दलाई लामा को लेकर चीन की खीझ और उनके बारे में की गई टिप्पणियाँ दुनिया के लिए नई नहीं हैं। एक अप्रैल से वह ‘नमामि ब्रह्मपुत्र’ कार्यक्रम में भाग लेने असम यात्रा पर जा रहे हैं, जहाँ से वह आठ दिन की अरुणाचल यात्रा पर भी जाएंगे। दलाई लामा का अरुणाचल प्रदेश में तवांग मठ भी जाने का कार्यक्रम है। तवांग के बारे में हम जानते हैं कि चीन उसे किस रूप में लेता है। वैसे तो पूरे अरुणाचल प्रदेश पर ही वह दावा करता है, किंतु तवांग को वह अपना इसलिए मानता है, क्योंकि इसकी स्थापना पूर्व दलाई लामा ने की थी। चीन दलाई लामा और तवांग, दोनों से सशंकित रहता है। उसे पता है कि बौद्ध धर्मावलंबियों के बीच दोनों का महत्व कितना है। शायद उसे दलाई लामा से आशंका यह बनी रहती है कि वह कहीं तवांग को अपना केंद्र बनाकर वहां से गतिविधियां न शुरू कर दें।
हालांकि इसकी तत्काल कोई संभावना नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह तो यही कि भारत ने दलाई लामा सहित उनके साथ आए तिब्बतियों को शरण अवश्य दी है, उन्हें धर्मशाला में निर्वासित सरकार चलाने और अपने लिए जन प्रतिनिधियों के निर्वाचन की भी छूट दे रखी है, तिब्बतियों को आम शरणार्थियों से भी ज्यादा अधिकार दिया है, मगर उन्हें किसी तरह की चीन-विरोधी गतिविधियां चलाने की इजाजत नहीं है। भारत की नीति अब भी अपनी भूमि से तिब्बतियों को चीन के खिलाफ विद्रोह करने या तिब्बत के अंदर भी विद्रोह भड़काने की किसी भी गतिविधि को न चलने देने की है। स्वयं चीन ने भी पूर्व तिब्बत के भूगोल, राजनीति और मानवीकी का जिस सीमा तक परिवर्तन कर दिया है, उसमें उसकी आजादी के लिए संघर्ष वैसे भी कठिन हो गया है। दलाई लामा खुद भी साफ कह चुके हैं कि वह तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे, बल्कि चीन के अंदर एक ऐसे स्वायत्त राज्य के रूप में उसे चाहते हैं, जो अहिंसक क्षेत्र के रूप में खड़ा हो।
फिर भी चीन सशंकित रहता है, तो क्यों? आखिर दलाई लामा के अरुणाचल जाने या असम के ब्रह्मपुत्र उत्सव में भाग लेने से उसका क्या बिगड़ जाएगा? दलाई लामा के अरुणाचल दौरे पर उसने भारत को जिस तरह संबंधों पर प्रतिकूल असर की चेतावनी दी है, उसके लिए सही शब्द तलाशना होगा। आखिर एक बूढ़ा संन्यासी, जिसके पास न कोई फौज है, न कोई बड़ी संगठित शक्ति और न ही अपने मूल तिब्बत के लोगों से 1959 के बाद कोई प्रत्यक्ष संपर्क, वह चीन जैसे आर्थिक व सैन्य महाशक्ति का क्या बिगाड़ लेगा? चीन भारत के प्रति भी इसलिए सशंकित रहता है, क्योंकि इतिहास बताता है कि तिब्बत एक समय भारत और चीन के बीच बफर राज्य की भूमिका में था।
चीन के आशंकित होने का एक कारण उसके भावी आर्थिक और सामरिक व्यवहार में तिब्बत का महत्व बढ़ जाना भी है। ग्वादर बंदरगाह की गतिविधियां हों या नेपाल के साथ व्यवहार, सब कुछ तिब्बत से ही जुड़ा है। उसकी तेल-गैस पाइपलाइन भी इसी क्षेत्र से गुजर रही है। चेंगडू जैसे बड़े सैनिक अड्डे तक पहुंचने का रास्ता तिब्बत से ही गुजरना है। यानी उसे भविष्य की चिंता भी है। किसी बड़ी गड़बड़ी की स्थिति में इन सबकी सुरक्षा पर उसे खतरा दिखाई देता है।
चीन की समस्या ब्रह्मपुत्र को लेकर भी है। ल्हासा के दक्षिण पूर्व में वह ब्रह्मपुत्र पर झांगमू बांध के बाद चार और बांध बना रहा है। चीन ने भारत व बांग्लादेश से वादे जो भी किए हों, पर्यावरणविदों की राय अलग है। तिब्बती वैसे भी बांध को एक बड़ा मसला बताते हैं। वे तिब्बत में पर्यावरण की क्षति का एक कारण इसे भी मानते हैं। भारत के ‘नमामि ब्रह्मपुत्र’ उत्सव का व्यापक पैमाने पर आयोजन भी चीन को नागवार गुजर रहा होगा। इसमें आमंत्रित दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में चीन भी शामिल है, लेकिन लगता नहीं कि दलाई लामा की उपस्थिति वाले किसी समारोह में चीनी प्रतिनिधि भाग लेंगे। यानी हमें चीन की प्रतिक्रिया देखनी होगी। हालांकि दलाई लामा का असम दौरा अब केवल ‘नमामि ब्रह्मपुत्र’ तक सीमित नहीं है। वहां उनके कई दूसरे कार्यक्रम भी हैं। दलाई लामा की सोच और उनके व्यवहार को भारत में पूरा महत्व मिलता है। यही बात चीन को खटकती होगी। मगर चीन के खटकने से भारत का तरीका तो नहीं बदल सकता।