Friday 7 April 2017

उच्च शिक्षा में गुणवत्ता की खातिर स्कूली शिक्षा को बदलने की जरुरत है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था कठिन दौर से गुजर रही है। विद्यालयीन स्तर पर शिक्षा की अधोगति का गहरा प्रभाव उच्च शिक्षा संस्थानों पर पड़ता है। इसके पीछे बहुत से कारण छिपे हुए हैं।हमारी विद्यालयीन शिक्षा का पाठ्यक्रम देश की वास्तविक स्थिति से बिल्कुल भिन्न है। इसका अधिकतर जोर बोर्ड परीक्षा पर होता है। विद्यार्थियों को अलग-अलग विषयों का ज्ञान देना अच्छी बात है। लेकिन क्या हम कभी उन्हें पाठ्यक्रम के माध्यम से यह बताने की कोशिश करते हैं कि हमारा देश किस प्रकार जाति-व्यवस्था में बंटा हुआ है, हमारे देश का बड़ा भू-भाग प्रतिवर्ष सूखे की चपेट में आता है या लिंग-भेद क्या है और क्यों है? वगैरह-वगैरह।
  • इसी प्रकार क्या हम उनसे प्रश्न पूछने की आदत बना पाते हैं, या सिर्फ हम उन्हें एक निष्क्रिय श्रोता बना देते हैं ? अक्सर शिक्षकों की एक ही शिकायत होती है कि आपका बच्चा पूरी कक्षा का ध्यान भंग करता है। वह अक्सर प्रश्न पूछता रहता है। हमारे शिक्षकों को इस प्रकार से तैयार ही नहीं किया गया है कि वे अपना ज्ञान बढ़ाकर बच्चों को सृजनात्मकता के साथ पूरा पाठ्यक्रम खेल-खेल में पढ़ा दें।
  • दरअसल, हमारी शिक्षा व्यवस्था में शिक्षकों को उत्तरदायित्व नहीं बनाया गया है। वे एक नियत पैटर्न पर अपना पाठ्यक्रम किसी प्रकार से पूरा करके छुट्टी पा लेते हैं। अतः राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में शिक्षकों के उत्तरदायित्व को बढ़ाने की बहुत आवश्यकता है। विदेशों की तर्ज पर इसे प्रति विद्यार्थी फंडिंग पर आधारित किया जा सकता है। इसके अंतर्गत अभिभावकों को एक वाउचर दिया जाता है। अगर वे उस स्कूल एवं शिक्षक से संतुष्ट हैं, तो वह वाउचर स्कूल या शिक्षक के खाते में जमा हो जाता है। अन्यथा अभिभावक अपने बच्चे को उस स्कूल से निकालकर दूसरे स्कूल में डाल सकते हैं। आर्थिक नुकसान के डर से स्कूल और शिक्षक दोनों ही उत्तरदायित्व के साथ काम करते हैं। वाउचर प्रणाली से निजी विद्यालयों में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को अपने लिए आरक्षित 25% सीटों का लाभ भी मिल सकेगा।
  • विद्यालय के इस कुंठित और दमघोटू वातावरण से निकलकर जब विद्यार्थी उच्च शिक्षा में प्रवेश करता है, तो उसे मानों आजादी के पंख मिल जाते हैं। अभी तक उसकी जिज्ञासाओं को दबाया गया था। इसलिए उसमें इस आजादी को कुछ सीखने समझने में लगाने का जज्बा कम और मौज-मस्ती की इच्छाएं ज्यादा जोर मारती हैं।
  • पूरे विश्व के शिक्षाविद् आज इस बात को मानते हैं कि नए दौर में विषय वस्तु से ज्यादा अहम् कौशल विकास है। कौशल विकास के अंतर्गत विद्यार्थियों में समस्या-हल करना, सृजनात्मक सोच, टीम-वर्क, नेतृत्व एवं संवेदना आदि का विकास किया जाना चाहिए।
  • हमारे देश में नर्सरी के बच्चे को ही दुनिया भर के विषयों का ज्ञान दे दिया जाता है। 12वीं तक पहुँचते-पहुँचते तो उसके अंदर विषय-वस्तु का भंडार भर जाता है। उसके पास अन्य किसी कार्य या सोच के लिए न तो समय बचता है और न ही दिमाग। वह केवल परीक्षा को लक्ष्य मानकर चलता है। इसके साथ ही दुनिया भर की प्रतियोगी परीक्षाओं का बोझ इतना लदा होता है कि वह कुछ और कर ही नहीं पाता।
  • दरअसल 10वीं के बाद 2 साल की और पढ़ाई का उद्देश्य कुछ और ही था। उद्देश्य था कि अकादमिक रूप से औसत बच्चे 10वीं के बाद व्यावसायिक शिक्षा का दो वर्ष का ज्ञान लेकर उच्च शिक्षा के लिए तैयार हो सकें। इस उद्देश्य को किनारे रखकर स्कूली विद्यार्थियों को एक ढर्रे की शिक्षा व्यवस्था में झोंक दिया गया है।
सरकार को चाहिए कि बोर्ड परीक्षा 10वीं के बजाय 11वीं में ले। 12वीं को विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए तैयारी का वर्ष माना जाए। इस प्रकार की व्यवस्था से विद्यार्थियों को समीक्षात्मक क्षमता, आलोचनात्मक सोच, शोध तथा अनुसंधान जैसे गुणों से लैस किया जा सकेगा, जो उनकी उच्च शिक्षा में गुणवत्ता ला सकेंगे। इसी से उनकी आगे की जिंदगी सफल और सार्थक बन सकेगी।