Wednesday 31 January 2018

आजाद हिन्द फौज/Indian National Army (INA)


आजाद हिन्द फौज या Indian National Army (INA) की स्थापना का विचार सर्वप्रथम मोहन सिंह के मन में मलाया में आया। मोहन सिंह, ब्रिटिश सेना में एक भारतीय सैन्य अधिकारी थे किंतु कालांतर में उन्होंने साम्राज्यवादी ब्रिटिश सेना में सेवा करने के स्थान पर जापानी सेना की सहायता से अंग्रेजों को भारत से निष्कासित करने का निश्चय किया।

आजाद हिन्द फौज के गठन के चरण


प्रथम चरण
जापानी सेना ने जब भारतीय युद्ध बंदियों को मोहन सिंह को सौंपना प्रारंभ कर दिया तो वे उन्हें आजाद हिन्द फौज में भर्ती करने लगे। सिंगापुर के जापानियों के हाथ में आने के पश्चात मोहन सिंह को 45 हजार युद्धबंदी प्राप्त हुये। यह घटना अत्यंत महत्वपूर्ण थी। 1942 के अंत तक इनमें से 40 हजार लोग आजाद हिंद फौज में सम्मिलित होने को राजी हो गये। आजाद हिंद फौज के अधिकारियों ने निश्चय किया कि वे कांग्रेस एवं भारतीयों द्वारा आमंत्रित किये जाने के पश्चात ही कार्रवाई करेंगे। बहुत से लोगों का यह भी मानना था कि आजाद हिंद फौज के कारण जापान, दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीयों से दुर्व्यवहार नहीं करेगा या भारत पर अधिकार करने के बारे में नहीं सोचेगा।
भारत छोड़ो आंदोलन ने आजाद हिंद फौज को एक नयी ताकत प्रदान की। मलाया में ब्रिटेन के विरुद्ध तीव्र प्रदर्शन किये गये। 1 सितम्बर 1942 को 16,300 सैनिकों को लेकर आजाद हिन्द फौज की पहली डिवीजन का गठन किया गया। इस समय तक जापान यह योजना बनाने लगा था कि भारत पर आक्रमण किया जाये। भारतीय सैनिकों के संगठित होने से जापान अपनी योजना को मूर्तरूप देने हेतु उत्साहित हो गया। किंतु दिसम्बर 1942 तक आते-आते आजाद हिन्द फौज की भूमिका के प्रश्न पर मोहन सिंह एवं अन्य भारतीय सैन्य अधिकारियों तथा जापानी अधिकारियों के बीच तीव्र मतभेद पैदा हो गये। दरअसल जापानी अधिकारियों की मंशा थी कि भारतीय सेना प्रतीकात्मक हो तथा उसकी संख्या 2 हजार तक सिमित रखी जाए किन्तु मोहन सिंह का उद्देश्य 2 लाख सैनिकों की फौज तैयार करने का था।

द्वितीय चरण
आजाद हिंद फौज का द्वितीय चरण 2 जुलाई 1943 को सुभाषचंद्र बोस के सिंगापुर पहुँचने पर प्रारंभ हुआ। इससे पहले गांधीजी से मतभेद होने के कारण सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था तथा 1940 में फारवर्ड ब्लाक के नाम से एक नये दल का गठन कर लिया था। मार्च 1941 में वे भारत से भाग निकले, जहाँ उन्हें नजरबंद बनाकर रखा गया था। भारत से पलायन के पश्चात उन्होंने रूसी नेताओं से मुलाकात कर ब्रिटेन के विरुद्ध सहायता देने की माँग की। जब जून 1941 में सोवियत संघ भी मित्र राष्ट्रों की ओर युद्ध में सम्मिलित हो गया तो सुभाषचंद्र बोस जर्मनी चले गये। तत्पश्चात वहां से फरवरी 1943 में वे जापान पहुंचे। उन्होंने जापान से ब्रिटेन के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ की मांग की। जुलाई 1943 में सुभाषचंद्र बोस सिंगापुर पहुँचे, जहाँ रासबिहारी बोस एवं अन्य लोगों ने उनकी मदद की। यहाँ दक्षिण-पूर्व एशिया में निवास करने वाले भारतीयों तथा बर्मा, मलाया एवं सिंगापुर के भारतीय युद्धबंदियों ने उन्हें महत्वपूर्ण सहायता पहुँचायी। अक्टूबर 1943 में उन्होंने सिंगापुर में अस्थायी भारतीय सरकार का गठन किया। सिंगापुर के अतिरिक्त रंगून में भी इसका मुख्यालय बनाया गया। धुरी राष्ट्रों ने इस सरकार को मान्यता प्रदान कर दी। सैनिकों को गहन प्रशिक्षण दिया गया तथा फौज के लिये धन एकत्रित किया गया। नागरिकों को भी सेना में भारतीय किया गया। स्त्री सैनिकों का भी एक दल बनाया गया तथा उसे रानी झांसी रेजीमेंट नाम दिया गया। जुलाई 1944 में सुभाषचंद्र बोस ने गांधी जी से भारत की स्वाधीनता के अंतिम युद्ध के लिये आशीर्वाद मांगा।
शाह नवाज के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज की एक बटालियन जापानी फौज के साथ भारत-बर्मा सीमा पर हमले में भाग लेने के लिये इम्फाल भेजी गयी। किंतु यहां भारतीय सैनिकों से दुर्व्यवहार किया गया। उन्हें न केवल रसद एवं हथियारों से वंचित रखा गया अपितु जापानी सैनिकों के निम्न स्तरीय काम करने के लिये भी बाध्य किया गया। इससे भारतीय सैनिकों का मनोबल टूट गया। इम्फाल अभियान की विफलता तथा जापानी सैनिकों के पीछे लौटने से इस बात की उम्मीद समाप्त हो गयी कि आजाद हिंद फौज भारत को स्वाधीनता दिला सकती है। जापान के द्वितीय विश्व युद्ध में आत्मसर्पण करने के पश्चात जब आजाद हिंद फौज के सैनिकों को युद्ध बंदी के रूप में भारत लाया गया तथा उन्हें कठोर दंड देने का प्रयास किया गया तो भारत में उनके बचाव में एक सशक्त जनआंदोलन प्रारंभ हो गया।

विश्व युद्ध के पश्चात राष्ट्रीय विप्लव-
जून 1945 से फरवरी 1946 ब्रिटिश शासन के अंतिम दो वर्षों में राष्ट्रीय विप्लव के संबंध में दो आधारभूत कारकों का विश्लेषण किया जा सकता है-
इस दौरान सरकार, कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग तीनों ही कुटिल समझौते करने में संलग्न रहे। इससे साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा मिला, जिसकी चरम परिणति स्वतंत्रता एवं देश के विभाजन के रूप में सामने आयी।

श्रमिकों, किसानों एवं राज्य के लोगों द्वारा असंगठित, स्थानीय एवं उग्रवादी जन प्रदर्शन। इसने राष्ट्रव्यापी स्वरूप धारण कर लिया। इस तरह की गतिविधियों में- आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों को रिहा करने से संबंधित आन्दोलन, नौसेना के नाविकों का विद्रोह, पंजाब किसान मोर्चा का आन्दोलन, ट्रावनकोर के लोगों का संघर्ष तथा तथा तेलंगाना आंदोलन प्रमुख है।

जब सरकार ने जून 1945 में कांग्रेस से प्रतिबंध हटाकर उसके नेताओं की रिहा किया तो उसे उम्मीद थी कि इसे जनता हतोत्साहित होगी। लेकिन इसके स्थान पर भारतियों का उत्साह दोगुना हो गया। तीन वर्षों के दमन से जनता में सरकार के विरुद्ध तीव्र रोष का संचार हो चुका था। राष्ट्रवादी नेताओं की रिहार्यी से जनता की उम्मीदें और बढ़ गयीं। रूढ़िवादी सरकार के समय की वैवेल योजना, मौजूदा संवैधानिक संकट को हल करने में विफल रही।

जुलाई 1945 में, ब्रिटेन में श्रमिक दल सत्ता में आया। क्लीमेंट एटली ने ब्रिटेन के नये प्रधानमंत्री का पदभार संभाला तथा पैथिक लारेंस नये भारत सचिव बने।
अगस्त 1945 में, केंद्रीय एवं प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं के लिये चुनावों की घोषणा की गयी।
सितम्बर 1945 में, सरकार ने घोषणा की कि युद्ध के उपरांत एक संविधान सभा गठित की जायेगी।

सरकार के दृष्टिकोण में परिवर्तन के कारण
  • युद्ध की समाप्ति के पश्चात विश्व-शक्ति-संतुलन परिवर्तित हो गया- ब्रिटेन अब महाशक्ति नहीं रहा तथा अमेरिका एवं सोवियत संघ विश्व की दो महान शक्तियों के रूप में उभरे। इन दोनों ने भारत की स्वतंत्रता का समर्थन किया।
  • ब्रिटेन की नयी लेबर सरकार, भारतीय मांगों के प्रति ज्यादा सहानुभूति रखती थी।
  • संपूर्ण यूरोप में इस समय समाजवादी-लोकतांत्रिक सरकारों के गठन की लहर चल रही थी।
  • ब्रिटिश सैनिक हतोत्साहित एवं थक चुके थे तथा ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गयी थी।
  • दक्षिण-पूर्व एशिया- विशेषकर वियतनाम एवं इंडोनेशिया में इस समय साम्राज्यवाद-विरोधी वातावरण था। यहाँ उपनिवेशी शासन का तीव्र विरोध किया जा रहा था।
  • अंग्रेज अधिकारियों को भय था कि कांग्रेस पुनः नया आंदोलन प्रारंभ करके 1942 के आंदोलन की पुनरावृति कर सकती है। सरकार का मानना था कि यह आंदोलन 1942 के आंदोलन से ज्यादा भयंकर हो सकता है क्योंकि इसमें कृषक असंतोष, संचार-व्यवस्था पर प्रहार, मजदूरों की दुर्दशा, सरकारी सेवाओं से असंतुष्ट तथा आजाद हिन्द फौज के सैनिकों इत्यादि जैसे कारकों का गठजोड़ बन सकता है। सरकार इस बात से भी चिंतित थी कि आजाद हिंद फौज के सैनिकों का अनुभव, सरकार के विरुद्ध हमले में प्रयुक्त किया जा सकता है।
  • युद्ध के समाप्त होते ही भारत में चुनावों का आयोजन तय था क्योंकि 1934 में केंद्र के लिये एवं 1937 में प्रांतों के लिये जो चुनाव हुये थे उसके पश्चात दुबारा चुनावों का आयोजन नहीं किया गया था।
  • यद्यपि ब्रिटेन भारतीय उपनिवेश की खोना नहीं चाहता था लेकिन उसकी सत्तारूढ़ लेबर सरकार समस्या के शीघ्र समाधान के पक्ष में थी।

कांग्रेस का चुनाव अभियान एवं आजाद हिंद फौज पर मुकदमा
1946 में सर्दियों में चुनावों के आयोजन की घोषणा की गयी। इन चुनावों में अभियान के समय राष्ट्रवादी नेताओं के समक्ष यह उद्देश्य था कि वे न केवल वोट पाने का प्रयास करें अपितु लोगों में ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को और सशक्त बनायें।
चुनाव अभियान में राष्ट्रवादियों ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सरकार की दमनकारी नीतियों की खुलकर आलोचना की। कांग्रेसी नेताओं ने शहीदों की देशभक्ति एवं त्याग की प्रशंसा तथा सरकार की आलोचना करके भारतीयों में देश प्रेम की भावना को संचारित करने का प्रयत्न किया। कांग्रेस के नेताओं ने 1942 के आंदोलन में नेतृत्वविहीन जनता के साहसी प्रतिरोध की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। अनेक स्थानों पर शहीद स्मारक बनाये गये तथा पीड़ितों को सहायता पहुंचाने के लिये धन एकत्रित किया गया। सरकारी दमन की कहानियों को विस्तार से जनता के मध्य सुनाया जाता था, दमनकारी नीतियाँ अपनाने वाले की धमकी दी जाती थी।
किंतु सरकार इन गतिविधियों में रोक लगाने में असफल रही। राष्ट्रवादियों के इन कार्यों से जनता सरकार से और भयमुक्त हो गयी। उन सभी प्रांतों में कांग्रेस की सरकार की स्थापना लगभग सुनिश्चित हो गयी, जहाँ सरकारी, दमन ज्यादा बर्बर था। इन कारणों से सरकार परेशान हो गयी। अब सरकार कांग्रेस के साथ कोई ‘सम्मानजनक समझौता’ करने हेतु मजबूर सी दिखने लगी।
सरकार द्वारा आजाद हिंद फौज के सैनिकों पर मुकदमा चलाये जाने के निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में जितनी तीव्र प्रतिक्रिया हुयी उसकी कल्पना न तो कांग्रेसी नेताओं को और न ही सरकार की थी। पूरा देश इन सैनिकों के बचाव में आगे आ गया। इससे पहले सरकार ने यह यह निर्णय लिया था कि इन सैनिकों पर मुकदमा चलाया जायेगा। कांग्रेस ने सैनिकों के बचाव हेतु आजाद हिंद फौज बचाव समिति का गठन किया। सैनिकों को आर्थिक सहायता देने तथा उनके लिये रोजगार की व्यवस्था करने हेतु आजाद हिंदू फौज राहत तथा जाँच समिति भी बनायी गयी।
आजाद हिंद फौज का मानसिक प्रभाव अत्यंत प्रबल था और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण था, आजाद हिंद फौज के बंदी बनाये गये सैनिकों की रिहाई के पक्ष में जन और नेतृत्व-स्तर पर राष्ट्रीय आंदोलन। इस संदर्भ में दो साम्राज्यवादी नीतियों का सशक्त प्रभाव पड़ा। एक, तो पहले ही सरकार ने आजाद हिन्द फौज के कैदियों पर सार्वजनिक मुकदमा चलाने का निर्णय लिया, तथा दूसरा, मुकदमा नवंबर में लाल किले में एक हिन्दू (प्रेम कुमार सहगल), एक मुसलमान (शाहनवाज खान) तथा एक सिख (गुरुबख्श सिंह ढिल्लो) को एक ही कटघरे में खड़ा करके चलाया गया। बचाव पक्ष में भूलाभाई देसाई और तेजबहादुर सप्रू के साथ नेहरू भी थे। काटजू एवं आसफ अली उनके सहायक थे।
इसके अतिरिक्त वियतनाम एवं इंडोनेशिया में भी उपनिवेशी शासन की स्थापना हेतु भारतीय सेना की टुकड़ियों का प्रयोग किये जाने से ब्रिटिश विरोधी भावनायें पुख्ता हुयीं। इससे शहरी वर्ग एवं सैनिकों दोनों में असंतोष जागा।