतर जनता शहरों के गैर नियोजित हिस्से में निवास करती चली जाती है। भारतीय नगरों की योजना हर बार विदेशी सलाहकारों की मदद से बड़े-बड़े अधिकारियों द्वारा बनाई जाती हैं। वास्तव में मास्टर प्लान बनाने वाले अधिकारियों को इन योजनाओं के क्रियान्वयन का बीड़ा नहीं उठाना पड़ता। इस तरह अप्रजातांत्रिक तरीके और जनभागीदारी के अभाव में बनी ये योजनाएं विफल हो जाती हैं। अतः शहरों की योजनाओं की संस्थागत अशक्तताओं और इन्हें दूर करने के विकल्पों पर विचार किए जाने की अत्यधिक आवश्यकता है।  
                               शहरों की योजना निर्धारण में स्थानीय निकायों की भागीदारी का न होना एक बहुत बड़ी कमी है। यूँ तो संविधान के 74वें संशोधन में ‘स्थानीय सरकारी संस्थानों‘ को स्थानीय सरकार चलाने में पूर्ण भागीदारी की बात कही गई है, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। शहरों की योजनाएं बनाने में स्थानीय संस्थानों की भागीदारी को कोई महत्व नहीं दिया जाता। संविधान की 12वीं अनुसूची में शहरी विकास, भूमि के उपयोग संबंधी निर्णय एवं आर्थिक व सामाजिक विकास की योजनाओं के निर्माण की सूची दी गई है। अतः राज्यों को चाहिए कि 10 लाख से ऊपर की आबादी वाले शहरों में वह इसे नगर निगम को सौंप दे।
                               74वें संशोधन में इस बात को अनिवार्य बताया गया है कि ऐसे नगरों यानि मेट्रो नगरों के विकास के लिए मेट्रोपोलिटन प्लानिंग कमेटी (MPC) बनाई जाएं, जो मेट्रो शहरों के विभि क्षेत्रों के स्थानीय निकायों के साथ मिलकर काम करें। इसी प्रकार तीन लाख से अधिक आबादी वाले नगरों में वार्ड समिति बनाने का प्रावधान है। इस संशोधन के 20 वर्षों के बाद भी आज ऐसी विकेंद्रीकृत संस्थाओं का गहन अभाव है।
                                सन् 1996 में केंद्र सरकार ने मॉडल रिजनल एण्ड टाऊन प्लानिंग एण्ड डेवलपमेंट कानून बनाया था, जिसमें नगर निगमों और मेट्रोपोलिटन प्लानिंग समिति को स्थानीय योजनाएं बनाने की जिम्मेदारी दी जानी थी। लेकिन योजनाओं को बनाने में अधिकतर राज्य इस प्रकार का स्थानीय सहयोग लेने में विफल रहे हैं।
                              ऐसा लगता है कि 74वें संशोधन के अनुसार शहरों की योजनाओं को विकास प्राधिकरणों को सौंपने के बजाय वार्ड समिति, नगर निगम और मेट्रोपोलिटन प्लानिंग कमेटी जैसे शहरी सरकारी संगठनों को सौंप देना चाहिए। इस प्रकार के अलग-अलग स्तरों पर बनाई गई योजना से महानगर के अलग-अलग क्षेत्रों की योजनाओं में समन्व्य किया जा सकेगा।
                              भारत के शहरों की योजना अभी भी पुराने ढंग पर चली रही उपयोग आधारित भूमि आवंटन मास्टर प्लान पर निर्भर है। विभिन्न राज्यों की नगर योजना अंग्रेजों के समय बनाए टाऊन एण्ड कंट्री प्लानिंग एक्ट पर आधारित है जिसे ब्रिटेन में भी बदला जा चुका है। इस प्लान में आवासीय, व्यवसायिक, औद्योगिक और कृषि आदि क्षेत्रों में नगर का वर्गीकरण कर दिया जाता है। हमारी योजना में परिवहन, जल एवं ऊर्जा जैसे साधनों की कोई जगह नहीं होती। अगर हमारे यहाँ के मास्टर प्लान में अलग-अलग क्षेत्रों को सविस्तार जोड़ भी लिया जाता है, तो इनके संवैधानिक पक्ष की समस्या आती है।
                              शहरों की योजना में संस्थागत संचालन की कठिनाई को देखते हुए इसके विकल्प ढूंढने पर विचार किया जाना चाहिए। हमें एक गतिहीन या पुराने तरीके के मास्टर प्लान की जगह इसे लोगों की जरुरत के अनुसार अधिक सक्रिय और उरदायी बनाना चाहिए। 10-20 वर्षों में इसके पुनर्वालोकन के बजाय समय-समय पर इसकी समीक्षा की जानी चाहिए। हमें ऐसे मास्टर प्लान तैयार करने की ओर कदम बढ़ाना होगा, जो 74वें संशोधन में उल्लिखित स्थानीय प्रजातंत्र की आत्मा को सुरक्षित रखने के साथ-साथ एक विविध आयामी और सजीव दस्तावेज हो।