Wednesday, 29 March 2017

खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा


सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य प्रसंस्करण नीति का मसौदा सार्वजनिक टिप्पणी के लिए प्रस्तुत किया है। हालांकि यह नीति टुकड़ों में बेहतर प्रतीत होती है लेकिन इसके कुछ अहम प्रावधानों की समीक्षा आवश्यक है। ऐसा करके ही इस क्षेत्र में समावेशी विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा। कई नीतिगत उपाय मसलन सब्सिडी, कर रियायत और सीमा शुल्क व उत्पाद शुल्क में रियायत आदि के कई उपाय तो पहले से ही लागू हैं। लेकिन एक बात जो इस नीति को औरों से अलग करती है वह यह कि इसमें कुछ अहम बाधाओं को दूर करने का प्रयास किया गया है। ये बाधाएं इस क्षेत्र को पूरी क्षमता से विकसित नहीं होने दे रही हैं। इसमें भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान बनाना और श्रम कानूनों में सुधार करना शामिल है। कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण और उनके मूल्यवर्धन को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर जोर इसलिए जरूरी है क्योंकि कृषि उपज का एक बड़ा हिस्सा मंडी में पहुंचने के पहले ही नष्टï हो जाता है। इस दस्तावेज में कुल 46 जिंसों में फसल उत्पादन के बाद होने वाले नुकसान का एक राष्ट्रव्यापी अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिसमें कहा गया है कि इसके चलते सालाना करीब 44,000 करोड़ रुपये मूल्य का नुकसान होता है। यह आकलन वर्ष 2009 के थोकमूल्य के आधार पर किया गया है। सब्जियों और फलों जैसी जल्द खराब होने वाली चीजों के मामले में यह नुकसान खासतौर पर बहुत अधिक है। हमारा देश इस क्षेत्र में नुकसान बरदाश्त करने की स्थिति में भी नहीं है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि इन जिंसों की आपूर्ति और इनकी कीमतों में काफी उतार-चढ़ाव आता है। अगर इन वस्तुओं का समय से प्रसंस्करण और मूल्यवर्धन किया जा सके तो इससे बचा जा सकता है। मूल्यवर्धन से तात्पर्य इनको ऐसा रूप देने से है ताकि ये टिकाऊ बन सकें।
प्रस्तावित नीति की एक सकारात्मक बात यह है कि यह खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के उद्यमियों के लिए सकारात्मक कारोबारी माहौल तैयार करना चाहती है। इसके लिए एकल खिड़की मंजूरी, पहले और बाद में निवेश सेवाओं की व्यवस्था, स्वनियमन और कच्चे माल तथा प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद के लिए पूरे राज्य को एक जोन में बदलना शामिल है। नीति में आपूर्ति मजबूत करने, शीतगृहों का बुनियादी ढांचा दुरुस्त करने, कौशल विकास करने और खाद्य उत्पादकों और प्रसंस्करण करने वालों के बीच अनुबंध के जरिये तथा कॉर्पोरेट कृषि के जरिए रिश्ता कायम करने की बात शामिल है। जमीन के मुद्दे को हल करने के लिए नीति में कहा गया है कि खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों के लिए जमीन पट्टी की सीमा समाप्त की जानी चाहिए। इसके अलावा इनको कृषि इकाई घोषित करने की बात कही गई है ताकि कृषि भूमि को औद्योगिक भूमि में नहीं बदलना पड़े। इसी तरह श्रम कानून के मामले में नीति में कहा गया है कि खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को अनिवार्य सेवा का दर्जा दिया जाए और मौसमी उद्योग मानते हुए सामान्य कानूनों से रियायत दी जाए।
मौजूदा स्वरूप में यह नीति बड़ी परियोजनाओं और खाद्य आधारित क्लस्टरों के पक्ष में झुकी हुई है। इसमें छोटी-मझोली इकाइयों के लिए खास जगह नहीं है। सरकार एक दशक से बड़े फूड पार्क का समर्थन करती आई है लेकिन इसका कोई बड़ा फायदा नहीं नजर आया। वर्ष 2008-09 से जिन 40 मेगापार्क को मंजूरी दी गई है उनमें से कुछ ही पूरे हुए हैं। हालांकि हाल के दिनों में हालात सुधरे हैं तो भी इस क्षेत्र की सालाना वृद्घि दर 2.5 फीसदी से आगे नहीं बढ़ सकी है। अब बड़े पैमाने पर छोटे और मझोले उद्यम स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। किसानों से जुड़कर ऐसी इकाइयां काफी अच्छा प्रदर्शन कर सकती हैं। इससे फसल में विविधता आएगी, रोजगार पैदा होगा और किसानों की आय बढ़ेगी। आपूर्ति और कीमत में स्थिरता तो आएगी ही।