गंधार शैली:-
बाह्य प्रभाव – यूनानी या हेलेनिस्टिक मूर्ति कला का भारी प्रभाव , अतः इसे भारतीय-यूनानी कला के रूप में भी जाना जाता है।
प्रयुक्त सामग्री – प्रारंभिक गंधार शैली में नीले-धूसर बलुआ प्रस्तर का प्रयोग किया जाता था, जबकि बाद की अवधि मिटटी और प्लास्टर के उपयोग में लाई जाती थी।
धार्मिक प्रभाव – मुख्य रूप से बौध चित्रकला, ग्रीको रोमन देवताओं के मंदिरों से प्रभावित थी।
संरक्षण – इस कला को कुषाण शासकों का संरक्षण मिला था।
विकास का क्षेत्र – आधुनिक कंधार क्षेत्र और उत्तर पशिचम सीमांत में विकसित हुई।
बौद्ध की मूर्ति की
विशेषताएं – वह योगी मुद्रा में बैठे है और बहुत कम आभूषण धारण किए हुए है। उनको लहराते बालों के साथ आध्यात्मिक मुद्रा में दिखाया गया है। आखें ऐसी बंद हैं जैसे कि ध्यान की ध्यान मुद्रा में हों और इनके सर पर जटा या उभार को दिखाया गया है। यह बुद्ध की सर्वज्ञता को दर्शाता है।
मथुरा शैली:-
बाह्य प्रभाव – यह शैली बाह्य संस्कृतियों से प्रभावित नहीं थी और स्वदेशी शैली के रूप से विकसित हुई थी।
प्रयुक्त सामग्री – इस शैली की मूर्तियों को चित्तिदार लाल बलुआ प्रस्तर का उपयोग करके बनाया गया था।
धार्मिक प्रभाव – तीनों धर्मों का प्रभाव था यानी हिंदू, जैन और बौध।
संरक्षण -इस कला को कुषाण शासकों का संरक्षण मिला था।
विकास का क्षेत्र – मथुरा, सोंख और कंकालीटीला में और आसपास के क्षेत्रों में विकसित हुई थी।
बौद्ध की मूर्ति की विशेषताएं – इसमें बुद्ध को मुस्कुराते चेहरे के साथ प्रसन्नचित दिखाया गया है। शरीर हष्ट-पुष्ट और तंग कपड़े पहने हुए है। चेहरा और सिर मुंडा हुआ है। सर पर उभार या जटा दिखाई गई है। बुद्ध को विभिन्न मुद्राओं में पदमासन में बैठे दिखाया गया है और उनका चेहरा विनीत भाव दर्शाता है।
अमरावती शैली:-
बाह्य प्रभाव - यह भी शैली बाह्य संस्कृतियों से प्रभावित नहीं थी और स्वदेशी शैली के रूप से विकसित हुई थी।
प्रयुक्त सामग्री – इस शैली की मूर्तियां सफेद संगमरमर का उपयोग करके बनाई गई थी।
धार्मिक प्रभाव – मुख्य रूप से बौद्ध का प्रभाव था।
संरक्षण – इसको सातवाहन शासकों का संरक्षण प्राप्त था।
विकास का क्षेत्र – कृष्णा-गोदावरी की निचली घाटी में, अमरावती और नगर्जुनाकोंडा में और आसपास के क्षेत्रों में विकसित हुई थी।
बौद्ध की मूर्ति की विशेषताएं – इसमें बुद्ध की व्यक्तिगत विशेषताओं पर कम बल दिया गया है। मूर्तियां केवल बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं की कहानियों को दर्शाती है।
उस समय कला, मूर्तिकला और वास्तुकला का अपना एक स्थान था। उसमें तीन प्रमुख शैल्लियों के बारे में ऊपर दिए गए अंतर से अनुमान लगाया जा सकता है कि ये कलाओं की क्या विशेषता थी और कहा-कहा ये पाई जाती थी।