अंग्रेजों की भारत से वापसी क्यों अपरिहार्य प्रतीत होने लगी?
सरकार-विरोधी संघर्ष में राष्ट्रवादियों की सफलता से उनकी विजय निर्णायक स्थिति में पहुंच चुकी थी। राष्ट्रवाद, अब समाज के उन वर्गों और क्षेत्रों तंक पहुंच-चुका था, जो कि अब तक इस प्रक्रिया से अछूते थे।
अंग्रेज सरकार की समझौतावादी एवं दमनकारी नीति की अपनी कुछ सीमायें थीं। साथ ही इसमें विरोधाभास प्रकट होने लगा था। जैसे कि-
- क्रिप्स मिशन के उपरांत सरकार पूर्ण स्वतंत्रता को छोड़कर केवल सीमित समझौते की नीति पर ही चल रही थी।
- जब अहिंसक असहयोग आंदोलन को दबाने के लिये सरकार ने दमन का सहारा लिया तो उसका फासीवादी चेहरा अनावृत हो गया तथा जब सरकार ने आंदोलनों के विरुद्ध दमन का सहारा लेने से बचने की कोशिश की तो नौकरशाही हताश हुयी तथा सरकार की प्रतिष्ठा में भारी गिरावट आयी।
- सरकार द्वारा कांग्रेस के प्रति प्रेम दिखाये जाने से उसके भक्त असंतुष्ट हो गये।
- सरकार की इन विरोधाभासी नीतियों के कारण नौकरशाही असमंजस की स्थिति में फंस गयी, जो कि अभी तक सर्वश्रेष्ठता की भावना पाले हुये थी तथा किसी भी स्थिति में भारतीयों के समक्ष झुकने को तैयार नहीं थी। चुनावों के उपरांत विभिन्न प्रांतों में कांग्रेस सरकारों के गठन से यह स्थिति और जटिल हो गयी तथा नौकरशाही एवं राजभक्त असमंजस के दलदल में आकंठ डूब गये।
- संविधानवाद या कांग्रेस राज ने भारतीयों में जुझारूपन की प्रवृत्ति को और सशक्त बना दिया तथा राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रसार को और तेज कर दिया।
- आजाद हिन्द फौज के युद्धबंदियों के समर्थन में पूरे राष्ट्र ने जिस अभूतपूर्व एकता का परिचय दिया उससे सरकार सकते में आ गयी। तदुपरांत रायल इंडियन नेवी के नाविकों के विद्रोह से सरकार के सम्मुख यह बात स्पष्ट हो गयी कि अब वह सेना पर भी पूर्ण विश्वास नहीं कर सकती। उसने महसूस किया कि यदि कांग्रेस ने अब कोई आंदोलन प्रारंभ किया तो उसे प्रांतीय कांग्रेसी सरकारें भी खुलकर सहयोग प्रदान करेंगी।
कैबिनेट मिशन योजना की पूर्व संध्या
- कैबिनेट मिशन योजना की पूर्वसंध्या पर कांग्रेस ने मांग की कि वह एकीकृत केंद्र में ही सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को स्वीकार करेगी। अल्पसंख्यकों की मांग के संबंध में उसकी नीति थी कि मुस्लिम बहुल प्रांतों को आत्मनिर्णय द्वारा केंद्र में विलय होने का अधिकार है। किंतु उसने स्पष्ट किया कि यह प्रक्रिया अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के उपरांत ही पूर्ण होगी।
- ब्रिटेन की मंशा भी यही थी कि वह संयुक्त एवं मैत्रीभाव वाले भारत को सत्ता हस्तांतरित करे तथा राष्ट्रमंडल की सुरक्षा हेतु भारत को सक्रीय साझेदार बनाए क्योंकि ब्रिटेन का मानना था कि विभाजित भारत से राष्ट्रमंडल की शक्ति क्षीण होगी तथा ब्रिटिश सर्वोच्चता की उसकी नीति प्रभावित होगी।
- 1946 में ब्रिटेन की संयुक्त भारत के संबंध में स्पष्ट नीति थी, जो कि उसकी पूर्ववर्ती नीतियों से सर्वथा भिन्न थी। 15 मार्च 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने कहा कि “……अल्पसंख्यकों की मांगे विचारणीय हैं….परंतु उन्हें बहुसंख्यकों के हितों की उपेक्षा करके पूरा नहीं किया जा सकता”। यह घोषणा शिमला सम्मेलन में सरकार द्वारा अपनायी गयी उस घोषणा से बिल्कुल भिन्न थी, जिसमें वायसराय वैवेल ने जिन्ना को संतुष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया था।
24 मार्च 1946 को कैबिनेट मिशन दिल्ली पहुंचा। मिशन ने विभिन्न दलों एवं समूहों के नेताओं से निम्न मुद्दों पर कई दौर की बातचीत की-
अंतरिम सरकार।
समूह व्यवस्था के संबंध में भिन्न-भिन्न व्याख्याएं-
प्रत्येक पार्टी या समूह ने समूह व्यवस्था की अवधारणा को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा तथा उसकी अलग-अलग व्यवस्था की-
कांग्रेस जब तक समूह व्यवस्था की अवधारणा वैकल्पिक है तब तक कैबिनेट मिशन योजना पाकिस्तान निर्माण के विरुद्ध है। एकल संविधान सभा का गठन विचारणीय है; मुस्लिम लीग का वीटो पावर समाप्त हो गया है।
मुस्लिम लीग अनिवार्य समूहीकरण की व्यवस्था में पाकिस्तान का निर्माण अंर्तभूत है।
कैबिनेट मिशन योजना के संबंध में मुख्य आपत्तियां
विभिन्न दलों ने भिन्न-2 आधारों पर कैबिनेट मिशन का विरोध किया-
कांग्रेस
मुस्लिम लीग
- समूहीकरण की शर्त समूह ख एवं ग के लिये अनिवार्य होनी चाहिये तभी भविष्य में पाकिस्तान के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। लीग का सोचना था कि कांग्रेस, कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर देगी तब सरकार अंतरिम सरकार के गठन के लिये लीग को आमंत्रित करेगी।
- स्वीकार्यताः 6 जून को मुस्लिम लीग ने और 24 जून 1946 को कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन योजना के दीर्घ अवधि के प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया।
- जुलाई 1946: संविधान सभा के गठन हेतु प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं में चुनाव संपन्न हुये।
- कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों के आधार पर पहले तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सरकार में भागीदारी से इंकार कर दिया पर संविधान निर्मात्री सभा में शामिल होना स्वीकार कर लिया। मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को आरंभ में तो स्वीकार कर लिया किंतु बाद में उससे अपनी स्वीकृति वापस ले ली। कांग्रेस द्वारा संविधान सभा में शामिल होने और मुस्लिम लीग द्वारा अपनी स्वीकृति वापस ले लेने के कारण वायसराय ने लीग के प्रतिनिधित्व के बिना ही कार्यकारिणी का गठन कर लिया। वायसराय द्वारा उठाये गये इस कदम को अनुचित बताते हुये लीग ने 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ का आह्वान किया।
- 2 सितम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरू और उनके सहकर्मियों ने वायसराय की काउंसिल के सदस्यों के रूप में शपथ ली। यह काउंसिल नेहरू के नेतृत्व में एक प्रकार से मंत्रिमंडल के रूप में काम करने लगी। नेहरू के नेतृत्व में काउंसिल के राष्ट्रसमर्थक कार्यों और कांग्रेस की शक्ति में वृद्धि को देखते हुये वायसराय लार्ड वैवेल ने घबराकर मुस्लिम लीग को काउंसिल में शामिल होने के लिये राजी कर लिया। मुस्लिम लीग को काउंसिल में शामिल करना इसलिये आपेक्षित था क्योंकि उसके बिना काउंसिल असंतुलित थी। मुस्लिम लीग ने अब भी संविधान सभा में शामिल होने से अस्वीकार कर दिया था। लेकिन जवाहरलाल नेहरू को लार्ड वैवेल ने यह सूचना दी कि मुस्लिम लीग ने काउंसिल में शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
- वैवेल के इस कार्य से मंत्रिमंडल (काउंसिल) में असहयोग का वातावरण उत्पन्न हो गया और लीग द्वारा यह घोषणा कर दिये जाने पर कि उसने संविधान सभा में शामिल होने का कोई वायदा नहीं किया था, वैवेल के लिये असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गयी। 9 दिसम्बर, 1946 को मुस्लिम लीग के सदस्यों की अनुपस्थिति में ही डा. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन कर दिया गया। मुस्लिम लीग ने इस संविधान सभा का विरोध किया और पृथक पाकिस्तान की मांग को और अधिक प्रखर रूप में सामने रखा।
- 9 दिसम्बर 1946 को आयोजित संविधान सभा की प्रथम बैठक में मुस्लिम लीग सम्मिलित नहीं हुयी। तत्पश्चात लीग की अनुपस्थिति में बैठक में जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार किये गये एक मसौदे को पारित किया गया, जिसमें “एक स्वतंत्र, पूर्ण प्रभुसत्तासंपन्न गणराज्य की स्थापना का आदर्श लक्ष्य था। जिसे स्वायत्तता, अल्पसंख्यकों को पर्याप्त संरक्षण देने का अधिकार तथा सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त होगी”।
- मुस्लिम लीग ने मंत्रिमंडल द्वारा निर्णय लिये जाने के लिये आहूत की गयी अनौपचारिक बैठक में भी भाग नहीं लिया।
- मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के सदस्यों द्वारा लिये गये निर्णय तथा नियुक्तियों पर सवाल उठाये। वित्तमंत्री के रूप में लियाकत अली खान मत्रिमंडल के अन्य मंत्रियों के कार्य में बाधक बन रहे थे।
- मुस्लिम लीग का उद्देश्य किसी भी तरह पृथक पाकिस्तान का निर्माण करना था तथा उसकी समस्त गतिविधियां तथा निर्णय इसी भावना से ओत-प्रोत थीं। उसके लिये यह गृहयुद्ध जैसी प्रक्रिया थी। दूसरी ओर कांग्रेस ने सरकार से मांग की कि वह या तो मुस्लिम लीग को अंतरिम सरकार को सहयोग देने के लिये कहे या सरकार से अलग होने की कहे।
फरवरी 1947 में, मंत्रिमंडल के नौ कांग्रेस सदस्यों ने वायसराय को पत्र लिखकर मांग की कि वे लीग के सदस्यों को त्यागपत्र देने के लिये कहें अन्यथा वे मत्रिमंडल से अपना नामांकन वापस ले लेंगे। तत्पश्चात लीग द्वारा संविधान सभा को भंग करने की मांग से स्थिति और बिगड़ गयी। इस प्रकार गतिरोध सुलझने के स्थान पर और बढ़ता हुआ प्रतीत होने लगा।
एटली की घोषणा- 20 फरवरी 1947
20 फरवरी 1947 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली द्वारा की गयी घोषणा के मुख्य बिंदु निम्नानुसार हैं-
- अंग्रेज सरकार 30 जून 1948 तक भारतवासियों को सत्ता सौंप देगी।
- यदि इस तिथि तक संविधान नहीं बन सका तो उस स्थिति में ब्रिटिश सम्राट की सरकार यह विचार करेगी कि निश्चित तिथि को ब्रिटिश शासित भारत की केंद्रीय सरकार की सत्ता किसको सौंपी जाये। क्या ब्रिटिश भारत की केंद्रीय सरकार के किसी रूप को अथवा कुछ भागों में वर्तमान प्रांतीय सरकारों को अथवा किसी अन्य ढंग से जो सर्वाधिक न्यायसंगत एवं भारतीयों के सर्वाधिक हित में हो, सत्ता दी जाये।
- लार्ड वैवेल के स्थान पर लार्ड मांउटबेटन को भारत का नया वायसराय नियुक्त किया गया।
- एटली की उपर्युक्त घोषणा में पाकिस्तान के निर्माण का भाव निहित था। साथ हिम यह घोषणा राज्यों के बल्कनीकरण एवं क्रिप्स प्रस्तावों के समर्थन का आभास दे रही थी।
- सरकार ने भारतीयों की सत्ता हस्तांतरित करने के लिये तिथि निधारित क्यों की-
- सरकार को आशा थी कि सत्ता हस्तांतरण के लिये तिथि निर्धारित करने पर भारत के राजनीतिक दल मुख्य समस्या के समाधान हेतु सहमत हो जायेगें।
- सरकार तत्कालीन संवैधानिक संकट को टालना चाहती थी।
- सरकार इस बात को स्वीकार कर चुकी थी कि भारत से उसकी वापसी तथा भारतवासियों को सत्ता हस्तांतरण अपरिहार्य हो चुका है।