Thursday 30 March 2017

Current Affairs in Hindi (भाग-33)

बजट BUDGET Part 2

प्रस्तावना
बजट की प्रक्रिया
1. बजट प्रस्तुतिकरण
2. बजट पर आम बहस
3. बिभागीय समितियों द्वारा जांच
4. अनुदान की मांग पर मतदान
5. विनियोग विधेयक पारित होना
6. वित्त विधेयक पारित होना

संसद में बजट पारित होने से पूर्व 6 स्तरों से गुजरता है:-
बजट का प्रस्तुतीकरण

  • बजट को आम बजट के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। आम बजट को प्रस्तुत करते समय वित्त मंत्री सदन में जो भाषण देते है, उसे ‘बजट भाषण’ कहते है लोक सभा में भाषण के अंत में बजट प्रस्तुत किया जाता हैबजट को दो भागों में प्रस्तुत किया जाता है – भाग ए में देश का ‘एक सामान्य आर्थिक सर्वेक्षण’ और ‘भाग बी’
  • ‘आगामी वित्तीय वर्ष के लिए कराधान प्रस्ताव’ शामिल होते हैं।
  • प्रत्येक वित्तीय वर्ष में वार्षिक वित्तीय विवरण या भारत सरकार के अनुमानित प्राप्तियाँ व्यय का विवरण (जिसे ‘बजट’ भी कहा जाता है), राष्ट्रपति के द्वारा निर्धारित तिथि को सदन में प्रस्तुत किया जाता है।
  • जिस दिन बजट को सभा में प्रस्तुत किया जाता है उस दिन इस पर कोई चर्चा नहीं होती।
बजट पर आम बहस

  • साधारण बजट को प्रस्तुत करने के उपरांत अध्यक्ष द्वारा निर्धारित तिथी पर दोनों सदनों में बजट पर बहस चलती है।
  • इस चरण में लोकसभा इसके पुरे या आंशिक भाग पर चर्चा कर सकती है एवम इससे सम्बंधित प्रश्नों को उठाया जा सकता है।
  • लेकिन यहाँ पर कोई कटौती प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता और न ही बजट को सदन में मतदान के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है।
  • अध्यक्ष बहस के लिए एक समय सीमा भी निर्धारित कर सकती है यदि वो जरुरी समझे।
विभागीय समितियों द्वारा जांच

  • बजट पर आम बहस पूरी होने के बाद सदन तीन या चार हफ़्तों के लिए स्थगित हो जाता है।
  • इस अंतराल के दौरान संसद की स्थायी समितियां अनुदान की मांग आदि की विस्तार से पड़ताल करती है और एक रिपोर्ट तैयार करती है इन रिपोर्टों को दोनों सदनों के विचारार्थ रखा जाता है।
  • स्थायी समितियों की यह व्यवस्था 1993 (वर्ष 2004 में इसे विस्तृत किया गया) से शुरू की गई।
  • यह व्यवस्था विभिन्न मंत्रालयों पर संसदीय वित्तीय नियंत्रण के उद्देश्य से प्रारम्भ की गई थी।
अनुदान की मांगों पर मतदान —
विभागीय स्थायी समितियों के अलोक में लोकसभा में अनुदान की मांगों के लिए मतदान होता है। मांगे  मंत्रालयवार प्रस्तुत की जाती है पूर्ण मतदान के उपरांत एक मतदान, अनुदान बन जाती है। इस सन्दर्भ में दो बिंदु उल्लेखनीय है –
1 अनुदान के लिए मांग लोकसभा की विशेष शक्ति है , जो की राज्यसभा के पास नहीं है।
2 राज्यसभा को मतदान का अधिकार बजट के मताधिकार वाले हिस्से पर ही होता है तथा इसमें भारत की संचित निधि पर भारित व्यय शामिल नहीं होते हैं (इस पर केवल चर्चा की जा सकती हैं )
आम बजट में 109 मांगे होती हैं जबकि रेलबजट में 32 मांगे होती हैं। प्रत्येक मांग पर लोकसभा में अलग से मतदान होता हैं। इस दौरान संसद सदस्य इस पर बहस करते हैं। सदस्य अनुदान मांगों पर कटौती के लिए प्रस्ताव भी ला सकते हैं। इस प्रकार के प्रस्तावों को कटौती प्रस्ताव कहा जाता हैं, जिसके तीन प्रकार होते हैं —
नीति कटौती प्रस्ताव –
यह मांग की नीति के प्रति असहमति को व्यक्त करता हैं। इसमें कहा जाता हैं कि मांग कि राशि 1 रुपए कर दी जाए। सदस्य कोई वैकल्पिक नीति भी पेश कर सकते हैं।
आर्थिक कटौती प्रस्ताव —
इसमें इस बात का उल्लेख होता हैं कि प्रस्तावित व्यय से अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पर सकता हैं। इसमें कहा जाता हैं कि मांग कि राशि को एक निश्चित सीमा तक कम किया जाए (यह या तो मांग में एकमुश्त कटौती हो सकती हैं या फिर पूर्ण समाप्ति या मांग की किसी माध में कटौती)।
सांकेतिक कटौती प्रस्ताव —
यह भारत सरकार के किसी दायित्व से सम्बंधित होता हैं। इसमें कहा जाता हैं कि मांग में 100 रुपए की कमी की जाए।
एक कटौती प्रस्ताव में स्वीकृति के लिए निम्न दशाएं अवश्य होनी चाहिए —
1 यह केवल एक प्रकार के मांग से सम्बंधित होना चाहिए। 
2 इसका स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए तथा इसमें किसी प्रकार की अनावश्यक बात नहीं होनी चाहिए।
3 यह केवल एक मामले से सम्बंधित होनी चाहिए।
4 इसमें संसोधन संबंधी या वर्तमान नियम को परिवर्तित करने संबंधी कोई सुझाव नहीं होना चाहिए।
5 इसमें संघ सरकार के कार्य क्षेत्र के बहार किसी विषय का उल्लेख नहीं होना चाहिए।
6 इसमें भारत की संचित निधि पर भारित व्यय से सम्बंधित कोई विषय नहीं होना चाहिए।
7 इसमें किसी न्यायालयीन प्रकरण का उल्लेख नहीं होना चाहिए।
8 इसके द्वारा विशेषाधिकार का कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता हैं।
9 इसमें पुनर्परिचर्चा का कोई विषय नहीं होना चाहिए, जिसके बारे में इसी सत्र में पहले से ही कोई निर्णय लिए जा चुका हो।
10 यह आवश्यक विषय से सम्बंधित नहीं होना चाहिए।
एक कटौती प्रस्ताव का महत्व इस बात से हैं कि अनुदान मांगों पर चर्चा का अवसर एवं उत्तरदायी सरकार के सिद्धान्त को कायम रखने के लिए सरकार के कार्यकलापों का जांच करना। हालाँकि, कटौती प्रस्ताव का प्रायोजिक रूप से कोई ज्यादा उपयोगिता नहीं हैं। ये केवल सदन में ले जाते हैं तथा इनपर चर्चा होती हैं लेकिन सरकार का बहुमत होने के कारन इन्हें पास नहीं किया जा सकता। ये केवल कुछ हद तक सरकार पर अंकुश लगाते हैं।
अनुदान मांगों पर मतदान के लिए कुल 26 दिन निर्धारित किए गए हैं। अंतिम दिन अध्यक्ष सभी शेष मांगों को मतदान के लिए पेश करता हैं तथा इनका निपटान करता हैं फिर चाहे सदस्यों द्वारा इन पर चर्चा की गई हो या नहीं। इसे गिलोटिन के नाम से जाना जाता हैं।
विनियोग विधयेक का पारित होना
संविधान में व्यवस्था की गई है कि भारत की संचित निधि से विधि सम्मत विनियोग के सिवाए धन की निकासी नहीं होगी, तदनुसार भारत की निधि से विनियोग के लिए एक विनियोग विधेयक पुरः स्थापित किया जाता है, ताकि धन को निम्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रयुक्त किया जाए —
लोकसभा में मत दिए गए अनुदान तथा
भारत की संचित निधि पर भारित व्यय
विनियोग विधयेक की रकम में परिवर्तन करने या अनुदान के लक्ष्य को बदलने अथवा भारत की संचित निधि पर भारित व्यय की रकम में परिवर्तन करने का प्रभाव रखने वाला कोई संसोधन, संसद के किसी सदन में प्रख्यापित नहीं किया जाएगा।
इस मामले में राष्ट्रपति की सहमति के उपरांत ही कोई अधिनियम बनाया जा सकता है। इसके बाद ही संचित निधि से किसी धन की निकासी की जा सकती है। इसका अर्थ है कि, विनियोग विधेयक के लागु होने तक सरकार भारत कि संचित निधि से कोई धन आहरित नहीं कर सकती हैं।
वित्त विधेयक का पारित होना
वित्त विधेयक भारत सरकार के उस वर्ष के लिए वित्तीय प्रस्तावों को प्रभावी करने के लिए पुरः स्थापित किया जाता है। इस पर धन विधेयक कि सभी शर्ते लागु होती है। वित्त विधेयक में विनियोग विधेयक के विपरीत संसोधन (कर को बढ़ाने या घटने के लिए ) प्रस्तावित किए जा सकते है। अनंतिम कर संग्रहण अधिनियम अथवा वित्त अधिनियम, 1931 के अनुसार, वित्त विधेयक को 75 दिनों के भीतर प्रभावी हो जाना चाहिए।  वित्त अधिनियम बजट के आय पक्ष को विधिक मान्यता प्रदान करता है और बजट को प्रभावी स्वरुप देता है

कैसे हो वन्य जीवन का संरक्षण

जिन आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर आधारित है, उन पर पर्यावरण-विरोधी होने के आरोप लगा कर, उन्हें जंगलों से जबरन हटा करराष्ट्र-राज्य न जंगलों को बचा पाएगा और न जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं को। आदिवासी समुदायों को विश्वास में लिये बिना, प्रकृति विषयक उनके ज्ञान का सम्मान किए बगैर, वनों और वन्य जीवों का संरक्षण असंभव है।
आदिवासी का पूरा अस्तित्व ही जल-जंगल-जमीन पर आधारित होता है, अत: वनों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर वहां से आदिवासियों को बलात निष्कासित करने का अर्थ होता है उनके अस्तित्व के सामने प्रश्नचिह्न खड़ा कर देना। ऐसे में अगर ये खदेड़े गए आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इन संरक्षित वन्य क्षेत्रों में अपने परंपरागत अधिकारों का दावा करते हुए सरकार की नजरों में अनधिकार हस्तक्षेप करते हैं, तो उन्हें वन्यजीवों और वन्य पशुओं का शत्रु घोषित कर दिया जाता है। उनकी प्रतिरोधी आवाजों को कुचलने के लिए राष्ट्र-राज्य पिछले कुछ समय से वनरक्षकों और सुरक्षा एजेंसियों को तमाम न्याय से ऊपर उठ कर विशिष्ट ताकत और अधिकार देने की पहल करता रहा है। आजादी के बाद भी विदेशी सत्ता द्वारा स्थापित आदिवासी विरोधी वन कानून बदस्तूर जारी हैं। आदिवासी आज भी वन रक्षकों और पुलिसवालों के उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं। प्रामाणिकता का बहाना करके ऐसी खबरों को दबा दिया जाता है।
पर कहा गया है कि हत्या छिपती नहीं है। बीबीसी के दक्षिण एशिया संवाददाता जस्टिन रौलट ने प्रतिबद्ध पत्रकारिता का नमूना पेश करते हुए काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्रों में एक सींग वाले भारतीय गैंडे के संरक्षण की आड़ में होने वाली आदिवासियों की हत्याओं पर से पर्दा उठाते हुए एक दस्तावेजी फिल्म बनाई है- ‘वन वर्ल्ड: किलिंग फॉर कंजर्वेशन’ (संरक्षण के नाम पर हत्या)। यह दस्तावेजी फिल्म दावा करती है कि भारत के संरक्षित वन्य क्षेत्रों में चोरी-छिपे तरीके से वन संरक्षकों और अन्य कर्मचारियों को नियमों से बाहर जाकर विशिष्ट पुलिसिया अधिकार दिया गया है कि वे वन्य पशुओं के शिकार और तस्करी रोकने के लिए आवश्यकता पड़ने पर वहां के स्थानीय आदिवासियों और ग्रामीणों को देखते ही गोली मार सकते हैं। इसमें यह भी दिखाया गया है कि कैसे वन संरक्षकों को गश्त के दौरान क्रूरता बरतने और घात लगा कर हमला बोलने का प्रशिक्षण दिया गया है। पूर्णत: संरक्षित घोषित किए जा चुके एक दांत वाले भारतीय गैंडे को शिकारियों से बचाने के लिए यह सारा कार्यक्रम गुपचुप ढंग से चलाया जा रहा है।
फिल्म में दिखाई गई क्रूर सच्चाई को पचा पाना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है। केंद्र सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इस दस्तावेजी फिल्म में प्रस्तुत आदिवासियों की हत्याओं को नकारने में देर नहीं लगाई। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के अनुरोध पर केंद्र सरकार द्वारा भी इस साहसिक पत्रकारिता के लिए बीबीसी को नोटिस थमा दिया गया है कि देश में शेरों के लिए संरक्षित वन्य क्षेत्रों में अगले पांच साल तक बीबीसी किसी प्रकार की शूटिंग नहीं कर पाएगी। मंत्रालय और केंद्र सरकार को बीबीसी के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने की जगह पहले यह स्पष्ट करना चाहिए था कि क्या मजम कोरबेट और काजीरंगा में वन रक्षकों को वहां के आदिवासियों को देखते ही गोली मार देने का कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आदेश दिया गया था या नहीं।
वन्य जीवों और वन्य उत्पादों के गैर-कानूनी व्यापार पर नियंत्रण लगाने के लिए सरकार को इस व्यापार के कर्ताधर्ता ठेकेदारों, व्यापारियों और राजनीतिकों पर हाथ डालना चाहिए। अगर कोई आदिवासी इस गैर-कानूनी शिकार और तस्करी में संलग्न भी है तब भी हमें यह समझना होगा कि वह असल में परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। संरक्षित वन्य क्षेत्र के नाम पर अपने पुरखों के जंगलों, खेतों और घरों से विस्थापित किए गए आदिवासियों और स्थानीय ग्रामीणों को उनकी क्षमता, रुचि और सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप वैकल्पिक रोजगार और पुनर्वास उपलब्ध कराए बगैर वनों और वन्य जीवों का संरक्षण नहीं किया जा सकता।
जिन आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर आधारित है, उन पर पर्यावरण-विरोधी होने के आरोप लगा कर, उन्हें जंगलों से जबरन हटा करराष्ट्र-राज्य न जंगलों को बचा पाएगा और न जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं को। आदिवासी समुदायों को विश्वास में लिये बिना, प्रकृति विषयक उनके ज्ञान का सम्मान किए बिना वनों और वन्य जीवों का संरक्षण असंभव है। आदिवासी के जीवन की कीमत पर शहरों के मुट्ठीभर अमीर लोगों की सैरगाह के रूप में जनशून्य संरक्षित वन क्षेत्रों के विकास को अमानवीयता ही कहा जाएगा। इस सरंक्षण का मूल उद्देश्य प्रभु वर्ग के आमोद-प्रमोद और सैर-सपाटे को सुनिश्चित करना होता है, जबकि इन संरक्षित वन्य क्षेत्रों में घूमने वाले पर्यटकों से राज्य को राजस्व की प्राप्ति हो रही हो।वन्यजीवों के शिकार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी तस्करी का एक उच्चस्तरीय जटिल तंत्र है। इसमें आदिवासी तो मात्र मोहरा मात्र होते हैं क्योंकि अपने जल-जंगल-जमीन से निष्कासित कर दिया गया आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा में सही-गलत, कुछ तो करेगा ही। जंगल और जंगली जीव-जंतुओं के उसके परंपरागत ज्ञान और समझ का दुरुपयोग करने को तैयार बैठे हुए अवैध शिकारियों और तस्करों पर नकेल न कस कर आदिवासी को बलि का बकरा बना वन रक्षक और उनके अफसर अपनी पीठ भले थपथपा लें, पर इससे संरक्षित वन्य प्राणियों का शिकार नहीं रुक सकता।
काजीरंगा जैसे संरक्षित राष्ट्रीय उद्यानों में नियमित गश्त और निगरानी जैसी तमाम कवायदों के बावजूद न गैंडों का शिकार बंद किया जा सका है और न इस कवायद में जाने-अनजाने होने वाली आदिवासियों की हत्याओं का सिलसिला ही थमा है। लेकिन इस समस्या का एक और पहलू उन वन रक्षकों से भी संबद्ध है जो शिकारियों और तस्करों के हाथों मारे जाते हैं। जिन प्रतिकूल परिस्थितियों में बिना किसी खास सुरक्षा संसाधनों के वन रक्षकों को काम करना पड़ता है, अवैध शिकार और गैर-कानूनी खनन तथा वृक्षों की कटाई को रोकने का जो दबाव इनके ऊपर तलवार की तरह लटका रहता है, उसे भी हमें समझना होगा।
वनों और वन्यजीवों के संरक्षण तथा आसपास के आदिवासी-ग्रामीण अधिवासों के बीच के द्वंद्व में फंसे इन वन रक्षकों पर सामान्य सुरक्षा कर्मियों की अपेक्षा काम का भारी बोझ होता है। उन्हें आग व बाढ़ जैसी स्थितियों के बीच वृक्षारोपण से लेकर जंगल और जंगल के प्राणियों की रक्षा तक का सारा कार्य करना होता है और ऊपर से साथी वनकर्मियों के खाली पड़े पदों से लेकर संसाधनों और सुविधाओं की कमी से भी जूझना होता है। घातक आग्नेय हथियारों से लैस शिकारियों और तस्करों से निपटने के लिए इनके पास होती है बाबा आदम के जमाने की लाठी-बंदूक। तमाम कर्तव्यनिष्ठा और त्याग-बलिदान के बाद भी त्रासदी यह कि राष्ट्र के प्रति इनकी सेवा और कुर्बानी को समाज कभी संज्ञान में ही नहीं लाता।
स्पष्ट है कि संरक्षित वन क्षेत्रों में अगर जीव-जंतुओं और पड़-पौधों को बचाने के प्रति वास्तव में आप गंभीर हैं, तो आपको आदिवासियों के परंपरागत वन्य अधिकारों के प्रति आपको संवेदनशील होना होगा ताकि अपने पेट की भूख से मजबूर हो कहीं वे शिकारियों और तस्करों के जाल में न फंस जाएं। दूसरी ओर, वन रक्षकों के सामने मौजूद बहुआयामी चुनौतियों को देखते हुए उनके कार्यभार को कम करना होगा। उनकी जिम्मेदारियों में हाथ बंटाने के लिए अन्य सुरक्षा एजेंसियों का सहयोग लेना होगा। इस प्रकार की नीतियां और कार्यक्रम बनाने होंगे कि संरक्षित वन क्षेत्र आसपास की आदिवासी-ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ एक संवाद कायम कर सकें। ग्रामीण विकास के समावेशी सहभागिता वाले मॉडल पर चलते हुए अड़ोस-पड़ोस के लोगों को विश्वास में लेकर उनकी आवश्यकताओं और उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए वन और वन्य जीवों के संरक्षण की कार्य-योजना बनानी होगी। जनशून्य संरक्षित क्षेत्र का पाश्चात्य मॉडल हमारे यहां की परिस्थितियों को देखते हुए बिल्कुल अप्रासंगिक है।

नदियों को जीवनदान

                           करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों की आस्था की प्रतीक गंगा के बारे में कहा जाता था, ‘‘मानो तो मैं गंगा माँ हूँ, ना मानो तो बहता पानी’ लेकिन अब उत्तराखंड हाइकोर्ट ने गंगा को ‘‘लिविंग पर्सन’ यानी एक जीवित वास्तविकता घोषित कर गंगा को हम सबकी माता मान लिया है। अब तक न्यूजीलैंड की संसद ने माओरी समुदाय की आस्था की प्रतीक ह्वागानुई नदी को ‘‘लिविंग एंटिटी’ का दर्जा दिया था। कभी गंगा एक्शन प्लान तो कभी ‘‘नमामि गंगे’ जैसी योजनाओं पर हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें पतित पावनी गंगा का पवित्र निर्मल अतीत नहीं लौटा पाई थी। लेकिन कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश के बाद उम्मीद है कि ऋषिकेश से लेकर बनारस तक कहीं भी गंगा का अमृत तुल्य जल पिया भी जा सकेगा। यूपीए सरकार द्वारा 4 नवम्बर, 2008 को गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिए जाने के बाद अब उत्तराखंड हाइकोर्ट की न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खंडपीठ ने एक कदम आगे बढ़ते हुए गंगा ही नहीं बल्कि यमुना को भी ‘‘लिविंग पर्सन’ की तरह मानवाधिकार देने का फैसला दे दिया। गंगा-यमुना के प्राकृतिक स्वरूप को विकृत करना या उसे गंदा करना तो कानूनी जुर्म माना ही जाएगा, लेकिन अगर गंगा प्रचंड आवेश में आकर किसी का नुकसान करती है तो उस पर भी दंड लगेगा, जिसे सरकार भुगतेगी। अदालत के फैसले से गंगा-यमुना ही नहीं बल्कि देशवासियों के तन-मन के मैल को ढोते-ढोते मैली हो चुकी तमाम नदियों की दुर्दशा के प्रति न्यायपालिका की वेदना को समझा जा सकता है। गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति! नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेस्मिन् सन्निधि कुरु। ये सभी नदियां गंगा-यमुना के समान ही पवित्र हैं। अदालत का संदेश देश की तमाम प्रदूषित होती जा रहीं इन सभी पवित्र नदियों के लिए भी है। प्रचलित धारणा के अनुसार अगर किसी वस्तु में भोजन करना, आकार में वृद्धि करना, स्वचलन की क्षमता, श्वसन करना और प्रजनन करने के जैसे गुण हैं, तो वह सजीव वस्तु या वास्तविकता है। एक नदी में ये सभी गुणधर्म तो नहीं होते मगर इनमें से कुछ अवश्य ही पाए जाते हैं। नदी उद्गम से चलती है तो मुहाने तक उसके आकार में भारी वृद्धि होती है। उसमें स्वचलन का गुण होता है, तभी तो वह हिमालय से हिंद महासागर तक पहुंच जाती है। उसमें गति के साथ ही शक्ति होती है। उसी की शक्ति से पावर हाउस चलते हैं, और बिजली बनती है। वह कई भौगोलिक संरचनाओं के हिसाब से कई तरह की आवाजें निकालती हैं। वैसे भी जब नदी स्वयं जीवनदायिनी हो तो उसे जीवित साबित करने के लिए बायोलॉजी के प्रजनन और अनुवांशिकी जैसे अतिरिक्त मापदंड गौण हो जाते हैं। हिमालय से निकल कर बंगाल की खाड़ी में विलीन होने वाली इस महानदी गंगा का कौन-सा हिस्सा जीवित है और कौन-सा बीमार हो कर सड़ गल रहा है, यह चिंतन का विषय है। विडम्बना यह है कि गंगा के मृतप्राय: हिस्से के प्रति चिंता करने के बजाय उसके शरीर के प्रचंड वेगवान हिस्से के लिए क्रंदन किया जाता है। गंगा की अलकनंदा और भागीरथी जैसी श्रोत जलधाराएं समुद्रतल से लगभग 5 हजार मीटर की ऊंचाई से उत्तराखंड हिमालय के लगभग 917 में से 665 (427 अलकनंदा और 238 भागीरथी के) ग्लेशियरों की नासिकाओं से अपनी लंबी यात्रा पर निकल पड़ती हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि 5 हजार मीटर की ऊंचाई से चली हुई जलराशियां ऋषिकेश में 300 मीटर की ऊंचाई पर उतरती होंगी तो तीव्र ढाल के कारण गंगा का वेग कितना प्रचंड होगा। एक अध्ययन के अनुसार भागीरथी का ढाल 42 मीटर प्रति किमी. और अलकनंदा का ढाल 48 मीटर प्रति किमी. है। जिसका ढाल जितना अधिक होगा, उसका वेग उतना ही अधिक होगा। गंगा की यही उछलकूद उसे स्वच्छ और निर्मल बनाती है। जलमल शोधन संयंत्रों में भी तो इसी तरह जल शोधन किया जाता है। गंगा जब देवप्रयाग से समुद्र मिलन के लिए यात्रा शुरू करती है, तो उसका रंग मौसम के अनुसार नीला, कभी हरा तो बरसात में मटमैला होता है। गंगा को मैदानों के लिए हिमालय से उपजाऊ मिट्टी लाने की जिम्मेदारी भी निभानी होती है। हरिद्वार के बाद गंगा रंग बदलने लगती है, और प्रयागराज इलाहाबाद में यमुना से मिलन के बाद तो वह काली-कलूटी और महानदी की जगह महानाला जैसी दिखती है।वास्तव में यही वेग एक नदी को जीती-जागती बनाता है। गति के साथ ही स्वर पर गौर करें तो पहाड़ों पर नदियों का स्वर और ताल विलक्षण होता है। उनका कलकल निनाद भी विलक्षण होता है। गंगा नदी विश्व भर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण विख्यात है। गंगा एक्शन प्लान फेज प्रथम और दो के बाद ‘‘नमामि गंगे योजना’ भी चली मगर गंगा में जा रही गंदगी उद्गम से ही नहीं रुक पाई। गंगा के मायके उत्तराखंड में ही गंगा किनारे के नगरों, कस्बों से रोजाना 14.90 करोड़ लीटर मलजल प्रति दिन निकल रहा है। इसमें 8.20 करोड़ लीटर सीवर बिना ट्रीटमेंट के ही गंगा में प्रवाहित हो रहा है। गंगा किनारे के लगभग बीस नगरों की आबादी 14 लाख है। चारधाम यात्रा के दौरान आबादी का दबाव 16 लाख तक पहुंच जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने देश में नदियों को प्रदूषित करने वाले 1360 उद्योग चिह्नित किए हैं। इस सूची में उत्तराखंड के 33, उत्तर प्रदेश के 432, बिहार के 22 और पश्चिम बंगाल के 56 कारखाने शामिल हैं, जो गंगा में सीधे खतरनाक रसायन और संयंत्रों से निकला दूषित जल और कचरा प्रवाहित कर रहे हैं। इनमें कानुपर के 76 चमड़ा कारखाने भी शामिल हैं। प्रो. जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के जीवन का अधिकांश हिस्सा कानपुर में ही बीता है। कई स्वनामधन्य साधू-संतों और स्वयंभू पर्यावरण प्रहरियों के निशाने पर उत्तराखंड के पॉवर प्रोजेक्ट तो हैं, मगर गंगा में बह रही गंदगी उन्हें नजर नहीं आती। गंगा को दूषित करने में हरिद्वार के कई आश्रम भी पीछे नहीं हैं। उत्तराखंड के भूगोल से अनभिज्ञ कई गंगा भक्तों और साधू-संतों को केवल भागीरथी में ही गंगा का रूप नजर आता है, जबकि गंगा का सफर देवप्रयाग से शुरू होता है, और उससे ऊपर उसकी हर एक स्रेत धारा गंगा समान है।

शहरों का रूपांतरण कैसे हो ?

आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 ने भारत में शहरीकरण और उससे संबंधित चुनौतियों के बारे में मुख्य तथ्य प्रस्तुत किए हैं –
  • भारत में शहरीकरण की अहमियत में कोई कमी नहीं है। केवल उसके विकास का तरीका अलग है। आम धारणा से अलग, हमारे देश में शहरीकरण का स्तर और उसका फैलाव अन्य देशों की तरह ही करने की नीति है। व्यापक स्तर पर देखें, तो शहरीकरण का स्तर प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के साथ बढ़ा है।
  • अन्य देशों में अगर शहरीकरण के सामान्य विकास पर नजर डालें, तो भारत में शहरीकरण का तरीका कुछ भिन्न लगता है। जिफ्फ के सिद्धांत के अनुसार सबसे अधिक आबादी वाले शहर को आबादी में दूसरे और तीसरे नंबर के शहरों से क्रमशः दुगुने और तिगुने आकार का होना चाहिए। लेकिन हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। हमारे देश में छोटे शहर तो आकार में छोटे हैं ही, बड़े शहर भी आकार में छोटे हैं।
  • हमारे यहाँ भूमि प्रबंधन असमान है। बड़े शहरों के सीमित आकार का यही एक बड़ा कारण है। भूमि प्रबंधन खराब होने से बाज़ार अव्यवस्थित है। उनके किराए अनाप-शनाप हैं। लोग उन्हें वहन नहीं कर पाते। इसलिए अपनी पसंद के शहरों में जाकर बसना लोगों के लिए बहुत मुश्किल है। दूसरे, हमारे शहरों में बुनियादी ढांचो की बेहद कमी है। इसके चलते उपलब्ध ढांचों पर बोझ बहुत ज्यादा है।
  • नगरों की क्षमता बढ़ाने का सीधा संबंध आर्थिक एवं व्यक्तिगत सेवाओं की उपलब्धता से है। जनाग्रह ने 21 शहरी निकायों का आकलन किया और यह पाया कि शहरों की क्षमता बढ़ाने और सेवाओं के बीच का आपसी संबंध चार कारकों पर निर्भर करता है- स्वच्छ जल, सीवर लाइन, सार्वजनिक शौचालय एवं दूषित जल का उचित निष्कासन।
  • शहरों में बेहतर सेवाओं के लिए पर्याप्त धनराशि और कर्मचारियों के बीच का संतुलन बनाए रखने की नितांत आवश्यकता होती है। इन दो तत्वों के अलावा शहरी निकायों की संसाधन जुटाने की क्षमता बहुत मायने रखती है। जितने ज़्यादा संसाधन होंगे, परिणाम उतने ही अच्छे मिलेंगे।
  • शहरी निकायों को आर्थिक कोष में वृद्धि के लिए निर्धारित करों के अलावा भी रास्ते ढूंढने होंगे। हमारे यहाँ संसाधन जुटाने के अन्य उपायों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है।
  • मुंबई और पुणे जैसे शहरों ने इस मामले में उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इन शहरी निकायों में निर्धारित करों से आय बहुत कम होती है। इन्होंने आय के अन्य साधन ढूंढे और सेवाओं को सुधारा। वहीं कानपुर और देहरादून जैसे शहरी निकायों के पास करों से आय की अधिकता है, लेकिन ये आय के अन्य साधनों में वृद्धि नहीं कर पाए। जाहिर है कि संसाधनों में वृद्धि करके ही बेहतर सेवाएं दी जा सकती हैं।
  • शहरी निकायों में संपत्ति कर की उगाही उचित क्षमता में नहीं की जाती है। संपत्तियों के मूल्य का सही आकलन न होना, उगाही में ढील, संपत्ति का मूल्य के अनुसार सूचीबद्ध न होना, आदि कुछ ऐसी खामिया हैं, जिनके चलते संपत्ति कर को आय के तरल माध्यम के रूप में नहीं लिया जाता है।
सैटेलाइट इमेज के जरिए किए गए आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि जयपुर और बेंगलूरू जैसे शहर संपत्तियों से केवल 5-20% तक के ही कर की उगाही कर पाते हैं।शहरीकरण से जुड़े इन चार कारकों के अलावा स्थानीय निकायों को शक्ति एवं संसाधन जुटाने के अधिकार देने में राज्य सरकारों की विमुखता एक रोड़ा है। प्रोफेसर राजा चलैया का कथन सही लगता है कि ‘हर कोई विकेंद्रीकरण चाहता है, परंतु केवल अपने स्तर तक।‘ उम्मीद की जा सकती है कि वित्त आयोग अब स्थानीय निकायों को संसाधन जुटाने के अधिक अधिकार दे सकेगा। नगर निगमों को करों के द्वारा आय को पूरा करने की कोशिश करनी होगी। सैटेलाइट आधारित तकनीक के इस्तेमाल से शहरी संपत्तियों का सही ब्योरा रखकर करों की उगाही करनी होगी।जैसे राज्य अपनी प्रगति के लिए आपस में होड़ करते रहते हैं, वैसे ही शहरों के बीच भी प्रगति की होड़ होनी चाहिए। उत्तरदायित्व  संभालते और संसाधनों से लैस नगर, प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद की धुरी बन सकते हैं।

मुगल उत्तराधिकारी


औरंगजेब की मृत्यु ने मुगल साम्राज्य के पतन की नींव डाली क्योंकि उसकी मृत्यु के पश्चात उसके तीनों पुत्रों-मुअज्जम,आजम और कामबक्श के मध्य लम्बे समय तक चलने वाले उत्तराधिकार के युद्ध ने शक्तिशाली मुगल साम्राज्य को कमजोर कर दिया. औरंगजेब ने अपने तीनों पुत्रों को प्रशासनिक उद्देश्य से अलग अलग क्षेत्रों का गवर्नर बना दिया था, जैसे-मुअज्जम काबुल का,आजम गुजरात और कामबक्श बीजापुर का गवर्नर था। इसी कारण इन तीनों के मध्य मतभेद पैदा हुए, जिसने उत्तराधिकार को लेकर गुटबंदी को जन्म दिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उत्तरवर्ती मुग़लों के मध्य होने वाले उत्तराधिकार-युद्ध का विवरण निम्नलिखित है-
मुअज्जम (1707-1712 ई०):-
  • वह शाह आलम प्रथम के नाम से जाना जाता था, जिसे खफी खां ने ‘शाह-ए–बेखबर’ भी कहा है क्योंकि वह शासकीय कार्यों के प्रति बहुत अधिक लापरवाह था।
  • वह अपने दो भाइयों की हत्या करने और कामबक्श को जाजऊ के युद्ध में हराने के बाद 1707 ई० में मुग़ल राजगद्दी पर बैठा वह अपने शासकीय अधिकारों का स्वतंत्र रूप से प्रयोग करने वाला अंतिम मुगल शासक था।
  • उसने सिक्खों एवं मराठों के साथ मधुर सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया.उसने इसीलिए मराठों को दक्कन की सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार दे दिया लेकिन चौथ वसूलने का अधिकार नहीं दिया
  • मुअज्ज़म की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों- जहाँदार शाह, अजीम-उस-शाह, रफी-उस-शाह और जहाँशाह, के मध्य नए सिरे से उत्तराधिकार को लेकर युद्ध प्रारंभ हो गया।
जहाँदार शाह(1712-1713 ई०):-
  • उसने मुगल दरबार में ईरानी गुट के नेता जुल्फिकार खान के सहयोग से अपने तीन भाइयों की हत्या के बाद राजगद्दी प्राप्त की
  • वह जुल्फिकार खान, जो वास्तविक शासक के रूप में कार्य करता था ,के हाथों की कठपुतली मात्र थायहीं से शासक निर्माताओ की संकल्पना का उदय हुआ वह अपनी प्रेमिका लाल कुंवर के भी प्रभाव में था जोकि मुगल शासन पर नूरजहाँ के प्रभाव की याद दिलाता है
  • उसने मालवा के जय सिंह को ‘मिर्जा राजा’ और मारवाड़ के अजित सिंह को ‘महाराजा’ की उपाधि प्रदान की
  • उसके द्वारा मराठों को चौथ और सरदेशमुखी वसूलने के अधिकार प्रदान करने के कदम ने मुगल शासन के प्रभुत्व को कमजोर बनाने की शुरुआत की
  • उसने इजारा पद्धति अर्थात राजस्व कृषि/अनुबंध कृषि को बढावा दिया और जजिया कर को बंद किया
  • वह प्रथम मुगल शासक था जिसकी हत्या सैय्यद बंधुओं-अब्दुल्लाह खान और हुसैन अली(जो हिन्दुस्तानी गुट के नेता थे) के द्वारा कैदखाने में की गयी थी
फर्रुखसियर(1713-1719 ई०):-
  • वह ‘साहिद-ए-मजलूम’ के नाम से जाना जाता था और अजीम-उस-शाह का पुत्र था
  • वह सैय्यद बंधुओं के सहयोग से मुग़ल शासक बना था
  • उसने ‘निज़ाम-उल-मुल्क’ के नाम से मशहूर चिनकिलिच खान को दक्कन का गवर्नर नियुक्त किया, जिसने बाद में स्वतंत्र राज्य-हैदराबाद की स्थापना की।
  • उसके समय में ही पेशवा बालाजी विश्वनाथ मराठा-क्षेत्र पर सरदेशमुखी और चौथ बसूली के अधिकार को प्राप्त करने के लिया मुगल दरबार में उपस्थित हुए थे।
रफी-उद-दरजात(1719 ई०):-
  • वह कुछ महीनों तक ही शासन करने वाले मुग़ल शासकों में से एक था।
  • उसने निकुस्सियर के विद्रोह के दौरान आगरा के किले पर कब्ज़ा कर लिया और खुद को शासक घोषित कर दिया।
रफी-उद-दौला(1719 ई०):-
  • वह ‘शाहजहाँ द्वितीय’ के नाम से जाना जाता है
  • उसके शासनकाल के दौरान ही अजित सिंह अपनी विधवा पुत्री को मुग़ल हरम से वापस ले गए थे और बाद में उसने हिन्दू धर्म अपना लिया 
मुहम्मद शाह(1719-1748 ई०):-
  • उसका नाम रोशन अख्तर था जोकि प्रभाव-हीन और आराम-पसंद मुगल शासक था। अपनी आराम-पसंदगी की प्रवृत्ति के कारण ही वह ‘रंगीला’ नाम से भी जाना जाता था
  • उसके शासनकाल के दौरान ही मराठों ने बाजीराव के नेतृत्व में, मुगल इतिहास में पहली बार, दिल्ली पर धावा बोला
  • इसी के शासनकाल में फारस के नादिर शाह ने, सादत खान की सहायता से, दिल्ली पर आक्रमण किया और करनाल के युद्ध में मुगल सेना को पराजित किया
अहमद शाह(1748-1754 ई०):-
  • इसके शासनकाल के दौरान नादिरशाह के पूर्व सेनापति अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर पांच बार आक्रमण किया
  • इसे इसी के वजीर इमाद-उल-मुल्क द्वारा शासन से अपदस्थ कर आलमगीर द्वितीय को नया शासक नियुक्त किया गया
आलमगीर द्वितीय(1754-1759ई०):-
  • वह ‘अजीजुद्दीन’ के नाम से जाना जाता था
  • इसी के शासनकाल के दौरान प्लासी का युद्ध हुआ
  • इसे इसी के वजीर इमाद-उल-मुल्क द्वारा शासन से अपदस्थ कर शाहआलम द्वितीय को नया शासक नियुक्त किया गया।
शाहआलम द्वितीय(1759-1806ई०):-
  • ‘अली गौहर’ के नाम से प्रसिद्ध इस मुग़ल शासक की बक्सर के युद्ध (1764 ई०)में हार हुई थी।
  • इसी के शासनकाल के दौरान पानीपत की तीसरा युद्ध हुआ
  • बक्सर के युद्ध के बाद इलाहाबाद की संधि के तहत मुगलों द्वारा बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी अधिकार अंग्रेजो को दे दिए जिन्हें 1772 ई० के बाद महादजी सिंधिया के सहयोग से पुनः मुगलों ने प्राप्त किया
  • वह प्रथम मुगल शासक था जो ईस्ट इंडिया कम्पनी का पेंशनयाफ्ता था
अकबर द्वितीय(1806-1837ई०):-
  • वह अंग्रेजो के संरक्षण में बनने वाला प्रथम मुग़ल बादशाह था
  • इसके शासनकाल में मुग़ल सत्ता लालकिले तक सिमटकर रह गई।
बहादुरशाह द्वितीय( 1837-1862ई०):-
  • वह अकबर द्वितीय और राजपूत राजकुमारी लालबाई का पुत्र एवम मुगल साम्राज्य का अंतिम शासक था।
  • इसके शासनकाल के दौरान 1857 की क्रांति हुई और उसी के बाद इसे बंदी के रूप में रंगून निर्वासित कर दिया गया जहाँ 1862 ई० में इसकी मृत्यु हो गई
  • वह ‘जफर’ उपनाम से बेहतरीन उर्दू शायरी लिखा करता था।
मुगल साम्राज्य के पतन के कारण:-
मुग़ल साम्राज्य का पतन एकाएक न होकर क्रमिक रूप में हुआ था, जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
1.साम्राज्य का बृहद विस्तार:- इतने विस्तृत साम्राज्य पर सहकारी संघवाद के बिना शासन करना आसान नहीं था। अतः मुग़ल साम्राज्य अपने आतंरिक कारणों से ही डूबने लगा।
2.केंद्रीकृत प्रशासन:- इतने वृहद् साम्राज्य को विकेंद्रीकरण और विभिन्न शासकीय इकाइयों के आपसी सहयोग के आधार पर ही शासित किया जा सकता था।
औरंगजेब की नीतियाँ:- उसकी धार्मिक नीति, राजपूत नीति और दक्कन नीति ने असंतोष को जन्म दिया जिसके कारण मुगल साम्राज्य का विघटन प्रारंभ हो गया।
3.उत्तराधिकार का युद्ध:- उत्तराधिकार को लेकर लम्बे समय तक चलने वाले युद्धों ने मुगलों की प्रशासनिक इकाइयों में दरार पैदा कर दी।
4.उच्च वर्ग की कमजोरी:- मुगल उच्च वर्ग मुगलों के प्रति अपनी वफ़ादारी के लिए जाना जाता था लेकिन उत्तराधिकार के युद्धों के कारण उनकी वफादारी बंट गयी।
अतः शक्तिशाली मुग़ल साम्राज्य औरंगजेब की मृत्यु के बाद पतन की ओर अग्रसर हुआ जिसमें जल्दी जल्दी होने वाले सत्ता परिवर्तनों और उत्तराधिकार के युद्धों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

Wednesday 29 March 2017

खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा


सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य प्रसंस्करण नीति का मसौदा सार्वजनिक टिप्पणी के लिए प्रस्तुत किया है। हालांकि यह नीति टुकड़ों में बेहतर प्रतीत होती है लेकिन इसके कुछ अहम प्रावधानों की समीक्षा आवश्यक है। ऐसा करके ही इस क्षेत्र में समावेशी विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा। कई नीतिगत उपाय मसलन सब्सिडी, कर रियायत और सीमा शुल्क व उत्पाद शुल्क में रियायत आदि के कई उपाय तो पहले से ही लागू हैं। लेकिन एक बात जो इस नीति को औरों से अलग करती है वह यह कि इसमें कुछ अहम बाधाओं को दूर करने का प्रयास किया गया है। ये बाधाएं इस क्षेत्र को पूरी क्षमता से विकसित नहीं होने दे रही हैं। इसमें भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान बनाना और श्रम कानूनों में सुधार करना शामिल है। कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण और उनके मूल्यवर्धन को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर जोर इसलिए जरूरी है क्योंकि कृषि उपज का एक बड़ा हिस्सा मंडी में पहुंचने के पहले ही नष्टï हो जाता है। इस दस्तावेज में कुल 46 जिंसों में फसल उत्पादन के बाद होने वाले नुकसान का एक राष्ट्रव्यापी अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिसमें कहा गया है कि इसके चलते सालाना करीब 44,000 करोड़ रुपये मूल्य का नुकसान होता है। यह आकलन वर्ष 2009 के थोकमूल्य के आधार पर किया गया है। सब्जियों और फलों जैसी जल्द खराब होने वाली चीजों के मामले में यह नुकसान खासतौर पर बहुत अधिक है। हमारा देश इस क्षेत्र में नुकसान बरदाश्त करने की स्थिति में भी नहीं है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि इन जिंसों की आपूर्ति और इनकी कीमतों में काफी उतार-चढ़ाव आता है। अगर इन वस्तुओं का समय से प्रसंस्करण और मूल्यवर्धन किया जा सके तो इससे बचा जा सकता है। मूल्यवर्धन से तात्पर्य इनको ऐसा रूप देने से है ताकि ये टिकाऊ बन सकें।
प्रस्तावित नीति की एक सकारात्मक बात यह है कि यह खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के उद्यमियों के लिए सकारात्मक कारोबारी माहौल तैयार करना चाहती है। इसके लिए एकल खिड़की मंजूरी, पहले और बाद में निवेश सेवाओं की व्यवस्था, स्वनियमन और कच्चे माल तथा प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद के लिए पूरे राज्य को एक जोन में बदलना शामिल है। नीति में आपूर्ति मजबूत करने, शीतगृहों का बुनियादी ढांचा दुरुस्त करने, कौशल विकास करने और खाद्य उत्पादकों और प्रसंस्करण करने वालों के बीच अनुबंध के जरिये तथा कॉर्पोरेट कृषि के जरिए रिश्ता कायम करने की बात शामिल है। जमीन के मुद्दे को हल करने के लिए नीति में कहा गया है कि खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों के लिए जमीन पट्टी की सीमा समाप्त की जानी चाहिए। इसके अलावा इनको कृषि इकाई घोषित करने की बात कही गई है ताकि कृषि भूमि को औद्योगिक भूमि में नहीं बदलना पड़े। इसी तरह श्रम कानून के मामले में नीति में कहा गया है कि खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को अनिवार्य सेवा का दर्जा दिया जाए और मौसमी उद्योग मानते हुए सामान्य कानूनों से रियायत दी जाए।
मौजूदा स्वरूप में यह नीति बड़ी परियोजनाओं और खाद्य आधारित क्लस्टरों के पक्ष में झुकी हुई है। इसमें छोटी-मझोली इकाइयों के लिए खास जगह नहीं है। सरकार एक दशक से बड़े फूड पार्क का समर्थन करती आई है लेकिन इसका कोई बड़ा फायदा नहीं नजर आया। वर्ष 2008-09 से जिन 40 मेगापार्क को मंजूरी दी गई है उनमें से कुछ ही पूरे हुए हैं। हालांकि हाल के दिनों में हालात सुधरे हैं तो भी इस क्षेत्र की सालाना वृद्घि दर 2.5 फीसदी से आगे नहीं बढ़ सकी है। अब बड़े पैमाने पर छोटे और मझोले उद्यम स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। किसानों से जुड़कर ऐसी इकाइयां काफी अच्छा प्रदर्शन कर सकती हैं। इससे फसल में विविधता आएगी, रोजगार पैदा होगा और किसानों की आय बढ़ेगी। आपूर्ति और कीमत में स्थिरता तो आएगी ही।

"रानी लक्ष्मी बाई"


 (1835 - 1858)
उपनाम : मणिकर्णिका, मनु
जन्मस्थल : वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्युस्थल: ग्वालियर, मध्य प्रदेश
आन्दोलन: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
रानी लक्ष्मीबाई (जन्म: 19 नवम्बर 1835 – मृत्यु: 18 जून 1858) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना थीं जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से संग्राम किया और रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की किन्तु जीते जी अंग्रेजों को अपनी झाँसी पर कब्जा नहीं करने दिया।

संक्षिप्त जीवनी 
लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में 19 नवम्बर 1835 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था परन्तु प्यार से उसे मनु कहा जाता था। मनु की माँ का नाम भागीरथीबाई तथा पिता का नाम मोरोपन्त तांबे था। मोरोपन्त एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" कहकर बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली।[2] सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दियापर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।
ब्रिटिश राज ने बालक दामोदर के खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना जब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काटने का फरमान जारी कर दिया। 

अंग्रजों की राज्य हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स) और झाँसी
ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत अंग्रेजों ने बालक दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ नीति के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया। हालाँकि रानी लक्ष्मीबाई ने अँगरेज वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया। अंग्रेजों ने झाँसी राज्य का खजाना जब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगादाहर राव के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुक्म दे दिया। अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने को कहा जिसके बाद उन्हें रानीमहल में जाना पड़ा। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया।

झाँसी का युद्ध

1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को समर्पित भारत का डाकटिकट जिसमें लक्ष्मीबाई का चित्र है।झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया। झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली। तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की। लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक खतरनाक भी थी।

भारतीय राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग


स्थापना : 1993 में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम,1993 द्वारा ।
आयोग का संगठन
सदस्य : ➤ (1+4) 1 अध्यक्ष तथा 4 सदस्य होते है। इनके अतिरिक्त 4 पूर्ण कालिक पदेन सदस्य भी होते है । 
NOTE: यदि परीक्षा में सदस्य संख्या से सम्बंधित प्रश्न हो तो उत्तर 1+4=5 होगा ना की 1+4+4=9
अध्यक्ष : ➤आयोग का अध्यक्ष वही व्यक्ति होता है जो सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश रह चुका हो।
सदस्य : ➤ आयोग के 2 सदस्य वे होंगे जो सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश हो अथवा रह चुके हो।
ध्यान रहे यंहा सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीश का उल्लेख है न की मुख्य का।
➤ आयोग के 2 सदस्य वें होंगे जो मानवाधिकारो के संदर्भ में विशेष जानकारी रखते हो।
पूर्ण कालिक पदेन सदस्य : ➤ 4 पूर्ण कालिक सदस्य होते है।
➤राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष।
➤राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष।
➤अनुसूचित जाती आयोग के अध्यक्ष।
➤अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष।
➤आयोग में सदस्यों की नियुक्ति
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में सदस्यों की नियुक्ति की जानकारी नीचे इमेज में दी है करपिया इमेज को देखे
आयोग में सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा छः सदस्ययी समिति की सिफारिश के आधार पर की जाती है। समिति की सिफ़ारिशों को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है। इस समिति में पक्ष विपक्ष से जुड़े सभी महत्वपूर्ण पद सम्मलित है जो निम्नलिखित है:-
➤प्रधानमंत्री समिति के पदेन अध्यक्ष के रुप में ।
➤केंद्रीय मंत्रिमंडल सदस्य (गृह मंत्री)।
➤लोक सभा अध्यक्ष।
➤लोक सभा में विपक्ष का नेता।
➤राज्यसभा सभापति।
➤राज्यसभा में विपक्ष का नेता।
आयोग के सदस्यों को पदमुक्त करना राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्यों को पदमुक्त करने का अधिकार राष्ट्रपति को होता है, इसके लिए भी कई प्रावधान दिए हुए है। अतः पद मुक्ति के निम्न आधार हो सकते है:-
➤सिद्ध कदाचार के आधार पर।
➤सदस्य को दिवालिया घोषित कर दिया गया हो।
➤सदस्य ने लाभकारी पद धारण कर लिया हो।
➤वह मानसिक अथवा शारीरिक रूप से अक्षम हो।

आयोग सदस्यों व अध्यक्ष का कार्य काल
5 वर्ष का कार्यकाल अथवा 70 वर्ष की उम्र जो भी पहले पूरी हो तक पद पर बने रह सकते है। लेकिन यहाँ दो बातों पर ध्यान देना आवश्यक है :
➤यदि 70 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं हुई हो तो इस आयु तक पुनर्नियुक्त किए जा सकते है।
➤कार्यकाल पूर्ण होने के बाद राज्य अथवा केंद्र सरकार के अधीन कोइ पद ग्रहण नहीं कर सकते है।

आयोग का कार्य
मानवाधिकारो के संदर्भ में संवेधानिक व क़ानूनी प्रवधानो के क्रियान्वयन पर निगरानी रखना।
➤NGO's को प्रोत्साहित करना ताकि वें उचित रूप से क्षेत्र में कार्य कर सके।
➤मानवाधिकारो के सम्बंध में शोध करना एंव शोध को बढावा देना।
➤मानवाधिकारो से सम्बंधित शिकायतों को सुनना।
➤मानवाधिकारो की जानकारी का प्रसार करना तथा जागरूकता बढ़ाना।
➤आयोग गम्भीर विषयों पर स्वविवेक से भी मामलों पर संज्ञान लेता है।

आयोग की शक्तियाँ
➤समन जारी करने की शक्ति।
➤शपथ पत्र अथवा हलफ़नामे पर लिखित गवाही लेने की शक्ति।
➤गवाही को रिकोर्ड करने की शक्ति।
➤देश की विभिन्न जेलों का निरीक्षण करने की शक्ति।
Note : आयोग उन्ही मामलों में जाँच कर सकता है जिन्हें घटित हुए एक वर्ष से काम समय हुआ हो। एक वर्ष से पूर्व घटनाओं पर आयोग को कोई अधिकार नहीं है।
आयोग मानवाधिकार उल्लंघन के दोषी को न तो दंड से सकता है ओर न ही पीड़ित को किसी प्रकार की आर्थिक सहायता कर सकता है। लेकिन इसका चरित्र न्यायिक है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा महत्व पूर्ण पत्रिका जारी की जाती है जिसका नाम है "नई दिशाए"। अधिकांश परीक्षाओं में यह प्रश्न पूछा जाता है।
Note: आयोग का कार्यालय नई दिल्ली में है। अन्य स्थानो पर भी कार्यालय खोला जा सकता है।
प्रथम व वर्तमान अध्यक्ष
प्रथम अध्यक्ष : रंगनाथ मिश्र
वर्तमान अध्यक्ष : जस्टिस एच एल दत्तु
इतनी जानकरिया परीक्षा के लिए बहुत होती है। अधिकांश सवाल इन में से ही पूछे जाते है। फिर भी मानव प्रवृति अनुसार ओर अधिक का चाह सभी में व्याप्त होती है। अतः नीचे दिए लिंक से आप अन्य जानकरिया भी प्राप्त कर पायेंगे।
➤official website http://nhrc.nic.in
➤मानवाधिकार अधिनयम,1993
➤आयोग का गठन
➤प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न
➤राज्य मानवाधिकार आयोग
➤मानवाधिकार विश्व एंव भारत में

Important index Ranking Of India 2016-17

  • Global Competitiveness Index- 39
  • Global Peace Index- 141
  • Corruption Index- 76
  • Environmental Democracy Index- 24
  • World Happiness Index 2017- 122
  • World Bank Ease of Doing Business 2017- 130
  • World Economic Forum’s Gender gap Index- 87
  • Global Hunger Index Report- 97
  • Human Development Index- 131
  • Intellectual property (IP) environment 2017- 43
  • World Press Freedom Index- 133
  • Global Slavery Index- 4
  • Global Innovation Index- 66
  • FM Global Resilience Index- 119
  • World’s most valuable nation brands report- 7
  • Remittance Index- 1
  • World Press Freedom Index- 133
  • Crony Capitalism- 9
  • World Prosperity Index- 104
  • Nuclear Material Security- 23
  • Access To Electricity- 137
  • Green Energy Spending- 5
  • Milk Production- 1

Tuesday 28 March 2017

बजट (BUDGET), पार्ट 1


बजट एक निश्चित वर्ष के लिए सरकार की अनुमानित आयव्यय का विवरण है बजट उपलब्ध संसाधनों के आकलन करने की प्रक्रिया है, तथा पूर्व निर्धारित प्राथमिकताओं के आधार पर संगठन के विभिन्न गतिविधियों के लिए आवंटित करने की प्रक्रिया भी है यह सार्वजनिक जरूरतों तथा दुर्लभ संसाधनों को संतुलित करने का प्रयास भी है परंतु बजट केवल आर्थिक गतिविधियां नहीं है, यह धन से इतर है, बजट दर्शन, नीति तथा चयन का प्रतिनिधित्व करता है यह संसाधनों के आवंटन में प्रतिस्पर्धा की प्राथमिकताओं, निष्पक्षता तथा सामाजिक न्याय के मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित करता है यह उस दिशा का भी संकेत करता है जिसमे उस देश का नेतृत्व करता है तथा उस मार्ग को भी बताता है जिससे उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है अपनी वित्तीय भूमिकाओं को छोड़कर बजट द्वारा निम्नलिखित कार्य किए जाते हैं —
निष्कर्षतः यह सरकारी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए एक योजनाबद्ध दृष्टिकोण है, जो वृहद् संसाधनों को संगठित करने की मांग करता है। विगत वर्षों में सरकार के बारे में जनता की राय बदलने के लिए बजटीय प्रक्रिया में बदलाव को अच्छी तरह समझ जा सकता है
वाणिज्यिक बजट तथा सरकारी बजट में कई अंतर है, दोनों में अंतर इस प्रकार हैं –

संघीय बजट
संघीय बजट को वार्षिक वित्तीय विवरण के रूप में जाना जाता है, इसके दो उद्देश्य हैं  —
(a) संघ सरकार की गतिविधियों का वित्त पोषण
(b) यह रोजगार, निरंतर आर्थिक विकास, मूल्य स्थिरता जैसे वयापक आर्थिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए राजकोषीय नीति का एक हिस्सा है

संस्थान एवं कानून
केंद्र सरकार के पास दो बजट थे – आम बजट और रेल बजट वर्ष 1921 में एकवर्थ समीति के सिफारिशों के आधार पर आम बजट को रेल बजट से अलग कर दिया गया था पुनः 2017 में दोनों को सम्मिलित कर दिया गया
आम बजट में सभी मंत्रालयों के कुल प्राप्तियों तथा व्यय का अनुमान होता हैं, इसमें निम्नलिखित तीन आंकड़े सम्मिलित होते हैं —
(1)विगत वर्ष कि कुल वास्तविक आय तथा व्यय
(2) चालू वर्ष के संसोधित आंकड़े
(3)आगामी वर्ष के लिए बजट अनुमान
सरकार कि प्राप्तियों को संविधान के तीन खातों में रखा जाता है —
(1) संचित निधि
(2) लोक लेखा निधि
(3)आकस्मिकता निधि
अनुमानित आय और व्यय इन निधियों से अलग रखे जाते हैं —
यह एक ऐसी निधि हैं जिसमे सभी प्राप्तियां जमा की जाती हैं तथा सभी व्यय निकाले जाते हैं,अर्थात सरकार द्वारा प्राप्त सभी राजस्व सरकार द्वारा लिए गए सभी ऋण, ट्रेजरी बिल तथा अन्य माध्यम ऋण के रूप में प्राप्त आय तथा अन्य सभी प्रकार के पुनर्भुगतान सरकार द्वारा सभी प्रकार का भुगतान विधिक रूप से इसी फण्ड से किया जाता हैं इस निधि से संसद की अनुमति के बिना किसी भी प्रकार से धन विनियोजित नहीं किया जा सकता विधि द्वारा अधिकृत विनियोजन से ही धन निकल जा सकता हैं
निम्नलिखित प्रकार के व्यय संचित निधि में सम्मिलित हैं —
लोक लेखा निधि
भारत सरकार की ओर से अन्य सार्वजनिक धन (संचित निधि से सम्बंधित धन को छोड़कर ) लोक लेधा निधि में जमा किए जाएंगे जो इस प्रकार हैं —
आकस्मिकता निधि
सरकारी बजट के घटक
भारत में प्रत्येक वित्तीय वर्ष, सरकार की अनुमानित प्राप्तियों और व्ययों का विवरण संसद के समक्ष प्रस्तुत करना एक संवैधानिक अनिवार्यता है। इस वार्षिक वित्तीय विवरण से मुख्य बजट दस्तावेज बनता है। इसके अतिरिक्त बजट में राजस्व लेखा पर व्यय और अन्य प्रकार के व्यय में अवश्य ही अंतर होना चाहिए। अतः बजट दो प्रकार के होते है : (i) राजस्व बजट (ii) पूंजीगत बजट,  जैसा की निचे दिए गए चित्र में दिया गया है
राजस्व बजट में सरकार की चालू प्राप्तियां और उन प्राप्तियों से किए जाने वाले व्यय के विवरण को दर्शाया जाता है
राजस्व प्राप्तियां राजस्व प्राप्तियां सरकार की वह प्राप्तियां है जो गैर – प्रतिदेय हैं अर्थात इसे पाने के लिए सरकार से पुनः दावा नहीं किया जा सकता है। इसे कर और गैर कर राजस्व में विभक्त किया जाता है। कर राजस्व में कर की प्राप्तियां और सरकार द्वारा लगाए गए अन्य शुल्क शामिल होते है। कर राजस्व जो की राजस्व प्राप्तियों का एक महत्वपूर्ण घटक है, में मुख्य रूप से प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर होते है

प्रत्यक्ष कर- ऐसा कर जिसका बोझ प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति (व्यक्तिगत आयकर ) और फर्म (निगम कर ) पर पड़ता है। अन्य प्रत्यक्ष करों जैसे संपत्ति कर, उपहार कर और सम्पदा शुल्क आदि