ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक डेविड वारेन ने वर्ष 1950 में ब्लैक बॉक्स का आविष्कार किया था। उन्होनें ‘कॉमेट’ नामक दुर्घटनाग्रस्त एयरक्राफ्ट के जाँच के दौरान यह सोचा कि क्यों न कोई ऐसा उपकरण बनाया जाये जो एयरक्राफ्ट के दुर्घटनाग्रस्त होने से पहले की घटनाओं की रिकॉर्डिंग कर सके। इसके बाद उन्होंने इस प्रोजेक्ट पर काम करते हुए ब्लैक बॉक्स का आविष्कार किया। ब्लैक बॉक्स का वास्तविक अंग्रेजी नाम ‘डिजिटल फ्लाइट डाटा रिकॉर्डर’ या ‘फ्लाइट रिकॉर्डर’ है। ब्लैक बॉक्स को शुरुवाती दिनों में ‘रेड एग’ नाम से जाना जाता था, जो कि रंग एवं प्रारूप की दृष्टि से अत्यधिक उपयुक्त नाम था। वर्तमान में वायुयानों में उपयोग होने वाला ब्लैक बॉक्स ‘लाल’ अथवा ‘संतरी’ रंग का होता है। तो फिर इसे तो रेड बॉक्स कहना चाहिए, नाकि ब्लैक बॉक्स। इसके पीछे क्या कारण है? दरअसल, प्रारम्भिक वर्षों में डिजिटल फ्लाइट डाटा रिकॉर्डर के भीतर की दिवार को काला रखा जाता था, ताकि वह फोटोफिल्म आधारित संग्राहक (फ्लाइट डाटा रिकॉर्डर) में काला रंग किसी अँधेरे कमरे की तरह काम करे।
ब्लैक बॉक्स उच्च तापमान को सहन कर सकनें में भी सक्षम होते हैं। यह 270 नॉट्स तक के आघात वेग को भी सह सकता है। इसी वजह से हवाई जहाज में दुर्घटना होने के कारण भी ब्लैक बॉक्स में संचित जानकारी एवं आंकड़े सुरक्षित रहती है। इसको हवाई जहाज के पिछले हिस्से (दुर्घटना के समय सबसे सुरक्षित हिस्सा) में रखा जाता है। इसकी बॉडी स्टील या टाइटेनियम से बनी होती है। यह जंगरोधी, आगरोधी, तापरोधी होता है। ब्लैक बॉक्स से एक खास तरह की प्रकाशीय विकिरणों का उत्सर्जन लगातार तीन दिनों तक होता रहता है, इससे दुर्घटना के पश्चात हवाई जहाज को ढूढ़ने में सहायता मिलती है। परन्तु, ब्लैक बॉक्स में संग्रहित डाटा को कभी भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
ब्लैक बॉक्स की इन्हीं सभी खूबियों के कारण हवाई जहाजों एवं एयरक्राफ्टो में इसे लगाना अनिवार्य कर दिया गया है। इसलिए आपनें देखा होगा कि जब भी कोई विमान दुर्घटना होती है, तो सबसे पहले ब्लैक बॉक्स को ही खोजा जाता है।