सर्वोच्च न्यायालय ने 29 मार्च को जो फैसला सुनाया, वह पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता के पीठ ने ऑटोमोबाइल निर्माताओं को यह निर्देश दिया कि वे आगामी एक अप्रैल से देश भर में भारत स्टेज-3 (बीएस-3) वाहनों की ब्रिकी बंद करें। अदालत ने यह भी कहा कि अगर एक अप्रैल के बाद कोई बीएस-3 गाड़ी रजिस्ट्रेशन के लिए आती है, तो राज्य परिवहन विभाग वह दस्तावेज देखेगा, जिससे यह साबित हो सके कि गाड़ी 31 मार्च, 2017 से पहले खरीदी गई है।
आदेश में दो जजों की इस बेंच ने स्पष्ट तौर पर कहा कि भले ही देश में गाड़ियों के कुल स्टॉक में बीएस-3 गाड़ियों की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम है, फिर भी बढ़ रहे वायु प्रदूषण और लोगों के बिगड़ते स्वास्थ्य के मद्देनजर यह कहना गलत नहीं होगा कि जनता का स्वास्थ्य और जीवन के उनके मौलिक अधिकार ऑटोमोबाइल निर्माताओं के व्यावसायिक हितों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं।यह एक महत्वपूर्ण निर्देश है। इसमें ऑटोमोबाइल निर्माताओं के लिए न सिर्फ सख्त संदेश है, बल्कि एक सबक भी है कि उन्हें अब अतिरिक्त प्रयास करने ही होंगे। संकीर्ण नजरिया अपनाकर उन्हें इस बदलाव को कमतर नहीं करना चाहिए। वाहन कंपनियों को आम लोगों के स्वास्थ्य को पर्याप्त तवज्जो देनी होगी।
मामले की सुनवाई के दौरान ऑटोमोबाइल निर्माताओं की तरफ से बिना बिकी बीएस-3 गाड़ियों के आंकड़े भी पेश किए गए। यह आंकड़ा बताता है कि देश में फिलहाल 8,24,275 बिना बिके बीएस-3 वाहन हैं। इनमें से 96,724 तो व्यावसायिक गाड़ियां हैं, जबकि 6,71,305 दोपहिया, 16,198 कारें और 40,048 तिपहिया गाड़ियां हैं। कंपनियों की मांग यह थी कि उन्हें अपने इस स्टॉक को खत्म करने के लिए एक वर्ष की मोहलत दी जाए, मगर सुप्रीम कोर्ट ने उनकी तमाम दलीलों को खारिज कर दिया।
इस पूरे प्रकरण में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण और पूरी तरह अस्वीकार्य पक्ष यह है कि साल 2010 से ही ऑटोमोबाइल कंपनियां कुछ निर्धारित क्षेत्रों के लिए बीएस-4 वाहनों का उत्पादन कर रही हैं, तब भी उनमें से ज्यादातर ने बीएस-3 गाड़ियों के उत्पादन को कम करने को लेकर संजीदगी नहीं दिखाई। वे पुरानी रफ्तार से ही इन गाड़ियों का उत्पादन करती रहीं, जबकि वे जान रही थीं कि ये गाड़ियां मानव-स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही हैं। इन वर्षों में उनके कारोबारी रवैये में कोई तब्दीली तो नहीं ही आई, उन्होंने इस बदलाव के लिए कोई ठोस रणनीति भी नहीं बनाई। हालांकि ऐसा नहीं है कि सभी ऑटोमोबाइल कंपनियों का बर्ताव एक सा रहा। कुछ ऐसी कंपनियां भी रहीं, जिन्होंने समय पूर्व बीएस-3 गाड़ियों के उत्पादन को रोकने के लिए अपने तईं कोशिशें कीं। ऐसी कंपनियों में मैं निश्चय ही मारुति उद्योग लिमिटेड, टोयोटा, हुंडई, जनरल मोटर्स और दोपहिया गाड़ियां बनाने वाली कंपनी बजाज ऑटो लिमिटेड का नाम लेना चाहूंगी। हालांकि यह सोच पूरे ऑटोमोबाइल उद्योग की और एक साझा कॉरपोरेट सहमति वाली होनी चाहिए थी।
बीएस-3 से बीएस-4 की तरफ बढ़ाया गया यह कदम महत्वपूर्ण इसलिए भी है, क्योंकि इससे हमारी आबोहवा में सूक्ष्म कणों यानी पार्टिकुलेट मैटर का उत्सर्जन काफी कम हो सकता है। अनुमान है कि नए बीएस-4 ट्रकों से 80 फीसदी और कारों से 50 फीसदी तक उत्सर्जन कम हो सकता है। इसी तरह, बीएस-4 दोपहिया वाहन 41-80 फीसदी तक हाइड्रोकार्बन और नाइट्रोजन ऑक्साइड का कम उत्सर्जन कर सकते हैं; हालांकि यह काफी कुछ इंजन पर निर्भर करेगा।
एक मसला और महत्वपूर्ण है। अगले 15-20 वर्षों तक बीएस-3 गाड़ियां भारतीय सड़कों पर दौड़ती रहेंगी। लिहाजा हमें यह गंभीरता से सोचना चाहिए कि दिल्ली-एनसीआर ही नहीं, बल्कि पूरा भारत इस मानक के नरम प्रावधानों और पुरानी बीएस-3 गाड़ियों की वजह से जहरीले प्रदूषण को न झेलता रहे। हकीकत यह है कि वायु प्रदूषण दिल्ली-एनसीआर के साथ-साथ पूरे देश के लिए एक बड़ा खतरा बन चुका है। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज की 2017 की रिपोर्ट बताती है कि पीएम 2.5 (पार्टिकुलेट मैटर 2.5) की वजह से दुनिया भर में होने वाली मौतों में भारत का स्थान दूसरा है। इतना ही नहीं, ओजोन प्रदूषण भी हमारी जान ले रहा है और इस मामले में हम दुनिया भर में शीर्ष पर हैं। आलम यह है कि वायु प्रदूषण से होने वाली कुल वैश्विक मौतों में से एक-चौथाई से अधिक भारत में हो रही हैं। जाहिर है, हम इन तमाम आंकड़ों को नजरअंदाज नहीं कर सकते।
अच्छी बात यह है कि बीएस-4 वाहनों के मद्देनजर तेलशोधन क्षेत्र (रिफाइनरी सेक्टर) ने पहले से ही तेलशोधन तकनीक और उसके उन्नयन के लिए कई तरह के प्रयास शुरू कर दिए हैं। केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के आंकडे़ बताते हैं कि भारत में एक साल में करीब दो करोड़ गाड़ियों का रजिस्ट्रेशन होता है और कल से सिर्फ बीएस-4 गाड़ियां ही बिकेंगी, तो माना जा सकता है कि अदालत का यह फैसला जन-स्वास्थ्य की दिशा में कितना बड़ा कदम साबित हो सकता है।
हालांकि यहां इस चिंता को भी खारिज नहीं किया जा सकता कि जब पूरी दुनिया यूरो-7 की ओर बढ़ रही है, तो हम बीएस-4 ही अपना रहे हैं, यानी हम यूरोपीय देशों से इस मामले में नौ साल पीछे हैं। मगर इसकी वजह हमारा अपना ढीलापन है। साल 2003 में ही ऑटो ईंधन नीति से संबंधित पहली सिफारिशें आ गई थीं। इसमें 2010 तक का रोडमैप था। मगर त्वरित प्रतिक्रिया दिखाने की बजाय हम लापरवाह बने रहे। दूसरी सिफारिशें 2015 में आईं, मगर इनमें भी जिन प्रावधानों की चर्चा थी, वे काफी नरम मानी गईं। लिहाजा हमने और हमारी संस्था ने इस मसले में हस्तक्षेप करके यह सुनिश्चित कराने की कोशिश की कि देश के आम लोगों के स्वास्थ्य हित हमारे नीति-नियंताओं की सुस्त चाल की बेदी पर न चढ़ पाएं। हमारी यही मांग थी कि भारत तेज गति से आगे बढ़े और दुनिया के दूसरे देशों के मापदंडों के समकक्ष पहुंचे। यह बताते हुए अच्छा लग रहा है कि इस बिंदु पर गौर किया गया है, और उम्मीद है कि भारत 2020-21 तक यूरो-6 मानक अपनाने लगेगा।