Saturday, 6 January 2018

पाल कला


बौद्धों की प्राचीन कला शैली : बिहार और बंगाल में पाल शासको का दीर्घ काल तक शासन रहा था। उनके समय में नालन्दा, विक्रमशिला और उदंतपुरी कलात्मक गतिविधियों के केंद्र के रूप में खासे प्रसिद्ध थे। इस समय बौद्ध कला की छटा कुछ मद्धिम हो चली थी। फिर भी पाल शासकों ने स्थापत्य कला,चित्रकला और मूर्तिकला को नई उच्चाइयाँ प्रदान की। इसके उदाहरण आलोच्य पांडुलिपियों की चितरकारीयां और सरायटीले के भित्तिचित्र है। ऐसा देखने में मिला है कि इस समय अजन्ता शैली में चित्र बनाये गए थे जिसके सर्वोत्तम नमूने नेपाल के शाही दरबार,रॉयल एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता, कला भवन काशी, महाराजा संग्रहालय बड़ौदा तथा बोस्टन संग्रहालय अमेरिका में सुरक्षित है।

मूर्तिकला :  -1.प्रस्तर मूर्ति  2. कांस्य मूर्ति कला

पालयुग में पत्थर और कांसे की मूर्तियों के निर्माण की एक उन्नत शैली का विकास बिहार प्रदेश में जिसका क्रमशः विकास बंगाल में दिखाई पड़ता है। कांस्य प्रतिमाओं के निर्माण में निर्णायक देन राजतक्षक धीमान और उनके पुत्र विठपाल की रही जिन्हें दो महान पाल शासकों धर्मपाल और देवपाल का संरक्षण प्राप्त था। नालन्दा और कुक्रिहार से प्राप्त कांस्य प्रतिमाए इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि कांस्य प्रतिमाये साँचे में ढाली जाती थी। नालन्दा के मंदिर स्थल संख्या 13 से प्राप्त अवशेष धातु के गलाने और उसे साँचे में ढ़ालने के प्रमाण प्रस्तुत करते है। नालन्दा से प्राप्त नमूने देवपाल के समय के है जबकि कुक्रिहार से प्राप्त मुर्तियाँ बाद की है। लेकिन इनकी खास विशेषता यह है कि दोनों मूर्तियों का निर्माण एक ही शैली में हुआ है। इसके अतिरिक्त फतेहपुर, अंतिचक और इमादपुर आदि से भी कुछ मुर्तियाँ, कांसे के बने हुए स्तूपों के मॉडल और कुछ बर्त्तन प्राप्त हुए है।मूर्तियाँ अधिक मात्रा में मिली है जिसमें अधिकांश का संबंध बौद्ध धर्म से है। बुद्ध, बोधिसत्व, अवलोकितेश्वर, मंजूश्री, मैत्रेय, तारा, जमला और हथग्रीव को इन मूर्तियों में दर्शाया गया है। हिन्दू देवी-देवताओं में मुख्यतः सूर्य,विष्णु,बलराम,गणेश और उमा-महेश्वर की मुर्तियाँ मिली है।

पालकालीन पत्थर की मुर्तियाँ भी कलात्मक सुंदरता का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करती है। ये मूर्तियाँ काले बेसाल्ट पत्थर की बनी है। इन पत्थरों को संथालपरगना और कैमूर की पहाड़ियों से प्राप्त किया गया है। सामान्यतः इन मूर्तियों में शरीर के अगले भाग को दिखाने चेष्टा जान पड़ती है। कुछ ही ऐसी मूर्तियाँ मिली है जिसमें उतनी ही कुशलता से उनके पृष्ठ भाग को भी उत्कीर्ण किया गया है। पत्थर की मूर्तियाँ भी अधिकत्तर बुद्ध एवं उनके विभिन्न रूपों की है; यथा मजूश्री, अवलोकितेश्वर तथा बोधिसत्व आदि। इसमें बुद्ध के जीवन को जीवंत करने की कोशिश की गयी है; जैसे उनका जन्म, ज्ञानप्राप्ति, प्रथम धर्मोपदेश की प्रस्तुति एवं निर्वाण आदि इसके बाद विष्णु की मूर्तियाँ है। जैन धर्म एवं शैवमत से संबंधित भी कई मूर्तियाँ मिली है।सभी मूर्तियां अत्यंत सुंदर है और कला की परिपक्वता को दर्शाती है। अलंकार की अधिकता इन्हें और भी आकर्षक बनाती है।

भित्ति चित्र

पालकाल में सुंदर एवं कलात्मक भित्तिचित्र भी देखे जा सकते है।इनके कुछ अवशेष अंतिचक स्थित विक्रमशिला महाविहार से मिले है। ऐसी मूर्तियाँ दीवारों पर सजावट के लिये बनाई जाती थी। इन भित्तिचित्रों धार्मिक आस्था और सामान्य जन- जीवन को प्रमुखता प्राप्त हुई है। बुद्ध, बोधिसत्व, तारा आदि की प्रस्तुति बौद्ध धर्म और विष्णु, आदिवराह, अर्द्ध नारीश्वर, सुर्य और हनुमान की प्रस्तुति हिन्दू धर्म के प्रभाव को स्पष्ट करती है। कलात्मक सुंदरता की सर्वोत्कृष्ट उदाहरण एक तख्ती है, जिसपर एक स्त्री को बैठी हुई मुद्रा में दिखाया गया है। दाहिना पैर बाए पैर पर रखा है और शरीर झुक हुआ है।एक हाथ में आईना लिए वह अपने रूप को निहार रही है और दूसरे हाथ की उँगलियों से अपनी माँग में सिंदूर भर रही है। चेहरे की सुंदरता और भोलापन ,भरी हुई छातियाँ,पतली कमर उसके शारीरिक सौंदर्य पर ध्यान केंद्रित करने का सफल प्रयास दिखती है। उसके शरीर को आभूषणों से ढँककर और आकर्षक बना दिया गया है।

चित्रकला का एक अन्य रूप भित्तिचित्र के रूप नालंदा जिले में स्थित सराय टीले के उत्खनन से मिले है। नालंदा महाविहार के मुख्य अवशेषों में प्रवेश के लिए बनाये गए मार्ग के निकट स्थित इस टीले का पूर्ण उत्खनन अभी नही हुआ है। फिर भी यह  स्पष्ट होता है कि यहाँ ईंटों से बना एक आयताकार स्तूप रहा होगा। इस स्तूप के प्रतिमा पीठ पर ढेर सारी चित्रकारियां मिलती है। नालन्दा के भित्तिचित्रों के निर्माण की प्रेरणा अजन्ता और बाघ की गुफाओं से ली गयी है। चित्रों को बनाने से पुर्व सर्वप्रथम पाषाण प्रतिमा की पीठ पर चुने की परत चढ़ाई गयी है; फिर रंगों का प्रयोग किया गया है।रंगों के लिए लाल ,पीले, सफेद, काले एवं निले रंगों का प्रयोग किया गया है।इन चित्रों में प्रयुक्त रंग बहुत हल्के किन्तु बहुत उच्च कोटि के है। स्तूप के उत्तरी,दक्षिणी एवं पीछे की दीवारों के अंदरूनी हिस्से में भी फूलों के झालर एवं गुलाब की चित्रकारी की गयी है। फूलों की झालर सफेद पृष्ठभूमि पर काले रंग से बनाया गया है। ये चित्रकारियाँ फलक के ऊपरी हिस्से में की गयी है। कुछ चित्रों की पहचान खड़े हाथी की आकृति,नृत्यरत रमणी,आसन्न जम्भल एवं एक हाथ में दर्पण लिए घुटनों के बल बैठी हुई नारी के रूप में की गयी है। इन चित्रों में सर्वाधिक स्पष्ट चित्र खड़े हाथी का है,जो उत्तर से दक्षिण की ओर देखता चित्रित किया गया है। इसके चित्रण में बड़ी दक्षता और तन्मयता दिखाई पड़ती है। जम्भल धन के देवता कुबेर का बौद्ध संस्करण है। यहाँ से प्राप्त चित्र में बैठे हुए लम्बोदर जम्भल को नकुलक धारण किये हुए चित्रित किया गया है। नकुलक उसके हाथों पर रत्न उगलते हुए बनाया गया है। चित्र में जम्भल के निकट एक नारी को हाथ में दर्पण लिए बैठी हुई अवस्था में दिखाया गया है। इसी फलक में दक्षिण से उत्तर की ओर देखता हुआ एक पुरुष आकृति भी है। एक दूसरी विशिष्ट कृति बुद्ध प्रतिमा के पाद पीठ पर अंकित की गयी है जिसमे सरपट दौड़ते हुए घोड़े को दिखाया गया है तथा तीन पक्तियां उत्कीर्ण की गयी है।

स्थापत्य कला 

स्थापत्य कला के क्षेत्र में पाल शासकों की निर्णायक भूमिका रही है।इसके साक्ष्य नालन्दा, विक्रमशीला और ओदंतपुरी के महाविहार है। नालन्दा में विभिन्न युगों में बने महाविहार स्तूप और मंदिर देखे जा सकते है। भिक्षुओं को रहने के लिए आवास एक निशिचत योजना के आधार पर बने हुये है जिसमें खुले आँगन के चारो ओर बरामदे है। इनके पीछे कमरे है जहां भिक्षु रहा करते थे। इमारतें दो मंजिला थी और इनमे सीढ़ियों की व्यवस्था थी।अंतिचक के स्थान से प्राप्त विक्रमशिला महाविहार के अवशेष पालकालीन स्थापत्य की विशिष्टता को और भी स्पष्ट करते है।यहां से एक। मंदिर और एक स्तूप के अवशेष मिले है। दोनों ही ईंट के बने हुए है। इनमें पत्थर और मिट्टी की बनी गौतम बुद्ध की विशाल मूर्तियां है। दीवारों केबाहरी हिस्से पर मिट्टी की तख्तियों से सजावट किया गया है। इनपर बौद्ध धर्म और वैष्णव धर्म दोनों का ही प्रभाव है। सामान्य जीवन के दृश्य भी उकेरे गए है।

चित्रकला 

पालकालीन चित्रकला के अध्ययन के लिये कुछ पांडुलिपियां उपलब्ध है जिनमे तालपत्रों पर चित्रकारियाँ की गयी है।इसके अतिरीक्त लघुचित्र और भित्तिचित्र के नमूने भी पाये गए है। महेन्द्रपाल और रामपाल के शासनकाल में बौद्धग्रंथ प्रज्ञापरमिता के जो संस्करण तैयार हुए थे उनमें भी ऐसी ही चित्रकारीयां की। गयी थी। इसके अतिरिक्त अष्टसहसत्रिका, प्रज्ञापरमिता तथा पंचरक्षा में इसीप्रकार की चित्र लिपियाँ मिलती है। इन चित्रलिपियों पर तांत्रिक प्रभाव अधिक दृष्टिगोचर होता है। साथ ही इसमें बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं,महायान सम्प्रदाय के देवी देवताओं तथा जातक कथाओं पर आधारित दृश्यों का चित्रण मिलता है। इन्हें बनाने के लिए उच्च कोटि के तालपत्र पर प्राथमिक रंगों का व्यवहार किया गया है।तत्पश्चात उन पर हरे भूरे, हल्के गुलाबी और बैगनी रंगों से चित्रकारी की गयी। नालन्दा से प्राप्त इन पांडुलिपियों के चित्रकारियों की विशिष्टता उनका उत्कृष्ट स्नायविक रेखांकन,इंदृयासक्त लालित्य एवं रैखिक अलंकृत शैली है। इन पर अजंता की  शास्त्रीय चित्रकला  एवं पूर्वी भारतीय इंद्रियासक्त भाव का प्रभाव है। इनकी नाक नुकीली तथा आँखें दोहरी वक्राकार है जिसमें स्नायविक तनाव दृष्टिगोचर होता है।

अन्य भारतीय कला केंद्रों की भाँति वनस्पतियों एवं जंतुओं के भाव नालन्दा की चित्रकला में भी दृष्टव्य है।कमलपुष्प के विविध रूपों से मंदिर का अधिकांश भाग अलंकृत किया गया है। अलंकरण का भाव लताओं,पत्रों तथा कुछ ज्यामितीय आकृतियों से इसप्रकार लिया गया है कि एक लयात्मक संतुलन बना रहे। भित्तिचित्रों की महिला पत्रों को चुस्त अंगिया पहने हुए दिखाया गया है। साथ ही दुपट्टा इसप्रकार रखा गया है कि स्तन पूर्णतः ढँक जाय। इन भित्तिचित्रों में अजंता की तरह विविध परिधान दिखाई नहीं पड़ते। प्रायः इन चित्रों में पुरुषों और नारियों दोनो को बाली,हार,चूड़ियाँ और बाजूबंद पहने दिखाया गया है।