जिन आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर आधारित है, उन पर पर्यावरण-विरोधी होने के आरोप लगा कर, उन्हें जंगलों से जबरन हटा करराष्ट्र-राज्य न जंगलों को बचा पाएगा और न जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं को। आदिवासी समुदायों को विश्वास में लिये बिना, प्रकृति विषयक उनके ज्ञान का सम्मान किए बगैर, वनों और वन्य जीवों का संरक्षण असंभव है।
आदिवासी का पूरा अस्तित्व ही जल-जंगल-जमीन पर आधारित होता है, अत: वनों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर वहां से आदिवासियों को बलात निष्कासित करने का अर्थ होता है उनके अस्तित्व के सामने प्रश्नचिह्न खड़ा कर देना। ऐसे में अगर ये खदेड़े गए आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इन संरक्षित वन्य क्षेत्रों में अपने परंपरागत अधिकारों का दावा करते हुए सरकार की नजरों में अनधिकार हस्तक्षेप करते हैं, तो उन्हें वन्यजीवों और वन्य पशुओं का शत्रु घोषित कर दिया जाता है। उनकी प्रतिरोधी आवाजों को कुचलने के लिए राष्ट्र-राज्य पिछले कुछ समय से वनरक्षकों और सुरक्षा एजेंसियों को तमाम न्याय से ऊपर उठ कर विशिष्ट ताकत और अधिकार देने की पहल करता रहा है। आजादी के बाद भी विदेशी सत्ता द्वारा स्थापित आदिवासी विरोधी वन कानून बदस्तूर जारी हैं। आदिवासी आज भी वन रक्षकों और पुलिसवालों के उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं। प्रामाणिकता का बहाना करके ऐसी खबरों को दबा दिया जाता है।
पर कहा गया है कि हत्या छिपती नहीं है। बीबीसी के दक्षिण एशिया संवाददाता जस्टिन रौलट ने प्रतिबद्ध पत्रकारिता का नमूना पेश करते हुए काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्रों में एक सींग वाले भारतीय गैंडे के संरक्षण की आड़ में होने वाली आदिवासियों की हत्याओं पर से पर्दा उठाते हुए एक दस्तावेजी फिल्म बनाई है- ‘वन वर्ल्ड: किलिंग फॉर कंजर्वेशन’ (संरक्षण के नाम पर हत्या)। यह दस्तावेजी फिल्म दावा करती है कि भारत के संरक्षित वन्य क्षेत्रों में चोरी-छिपे तरीके से वन संरक्षकों और अन्य कर्मचारियों को नियमों से बाहर जाकर विशिष्ट पुलिसिया अधिकार दिया गया है कि वे वन्य पशुओं के शिकार और तस्करी रोकने के लिए आवश्यकता पड़ने पर वहां के स्थानीय आदिवासियों और ग्रामीणों को देखते ही गोली मार सकते हैं। इसमें यह भी दिखाया गया है कि कैसे वन संरक्षकों को गश्त के दौरान क्रूरता बरतने और घात लगा कर हमला बोलने का प्रशिक्षण दिया गया है। पूर्णत: संरक्षित घोषित किए जा चुके एक दांत वाले भारतीय गैंडे को शिकारियों से बचाने के लिए यह सारा कार्यक्रम गुपचुप ढंग से चलाया जा रहा है।
फिल्म में दिखाई गई क्रूर सच्चाई को पचा पाना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है। केंद्र सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इस दस्तावेजी फिल्म में प्रस्तुत आदिवासियों की हत्याओं को नकारने में देर नहीं लगाई। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के अनुरोध पर केंद्र सरकार द्वारा भी इस साहसिक पत्रकारिता के लिए बीबीसी को नोटिस थमा दिया गया है कि देश में शेरों के लिए संरक्षित वन्य क्षेत्रों में अगले पांच साल तक बीबीसी किसी प्रकार की शूटिंग नहीं कर पाएगी। मंत्रालय और केंद्र सरकार को बीबीसी के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने की जगह पहले यह स्पष्ट करना चाहिए था कि क्या मजम कोरबेट और काजीरंगा में वन रक्षकों को वहां के आदिवासियों को देखते ही गोली मार देने का कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आदेश दिया गया था या नहीं।
वन्य जीवों और वन्य उत्पादों के गैर-कानूनी व्यापार पर नियंत्रण लगाने के लिए सरकार को इस व्यापार के कर्ताधर्ता ठेकेदारों, व्यापारियों और राजनीतिकों पर हाथ डालना चाहिए। अगर कोई आदिवासी इस गैर-कानूनी शिकार और तस्करी में संलग्न भी है तब भी हमें यह समझना होगा कि वह असल में परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। संरक्षित वन्य क्षेत्र के नाम पर अपने पुरखों के जंगलों, खेतों और घरों से विस्थापित किए गए आदिवासियों और स्थानीय ग्रामीणों को उनकी क्षमता, रुचि और सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप वैकल्पिक रोजगार और पुनर्वास उपलब्ध कराए बगैर वनों और वन्य जीवों का संरक्षण नहीं किया जा सकता।
जिन आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर आधारित है, उन पर पर्यावरण-विरोधी होने के आरोप लगा कर, उन्हें जंगलों से जबरन हटा करराष्ट्र-राज्य न जंगलों को बचा पाएगा और न जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं को। आदिवासी समुदायों को विश्वास में लिये बिना, प्रकृति विषयक उनके ज्ञान का सम्मान किए बिना वनों और वन्य जीवों का संरक्षण असंभव है। आदिवासी के जीवन की कीमत पर शहरों के मुट्ठीभर अमीर लोगों की सैरगाह के रूप में जनशून्य संरक्षित वन क्षेत्रों के विकास को अमानवीयता ही कहा जाएगा। इस सरंक्षण का मूल उद्देश्य प्रभु वर्ग के आमोद-प्रमोद और सैर-सपाटे को सुनिश्चित करना होता है, जबकि इन संरक्षित वन्य क्षेत्रों में घूमने वाले पर्यटकों से राज्य को राजस्व की प्राप्ति हो रही हो।वन्यजीवों के शिकार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी तस्करी का एक उच्चस्तरीय जटिल तंत्र है। इसमें आदिवासी तो मात्र मोहरा मात्र होते हैं क्योंकि अपने जल-जंगल-जमीन से निष्कासित कर दिया गया आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा में सही-गलत, कुछ तो करेगा ही। जंगल और जंगली जीव-जंतुओं के उसके परंपरागत ज्ञान और समझ का दुरुपयोग करने को तैयार बैठे हुए अवैध शिकारियों और तस्करों पर नकेल न कस कर आदिवासी को बलि का बकरा बना वन रक्षक और उनके अफसर अपनी पीठ भले थपथपा लें, पर इससे संरक्षित वन्य प्राणियों का शिकार नहीं रुक सकता।
काजीरंगा जैसे संरक्षित राष्ट्रीय उद्यानों में नियमित गश्त और निगरानी जैसी तमाम कवायदों के बावजूद न गैंडों का शिकार बंद किया जा सका है और न इस कवायद में जाने-अनजाने होने वाली आदिवासियों की हत्याओं का सिलसिला ही थमा है। लेकिन इस समस्या का एक और पहलू उन वन रक्षकों से भी संबद्ध है जो शिकारियों और तस्करों के हाथों मारे जाते हैं। जिन प्रतिकूल परिस्थितियों में बिना किसी खास सुरक्षा संसाधनों के वन रक्षकों को काम करना पड़ता है, अवैध शिकार और गैर-कानूनी खनन तथा वृक्षों की कटाई को रोकने का जो दबाव इनके ऊपर तलवार की तरह लटका रहता है, उसे भी हमें समझना होगा।
वनों और वन्यजीवों के संरक्षण तथा आसपास के आदिवासी-ग्रामीण अधिवासों के बीच के द्वंद्व में फंसे इन वन रक्षकों पर सामान्य सुरक्षा कर्मियों की अपेक्षा काम का भारी बोझ होता है। उन्हें आग व बाढ़ जैसी स्थितियों के बीच वृक्षारोपण से लेकर जंगल और जंगल के प्राणियों की रक्षा तक का सारा कार्य करना होता है और ऊपर से साथी वनकर्मियों के खाली पड़े पदों से लेकर संसाधनों और सुविधाओं की कमी से भी जूझना होता है। घातक आग्नेय हथियारों से लैस शिकारियों और तस्करों से निपटने के लिए इनके पास होती है बाबा आदम के जमाने की लाठी-बंदूक। तमाम कर्तव्यनिष्ठा और त्याग-बलिदान के बाद भी त्रासदी यह कि राष्ट्र के प्रति इनकी सेवा और कुर्बानी को समाज कभी संज्ञान में ही नहीं लाता।
स्पष्ट है कि संरक्षित वन क्षेत्रों में अगर जीव-जंतुओं और पड़-पौधों को बचाने के प्रति वास्तव में आप गंभीर हैं, तो आपको आदिवासियों के परंपरागत वन्य अधिकारों के प्रति आपको संवेदनशील होना होगा ताकि अपने पेट की भूख से मजबूर हो कहीं वे शिकारियों और तस्करों के जाल में न फंस जाएं। दूसरी ओर, वन रक्षकों के सामने मौजूद बहुआयामी चुनौतियों को देखते हुए उनके कार्यभार को कम करना होगा। उनकी जिम्मेदारियों में हाथ बंटाने के लिए अन्य सुरक्षा एजेंसियों का सहयोग लेना होगा। इस प्रकार की नीतियां और कार्यक्रम बनाने होंगे कि संरक्षित वन क्षेत्र आसपास की आदिवासी-ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ एक संवाद कायम कर सकें। ग्रामीण विकास के समावेशी सहभागिता वाले मॉडल पर चलते हुए अड़ोस-पड़ोस के लोगों को विश्वास में लेकर उनकी आवश्यकताओं और उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए वन और वन्य जीवों के संरक्षण की कार्य-योजना बनानी होगी। जनशून्य संरक्षित क्षेत्र का पाश्चात्य मॉडल हमारे यहां की परिस्थितियों को देखते हुए बिल्कुल अप्रासंगिक है।