Thursday 13 April 2017

क्या है कृत्रिम बारिश


कृत्रिम बारिश का तात्पर्य एक विशेष प्रक्रिया द्वारा बादलों की भौतिक अवस्था में कृत्रिम तरीके से रूपांतरण लाना है, जो इसे बारिश के अनुकूल बनाता है। बादलों के रूपांतरण की यह प्रक्रिया क्लाउड सिडिंग कहलाती है। जैसा कि हम जानते हैं कि बादल अतिसूक्ष्म जलकणों के सम्मिश्रण होते हैं, जो कम भार की वजह से स्वयं जलबिंदु के रूप में भूमि पर बरसने के लिए सक्षम नहीं होते. विशेष परिस्थितियों में जब ये कण संघनित हो जाते हैं, तब इनके आकार व भार में उचित वृद्धि हो जाती है और ये धरती के गुरुत्व बल के कारण बारिश के रूप में धरती पर गिरने लगते हैं। बादल का एक छोटा सा टुकड़ा अपने भीतर तकरीबन 750 क्यूबिक किलोमीटर पानी समेटे रखता है।
कृत्रिम बारिश तकनीक के तीन चरण होते हैं। पहले में रसायनों का इस्तेमाल करके उस इलाके के ऊपर वायु को ऊपर की ओर भेजा जाता है, जिससे वे वर्षा के बादल बना सकें। इस प्रक्रिया में कैल्शियम क्लोराइड, कैल्शियम कार्बाइड, कैल्शियम ऑक्साइड, नमक तथा यूरिया के यौगिक और यूरिया तथा अमोनियम नाइट्रेट के यौगिक का प्रयोग किया जाता है। ये यौगिक हवा से जलवाष्प को सोख लेते हैं और संघनन की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं। दूसरे चरण में बादलों के द्रव्यमान को नमक, यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट, सूखा बर्फ और कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग करके बढ़ाया जाता है और तीसरे चरण में सिल्वर आयोडाइड और शुष्क बर्फ जैसे ठंडा करने वाले रसायनों की आसमान में छाये बादलों में बमबारी की जाती है। ऐसा करने से बादल के जलकण संघनित होकर बारिश के रूप में धरती पर गिरने लगते हैं।
पहले दो चरण बारिश योग्य बादलों के निर्माण से जुड़े हैं। यह खर्चीला है और इसकी प्रक्रिया भी लंबी है। वहीं आसमान में बादल हों तो सीधे तीसरे चरण की प्रक्रिया अपना बारिश करायी जा सकती है। जिस क्षेत्र में बारिश की जानी है, वहां राडार पर बादल दिखाई देने पर विमानों को सीडिंग के लिए भेजा जाता है, ताकि हवाओं के कारण बादल आगे बढ़ न जाये। क्लाउड-सीडिंग पद्धति का पहला प्रदर्शन जनरल इलेक्ट्रिक लैब द्वारा फरवरी, 1947 में ऑस्ट्रेलिया में किया गया और आज संयुक्त अरब अमीरात सहित तकरीबन 50 देशों में इसका सफल प्रयोग हो रहा है।
                                तब से लेकर अब तक इसकी तकनीक में कोई तब्दीली नहीं आयी है, लेकिन वैज्ञानिकों के पास अब उत्तम किस्म के राडार और कंप्यूटर जैसे उपकरण उपलब्ध होने से इसकी लागत में कमी आने के साथ-साथ इसकी सफलता की संभावना बढ़ गयी है। पहले के राडार से इतर अब वैज्ञानिक सीधे बादलों के किस्म और उसमें जलकण के आकार, दिशा व गति का सूक्ष्म अध्ययन करने में सक्षम हैं। वहीं आधुनिक कंप्यूटर द्वारा कृत्रिम बारिश कराने से पूर्व ही कंप्यूटर स्क्रीन पर सिल्वर आयोडाइड के प्रभावों की पड़ताल कर ली जाती है। अर्थात अब वैज्ञानिक पहले ही जान सकते हैं कि अमुक बादल से कृत्रिम बारिश करा सकते हैं या नहीं। और करा सकते हैं, तो कितनी बारिश हो सकती है।
                                   चीन इस काम में अग्रणी है, जहाँ करीब 90 फीसदी प्रांतों में यह किया जाता है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इजरायल, रूस, दक्षिण अफ्रीका और चीन जैसे देशों ने इसमें विशेषज्ञता हासिल कर ली है और जरूरी ढांचे का विकास कर लिया है। इन देशों में भारत के मुकाबले कम लागत में कृत्रिम बारिश करायी जा रही है। इन देशों में ज्यादातर क्लाउड-सीडिंग प्रोजेक्ट में लाभ-लागत अनुपात 25:1 से 30:1 तक होता है। हालांकि, इसमें प्रयोग होने वाले रसायन पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं। जैसे-जैसे इसका विस्तार होगा, इसके दुष्परिणाम भी सामने आयेंगे, लिहाजा विश्व जगत को इस बारे में भी सोचना होगा।
हवा के जरिये क्लाउड-सीडिंग करने के लिए आम तौर पर विमान की मदद ली जाती है. विमान में सिल्वर आयोडाइड के दो बर्नर या जनरेटर लगे होते हैं, जिनमें सिल्वर आयोडाइड का घोल उच्च दाब पर भरा होता है। लक्षित क्षेत्र में विमान हवा की उल्टी दिशा में चलाया जाता है। सही बादल से सामना होते ही बर्नर चालू कर दिये जाते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। शुष्क बर्फ पानी को जीरो डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर देती है, जिससे हवा में मौजूद पानी के कण जम जाते हैं। कण इस तरह से बनते हैं, जैसे वे प्राकृतिक बर्फ ही हों। इस काम के लिए बैलून या विस्फोटक रॉकेट का भी प्रयोग किया जाता है।

क्लाउड सिडिंग के प्रत्येक चरण की सफलता विशेषज्ञता और गहरे अनुभाव की मांग करता है। छोटी सी गलती सारी मेहनत बेकार कर सकती है। 2009 में ग्रेटर मुंबई नगर निगम प्रशासन के कृत्रिम बारिश का प्रयोग असफल होने से 48 करोड़ रुपये की हानि हुई। इस पद्धति में यह ध्यान रखना पड़ता है कि किस तरह का और कितनी मात्र में रसायन का प्रयोग करना है, मौसम का मिजाज कृत्रिम वर्षा के अनुकूल है या नहीं। जहां बारिश करानी है, वहां के हालात कैसे हैं. बादल के किस्म, हवा की गति और दिशा क्या है।
                         जहाँ रसायन फैलाना है, वहाँ का वातावरण कैसा है. इसके लिए कंप्यूटर और राडार के प्रयोग से मौसम के मिजाज, बादल बनने की प्रक्रिया और बारिश करने के लिए जिम्मेदार घटकों पर हर पल नजर रखनी होती है। वहीं कोई जरूरी नहीं कि इसमें हर बार सफलता ही मिले। क्लाड-सीडिंग तभी कारगर होता है, जब उपयुक्त बादल हों। सूखे के समय यह प्रक्रिया ज्यादा सफल नहीं है, क्योंकि उस समय आसमान में बादल कम होते हैं। क्लाउड-सीडिंग के लिए उपयुक्त बादल मुख्यत: कुमुलीफार्म और स्ट्रेटीफार्म बादल होते हैं। साथ ही धरती से एक से दो किलोमीटर की ऊंचाई पर पाये जाने वाले बादल इसके लिए ज्यादा आदर्श माने जाते हैं।
                            कृत्रिम बारिश अब भी पूरी तरह भरोसेमंद तकनीक नहीं है। मगर प्रत्येक जैव रासायनिक क्रिया के लिए अनिवार्य पानी पृथ्वी में दुर्लभ पदार्थ बन चुका है। मौसम की आंखमिचौनी के कारण अनावृष्टि और अतिवृष्टि जैसी समस्याएं आम बात हो गयी हैं। लिहाजा इस संबंध में वैज्ञानिक अध्ययन लाजमी है। कई प्रश्न अभी अनुत्तरित हैं, जिनको खोजने का प्रयास वैज्ञानिक कर रहे हैं।

बार-बार की सूखे की समस्या को देखते हुए भारत सरकार भी कृत्रिम बारिश के विकल्पों पर गंभीरता से आगे बढ़ रही है। भू-विज्ञान मंत्रालय से संबद्ध इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटियोरोलॉजी (आइआइटीएम) ने हाल ही में इसके लिए अपने शोध के तीसरे और अंतिम चरण की शुरुआत वाराणसी में की है। आइआइएमटी ने 2003 में आंध्र प्रदेश में इसकी नींव रखी थी अब वाराणसी में भी एक बेस स्टेशन बनाया जायेगा, जो मध्य भारत के क्षेत्रों में बादल बनने की प्रक्रिया, उनके विकास और संघनन में एयरोसॉल की भूमिका का अध्ययन करेगा। दरअसल, इस योजना को सफल बनाने के लिए सबसे पहले देशभर में बादलों का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करना जरूरी है। आइआइएमटी ने इसके लिए विशेष उपकरणों से सुसज्जित अमेरिका से विमान मंगाया है। अगले दो वर्ष तक विमान में लगे 22 उपकरणों की मदद से बादलों का सैंपल इकट्ठा कर उसका परीक्षण किया जायेगा। लेकिन दिक्कत यह है कि देश में इसके लिए अभी तक कोई ढांचागत विकास नहीं हो पाया है, न ही तथ्यपरक आंकड़े हैं। इसके अलावा, विशेषज्ञता की कमी तो है ही।
                                हालांकि, देश के कुछ राज्य अपने स्तर पर पिछले 35 वर्षो से प्रोजेक्ट के रूप में कृत्रिम बारिश का प्रयोग कर रहे हैं, परंतु अब समय आ गया है कि इसको राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में चलाया जाये। तमिलनाडु सरकार ने 1983 में सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पहली बार इसका प्रयोग किया था। 2003 और 2004 में कर्नाटक सरकार ने भी इसे अपनाया। महाराष्ट्र में 2009 में अमेरिकी कंपनी के सहयोग से इसका आगाज हुआ. कृत्रिम वर्षा के क्षेत्र में आंध्र आगे है। यहां 2008 से 12 जिलों में बड़े पैमाने पर यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस प्रदेश में कृत्रिम वर्षा के लिए सिल्वर आयोडाइड के स्थान पर कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग किया जा रहा है, जो भारत जैसे गर्म जलवायु वाले देश के लिए उपयोगी साबित हुआ है। कुल मिलाकर चुनिंदा जिलों में कृत्रिम बारिश के सफल प्रयोग किये गये हैं, किंतु बड़े पैमाने पर अनावृष्टि व अल्पवृष्टि वाले क्षेत्रों में अभी तक इसे अपनाया नहीं जा सका है। वहीं अभी लागत भी ज्यादा आ रही है। आंध्र प्रदेश का अनुभव बताता है कि खास क्षेत्र में कृत्रिम बारिश पर प्रतिदिन करीब 18 लाख रुपये का खर्च आता है।