Monday 20 March 2017

प्राचीन काल में भारत एवं रोम के साथ संबंधों पर प्रकाश डालिये?



                 दक्षिण भारत के उत्पादों का पश्चिम में एकाधिकार था क्योंकि उनकी वहाँ बहुत माँग थी। वास्तव में ईसा युग की प्रथम तीन शताब्दियों में भारत का पश्चिम के साथ लाभप्रद समुद्री व्यापार हुआ जिनमें रोम साम्राज्य प्रमुख था। रोम भारतीय सामान का सर्वोत्तम ग्राहक था। यह व्यापार दक्षिण भारत के साथ हुआ जो कोयम्बटूर और मदुरई में मिले रोम के सिक्कों से सिद्ध होता है। रोम में काली मिर्च, पान, मसालों और इत्रों की बहुत माँग थी। बहुमूल्य पत्थर जैसे नगीने, हीरे, पन्ने, माणिक्य और मोती, हाथी दांत, रेशम एवं मलमल के वस्त्र वहां बहुत पसंद किये जाते थे। रोम के साथ व्यापार से भारत में सोना आता था और भारत को इस व्यापार से बहुत लाभ होता था तथा उस समय कुषाण साम्राज्य को आमदनी के रूप में स्थायी स्वर्ण मुद्रा मिलती थी। तमिल राजाओं ने युद्ध स्थल पर अपने शिविरों की रक्षा के लिऐ और मदुरै के नगरद्वार की पहरेदारी के लिए भी यवन नियुक्त किये थे। प्राचीन भारत में यवन शब्द पश्चिम एशिया तथा भूमध्यसागरीय क्षेत्र के लोगों के लिए प्रचलित था और इसमें रोमवासी तथा यूनानी लोग भी शामिल थे। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ‘यवन’ अंगरक्षकों में कुछ रोमवासी भी हो सकते थे।
इस समय तक कावेरीपत्तनम विदेशी व्यापार का एक बहुत महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। कावेरीपत्तनम में तट पर ऊंचे मंच, गोदाम और भंडार गृह जहाजों से उतरे माल को रखने के लिए बनाये गये। इन वस्तुओं की चुंगी भुगतान के बाद इन पर चोलों की बाघ के चिर्विंली मोहर लगाई जाती थी। उसके बाद माल व्यापारियों के भंडारगृहों (पत्तनप्पलाई) में भेजा जाता था। निकट ही यवन व्यापारियों के आवास और विभिन्न भाषाएं बोलने वाले विदेशी व्यापारियों के रहने के स्थान होते थे। वहीं एक बड़े बाजार में उनकी जरूरत का हर सामान उपलब्ध होता था। यहाँ फूलों और इत्रों के सुगंधित लेप और चूर्ण बनाने वाले, दर्जी जो सिल्क, ऊनी और सूती वस्त्रों पर काम करते थे, चंदन, मूंगे, सोने, मोती और बहुमूल्य नगों के व्यापारी, अनाज के व्यापारी, धोबी, मछली और नमक आदि के बेचने वाले, मोची, सुनार, चित्रकार, मूर्तिकार, लुहार और खिलौने बनाने वाले सब मिल जाते थे। यहां समुद्र पार सुदूर देशों से आये घोड़े भी बाजार में बेचने के लिए लाए जाते थे।
इनमें अधिकांश वस्तुओं को निर्यात के लिए एकत्र किया जाता था। प्लिनी के अनुसार भारत के निर्यातों में काली मिर्च और अदरक भी शामिल थे। इनका वास्तविक मूल्य से सौ गुना ज्यादा दाम मिलता था। इसके अतिरिक्त भारतीय इत्र, मसालों और सुगंधों आदि वस्तुओं की रोम में बहुत अधिक खपत थी।
प्राचीन काल में विदेशों के साथ भारत के व्यापार संबंध कितने महत्त्वपूर्ण थे इसका अनुमान आप भारतीय राजाओं द्वारा भेजे जाने वाले और उनसे मिलने आने वाले राजदूतों की संख्या से लगा सकते हैं। एक पांड्य (चंदकलं) राजा ने ईसा पूर्व पहली शताब्दी में रोम के सम्राट अगस्टस के पास राजदूत भेजा था। ईसा के बाद सन् 99 में भी ट्राय के लिए राजदूत भेजे गये। क्लाउडियस, ट्रैजन, एंटोनमिस, पूइस, इंस्तिमान तथा अन्य राजदूतों ने विभिन्न भारतीय राजदरबारों की शोभा बढ़ायी।
रोम के साथ व्यापार इतना अधिक था कि इसकी गति को निर्बाध बनाने के लिए पश्चिमी तट पर सोपारा और बेरीगाज (भड़ौच) जैसे बंदरगाह बने, जबकि कोरोमंडल तट से ‘सुनहरे कैरसोनीस’ (सुवर्णभूमि) और सुनहरे क्रीस (सुवर्ण द्वीप) के साथ व्यापार होता था। चोल राजाओं ने अपने बंदरगाहों पर प्रकाशस्तंभ लगाये जो रात में तीव्र रोशनी देकर बंदरगाहों पर जहाजों का मार्गदर्शन करते थे। पांडेचेरी के समीप आर्केमेडू नामक स्थान पर इटली की अरेटाइन नाम से प्रसिद्ध बर्तन बनाने की कला के कुछ नमूने जिन पर इटली के बर्तनसाज की मुहर भी है, तथा रोमन लैंप के अवशेष भी मिले हैं।
आंध्र क्षेत्र से भी विदेशी व्यापार की निशानियाँ मिलती है। यहाँ के कुछ बंदरगाह और आसपास के नगर भी व्यापार में सहायता प्रदान करते थे। अतः पैठन (प्रतिस्थान) से पत्थर, सूती मलमल और अन्य वस्त्र विदेशों को जहाज से भेजे जाते थे। आंध्र के राजा यज्ञश्री ने राज्य के समुद्री व्यापार के प्रतिक रूप में जहाज-मुद्रित दुर्लभ सिक्के चलाये।