Friday, 14 April 2017

जल समस्या की गंभीरता


सदियों से भारत में जल नियोजन कभी भी दीर्घकालिक नहीं रहा है। मुगल बादशाह अकबर ने एक नई राजधानी फतेहपुर सीकरी बनाने का निश्चय किया था। इस नई राजधानी का इतिहास कोई खास महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि यह सिर्फ 13 वर्षों के लिए ही आबाद रही। अकबर ने इसे छोड़ दिया और अपनी पुरानी राजधानी को लौट गए। सन् 1589 में भारत की यात्रा करने वाले एक अंग्रेज यात्री रॉबर्ट फिच ने आगरा और फतेहपुर सीकरी नामक दो महान नगरों को लंदन से बड़ा और आबाद कहा है। फिर ऐसी क्या समस्या थी कि अकबर को फतेहपुर सीकरी को मात्र 13 वर्षों में ही त्यागना पड़ा? यह समस्या पानी की कमी की थी। यह ईमारत भारत के खराब जल-नियोजन का एक उदाहरण है। सदियों पहले से लेकर आज तक भारत के जल-संयोजन के ऐसे कई कारक रहे हैं, जिन्होंने समय के साथ पानी की समस्या को बद से बदतर किया है। जल-समस्या के सबसे पहले और बड़े कारण के रूप में जनसंख्या को लिया जा सकता है। सन् 1947 में अविभाजित भारत की जनसंख्या 30 करोड़ 90 लाख थी। आज स्थिति यह है कि अकेले भारत की ही जनसंख्या 125 करोड़ से अधिक है।
  • जनसंख्या वृद्धि के साथ बढ़ते शहरीकरण, औद्योगीकरण और अन्न उत्पादन की जरूरतों ने भी पानी की मांग को बहुत बढ़ा दिया।
  • घरेलू उपयोग एवं उद्योगों का गंदा पानी बिना किसी उपचार और रोकटोक के हमारे जल स्रोतों में सदियों से मिलता आ रहा है। घनी आबादी वाले क्षेत्रों के सभी जलस्रोत भयानक रूप से प्रदूषित हो चुके हैं। इससे स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है।
  • आर्थिक प्रगति, उच्च साक्षरता एवं कौशल के स्तर के बढ़ने से भारत में मध्यम आय वर्ग तेजी से बढ़ा है। सन् 2030 तक भारतीय मध्यम वर्ग की आय अनुमानतः 10,000 डॉलर प्रतिवर्ष हो जाएगी। आय में बढ़ोतरी के साथ खानपान का स्तर अच्छा हुआ है। लोगों का रुझान दुग्ध पदार्थ, मछली तथा माँस जैसे प्रोटीन युक्त भोजन की ओर अधिक हुआ है। ये सभी खाद्य पदार्थ अधिक पानी की मांग करते हैं।
  • खानपान में परिवर्तन के साथ ही रेफ्रीजरेटर, वाशिंग मशीन एवं कार जैसी वस्तुओं से ऊर्जा
  • की खपत बहुत बढ़ी है। इन सभी वस्तुओं को चलाने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए और पर्याप्त पानी के बिना ऊर्जा कहाँ से आ सकती है ?
  • पानी की समस्या अब विकराल रूप धारण कर चुकी है। लेकिन अभी भी देश में ऐसे ठोस एवं दीर्घकालिक राजनैतिक एवं जन-प्रयास दिखाई नहीं दे रहे हैं, जिनकी जरूरत है।
  • इन सब कारकों के साथ ही एक सबसे बड़ी समस्या जो वर्तमान में उभरकर सामने आ रही है, वह है- नदियों को लेकर राज्यों के आपसी टकराव की चूंकि नदियां अंतरराज्जीय होती हैं, इसलिए जल प्रबंधन मूलतः राज्यों का मामला है। इस पर केंद्र का बहुत ज्यादा नियंत्रण नहीं है।
  • समय के साथ बढ़ती पानी की मांग ने राज्यों के बीच के जल-विवादों को इतना बढ़ा दिया है कि अब यह देश की क्षेत्रीय स्थिरता के लिए चिंता का विषय बन गया है। जल आवंटन को लेकर जगह-जगह हिंसा की घटनाएं हुई हैं। अगर इस प्रकार के विवाद बढ़ते रहे, तो ये देश की आर्थिक प्रगति और सामाजिक विकास में बड़ी बाधा बन जाएंगे।
अंतरराज्यीय नदी-जल-विवादों को सुलझाने के लिए एक शक्तिशाली और स्थायी तंत्र की बहुत आवश्यकता है। सन् 1956 के अंतरराज्यीय जल-विवाद अधिनियम के अंतर्गत दो राज्यों के मध्य आपसी बातचीत के जरिए हल न निकलने की स्थिति में एक अस्थायी ट्रिब्यूनल गठित करने का प्रावधान है।समय-समय पर अस्थायी ट्रिब्यूनल बनाए भी गए हैं। लेकिन ऐसा देखने में आया है कि इनमें जल विवाद काफी लंबे समय तक ऊलझे रहते हैं, जिससे राज्य आपस में समझौता करने की बजाय अपने पक्ष पर और अधिक अडिग होते जाते हैं।
वर्तमान में ट्रिब्यूनलों की कार्यप्रणाली में निम्न बहुत सी कमिया हैंजिनको सुधारने की जरूरत है।
  • ट्रिब्यूनल में विवादों को निपटाने के लिए कोई तार्किक, एकरूप और सामान्य प्रक्रिया नहीं है। विवादों के स्वरूप को देखते हुए उन्हें यह अधिकार है कि वे समझौता कराने के लिए मूलभूत सिंद्धान्तो में परिवर्तन कर सकें। इस कारण एक ट्रिब्यूनल से दूसरे की मूल धारणाएँ बहुत बदल जाती हैं।
  • ट्रिब्यूनल का निर्णय राज्यों के लिए बाध्यकारी नहीं है।
  • ट्रिब्यूनल के निर्णयों को लागू करवाने के लिए केंद्र सरकार किसी प्रकार की संस्था बनाने के लिए तैयार नहीं है।
  • विवादों के निपटारे के लिए बातचीत एवं निर्णय के लिए कोई निश्चित समय-सीमा नही है। कावेरी जल-विवाद पर बने ट्रिब्यूनल को ही 17 वर्ष लगे। इसका लाभ उठाते हुए कर्नाटक ने उच्चतम न्यायालय में स्पेशल लीव पेटीशन दायर की। इससे विवाद और भी लंबा खिंच गया।
जल-विवादों के स्वरूप को देखते हुए ऐसा लगने लगा है कि इसे एक राजनैतिक हथियार की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा है। प्रशासन का ध्यान अपनी खामियों और गलतियों से हटाकर मतदाताओं का भटकाने के लिए राज्य की राजनैतिक शक्तियाँ जल-विवादों को और लंबा खींचना चाहती हैं। कई राज्यों द्वारा ट्रिब्यूनल और यहाँ तक कि उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना किए जाने से भारत के संघीय ढांचे को खतरा पैदा हो गया है। इससे भविष्य के सामाजिक और आर्थिक विकास पर भी निश्चित रूप से असर पड़ेगा। यह तय है कि केंद्र और राज्यों के स्तर पर किसी शक्तिशाली जल संस्थान के न होने और हमारे राजनेताओं में अंतरराज्यीय जल आवंटन समस्या को सुलझाने की इच्छा के अभाव में यह समस्या गंभीर ही होती जाएगी। यहां मार्क ट्वेन की बात चरितार्थ होती दिखाई दे रही है कि “व्हिस्की इज फॉर ड्रिंकिंग, वॉटर इज फॉर फाइटिंग ओवर।”