1857 की क्रांति का प्रारंभ 10 मई को मेरठ से हुआ था। वहाँ की तीसरी कैवलरी रेजीमेंट के सैनिकों ने चर्बीयुक्त कारतूसों को छूने से इंकार कर दिया खुलेआम बगावत कर दी गई। अपने अधिकारियों पर गोली चलाई और अपने साथियों को मुक्त करवा कर वे लोग दिल्ली की ओर चल पड़े। जनरल हीवेट के पास 2200 यूरोपी सैनिक थे परंतु उसने इस तूफान को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।
विद्रोहियों ने 12 मई 1857 को दिल्ली पर अधिकार कर लिया लेफ्टिनेंट विलोबी ने जो दिल्ली के शस्त्रागार का कार्यवाहक था कुछ प्रतिरोध किया, लेकिन वह भी पराजित हो गया। मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय को भारत का सम्राट घोषित किया गया। दिल्ली में विद्रोह की सफलता ने उत्तर और मध्य भारत के कई भागों में सनसनी फैला दी और अवध, रुहेलखंड, पश्चिम बिहार तथा उत्तर-पश्चिम प्रांतों के अन्य नगरों में भी विद्रोह फैल गया।
1857 की क्रांति का प्रमुख कारण ब्रिटिश सम्राज्य की घिनौनी नीतियां थी, जिन से तंग आकर अंततः विद्रोह का ज्वालामुखी फट पड़ा। एंग्लो इंडियन इतिहासकारों ने सैनिक असंतोष व चर्बीयुक्त कारतूसों को 1857 के महान विद्रोह का सबसे मुख्य तथा महत्वपूर्ण कारण बताया है, लेकिन आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि चर्बी वाले कारतूस ही इस विद्रोह के एकमात्र कारण अथवा सबसे प्रमुख कारण नहीं थे। विद्रोह के कारण अधिक गहन थे और वह सब जून 1757 के प्लासी के युद्ध से 29 मार्च 1857 को मंगल पांडे द्वारा अंग्रेज एजुडेंट की हत्या तक के अंग्रेजी प्रशासन के सौ वर्ष के इतिहास में निहित है। चर्बी वाले कारतूस और सैनिकों का विद्रोह तो केवल एक चिंगारी थी, जिसने उन समस्त विस्फोटक पदार्थों में जो राजनैतिक सामाजिक धार्मिक और आर्थिक कारणों से एकत्रित हुए थे आग लगा दी और जिसने दावानल का रूप धारण कर लिया।
सुबह तड़के 11 मई 1857 दिल्ली में मेरठ से आए सिपाहियों के दस्ते ने मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय से अपील की कि सम्राट इन सिपाहियों का नेतृत्व स्वीकार करें । इस प्रकार सैनिकों का दिल्ली के लाल किले पर पहुंचना पहली घटना थी । कानपुर में नाना साहब ने 5 जून 1857 को विद्रोह किया। बेगम हजरत महल ने 4 जून 1857 को प्रारंभ अवध के विद्रोह का नेतृत्व किया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने जून 1857 में विद्रोह किया तथा वह 17 जून 1858 को शहीद हो गई।
1857 के स्वाधीनता संग्राम का प्रतीक कमल और रोटी था इतिहासकारों तथा लेखकों के एक वर्ग का दावा है कि या विद्रोह एक व्यापक तथा सुसंगठित संयंत्र का परिणाम था। इसके सबूत में वह चपातियों तथा लाल कमल के फूलों के गांव गांव पहुंचने की घटनाओं तथा घुमक्कड़ सन्यासियों फकीरों तथा मदारियों के प्रचार का उल्लेख करते हैं। कैप्टन निकालसन के नेतृत्व में 3 महीने की घेराबंदी के पश्चात 20 सितंबर 1857 को अंग्रेजों द्वारा दिल्ली की पुनर्प्राप्ति कर ली गई।
1857 का विद्रोह बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था और इसे जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त था फिर भी पूरे देश को या भारतीय समाज के सभी अंगों तथा वर्गों को या अपनी लपेट में नहीं ले सका या दक्षिणी भारत तथा पूर्वी और पश्चिमी भारत के अधिकांश भागों में नहीं फैल सका । भारतीय रजवाड़ों के अधिकांश शासक व बड़े जमीदार पक्के स्वार्थी तथा अंग्रेजों के शक्ति से भयभीत थे और वह विद्रोह में शामिल नहीं हुए।
ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होलकर, हैदराबाद के निजाम जोधपुर के राजा, भोपाल के नवाब, पटियाला नाभा और जींद के सिख शासक एवं पंजाब के दूसरे सिख सरदार, कश्मीर के महाराजा तथा दूसरे अनेक सरदार और बड़े जमीदारों ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की सक्रिय सहायता की ।
गवर्नर जनरल कैनिंग ने बाद में टिपण्णी की इन शासको द्वारा सरदारों ने तूफान के आगे बांध का काम किया वरना यह तूफान एक ही लहर में हमें बाहर ले जाता उच्च तथा मध्य वर्गों के अधिकांश लोग विद्रोहियों के आलोचक थे। विद्रोह में शामिल अवध के कई तालुकदार अंग्रेजों से यह आश्वासन पाकर की उन की जागीरें वापस कर दी जाएंगी विद्रोह से किनारा कर चुके थे। ग्रामीण जनता के हमलों का निशाना सूदखोर साहूकार थे। इसलिए वह स्वाभाविक तौर पर विद्रोह के शत्रु हो गए। आधुनिक शिक्षा प्राप्त भारतीयों ने भी विद्रोह का साथ नहीं दिया। शिक्षित भारतीय देश का पिछड़ापन समाप्त करना चाहते थे उनके मन में या गलत विश्वास भरा था कि अंग्रेज आधुनिकीकरण से यह काम पूरा करने में उनकी सहायता करेंगे।
1857 के विद्रोह की असफलता का मुख्य कारण किसी सामान्य योजना एवं केंद्रीय संगठन की कमी था। विद्रोहियों के नेताओं में कोई संगठन की भावना देखने में नहीं आई । 82 वर्ष के मुगल सम्राट बहादुरशाह कमजोर थे उसके द्वारा विभिन्न सरदारों का आवाहन करना काफी नहीं था। साथ ही विद्रोहियों ने वीरता तो दिखाई और सरकार का विनाश करने पर तुले हुए भी प्रतीत होते थे किंतु ऐसा करने के लिए उनके पास किसी सुनियोजित कार्यक्रम का पूर्ण अभाव था। उन में अनुशासन की कमी भी थी। कभी-कभी तो वह अनुशासित सेना के बजाए दंगाई भीड़ की तरह व्यवहार करते थे । विदेशी शासन के प्रति एक मात्र घ्रणा को छोड़कर और कोई संबंध सूत्र नेताओं के बीच नहीं था । किसी क्षेत्र विशेष से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद उन्हें पता भी नहीं होता था कि उसकी जगह किस प्रकार की राजनीतिक सत्ता या संस्थाएं संस्थापित की जाएं? उनके पास एक भविष्य उन्मुख कार्यक्रम, सुसंगत विचारधारा, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य या भावी समाज और अर्थव्यवस्था के प्रति एक स्पष्ट दृष्टि कोण का आभाव था।
सर जेम्स आउटम एवं डब्ल्यू टेलर ने 1857 के विद्रोह को हिंदू मुस्लिम षड्यंत्र का परिणाम बताया है । अउटरम का विचार था कि यह मुस्लिम षड्यंत्र था जिस में हिंदू शिकायतों का लाभ उठाया गया। जॉन लॉरेंस और सीले के अनुसार यह केवल सैनिक विद्रोह था। जॉन सीले के अनुसार 1857 का विद्रोह एक पूर्णता देशभक्ति रहित और स्वार्थी सैनिक विद्रोह था जिसमें न कोई स्थानीय नेतृत्व था और न ही इसे सर्वसाधारण का समर्थन प्राप्त था, उसके अनुसार यह एक संस्थापित सरकार के विरुद्ध भारतीय सेना का विद्रोह था।टी0आर0 होम्स के अनुसार यह बर्बरता और सभ्यता के बीच का युद्ध था।
1857 की क्रांति के दमन के पश्चात 1 नवंबर 1858 को महारानी विक्टोरिया ने भारतीय प्रशासन को ब्रिटिश ताज के नियंत्रण में लेने की घोषणा की। इस घोषणा के बाद भारत में कंपनी के शासन को समाप्त कर भारत को सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दिया गया। एक भारत मंत्री/ सचिव तथा 15 सदस्यों वाली इंडियन काउंसिल की स्थापना की । तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को ही भारत का प्रथम वायसराय नियुक्त किया गया । भारत सरकार द्वारा आर सी मजूमदार को 1857 के विद्रोह का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया गया था, परंतु सरकारी समिति से अनबन होने के कारण उन्होंने यह कार्य करने से इंकार कर दिया और अपनी पुस्तक the sepoy mutiny and the rebellion of 1857 को स्वतंत्र रुप से 1957 ईस्वी में प्रकाशित किया। मजूमदार ने ही 18 57 के विद्रोह को तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम ना राष्ट्रीय और ना ही स्वतंत्रता संग्राम था कहा था।
आइये अब जानते हैं कि विद्रोह के बाद सरकारी रवैय्या कैसा था?
1857 के विद्रोह ने अंग्रेजों को प्रेरणा दी यदि भविष्य में ऐसे विद्रोह से बचना है तो उन्हें अपनी प्रशासनिक नीतियों का पुनर्गठन करना होगा। विद्रोह के बाद धीरे-धीरे यूरोप के अन्य देशों में अमेरिका और जापान में भी औद्योगिकीकरण शुरू हो चुका था। परिणाम यह हुआ कि अब बाजार, कच्चे माल के स्रोत, और विदेशी पूंजी निवेश अवसर ढूंढने के लिए दुनियाभर में तेज प्रतियोगिता शुरु हो गई।
1850 के बाद ब्रिटिश लोगों की रेलवे और भारत सरकार को दिए गए कर्जे के रूप में बहुत अधिक पूंजी यहां लगी हुई थी। कुछ चाय के बागान, कोयला खदान, जूटमिल, जहाजरानी, व्यापार और बैंकिंग में भी लगी हुई थी।
अपनी पूंजी को सुरक्षित रखने के लिए भारत पर अपने नियंत्रण को मजबूत रखना उनके लिए जरूरी हो गया था। लिटन, डफरिन, लैंसडाउन, एल्गिन और सबसे बढ़कर कर्जन जब वायस राय थे के समय में इन नीतियों की सख्ती आसानी से देखी जा सकती है।
प्रशासन
1858 में ब्रिटिश संसद ने एक कानून पारित किया जिसके अंतर्गत शासन का अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर ब्रिटिश सम्राट को दे दिया गया। अभी तक यहां सत्ता कंपनी के डायरेक्टर और बोर्ड ऑफ कंट्रोल के हाथ हुआ करती थी, लेकिन अब ब्रिटिश सरकार का एक मंत्री जिसे भारत मंत्री या सेक्रेटरी ऑफ स्टेट कहा जाता था, को शासन चलाना था उसकी सहायता के लिए एक काउंसिल भी नियुक्त कर दी गई थी। यह भारत सचिव, ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य होता था और संसद के प्रति उत्तरदाई होता था। भारत में शासन पहले की तरह गवर्नर जनरल को ही चलाना था लेकिन अब उसका नाम वायसराय कर दिया गया। वायसराय अर्थात सम्राट के व्यक्तिगत प्रतिनिधि। प्रशासन के छोटे-छोटे मामलों पर भी भारत सचिव का ही नियंत्रण हुआ करता था। ब्रिटिश उद्योगपतियों, व्यापारियों और बैंकरों का भारत सरकार पर प्रभाव अब बढ़ चुका था क्योंकि यह लोग ब्रिटेन में प्रभावशाली हुआ करते थे। इस 1858 के कानून में यह व्यवस्था की गई थी कि गवर्नर जनरल के साथ एग्जिक्यूटिव काउंसिल यानी कार्यकारी परिषद होगी इसके सदस्य अपने अपने विभागों के मुखिया होंगे और यह गवर्नर जनरल के अधिकारीक सलाहकार भी होंगे। काउंसिल सारे महत्वपूर्ण विषय पर बहुमत के द्वारा निर्णय लिया करती थी और गवर्नर जनरल को काउंसिल के किसी भी फैसले को रद्द करने का अधिकार भी हुआ करता था।
1861 के इंडियन काउंसिल एक्ट में गवर्नर जनरल को अर्थात उसकी काउंसिल को कानून बनाने की नियत से और ज्यादा बड़ा बना दिया गया, अब उसे इंपीरियल लेजिस्लेटिव कॉउंसिल नाम दे दिया गया। गवर्नर जनरल अपनी एग्जिक्यूटिव काउंसिल में 6 से 12 सदस्य तक बढ़ा सकता था, लेकिन इनमें कम से कम आधे सदस्य गैर अधिकारी अवश्य होने चाहिए, ये भारतीय भी हो सकते थे और अंग्रेज भी। इंपीरियल लेजिस्लेटिव कॉउंसिल को कोई वास्तविक अधिकार प्राप्त नहीं था। यह मात्र एक सलाहकार समिति हुआ करती थी जो सरकार की पूर्व अनुमति के बिना किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर विचार नहीं कर सकती थी। वित्तीय मामलों जैसे बजट पर तो बिल्कुल भी उसका नियंत्रण नहीं था। प्रशासन के कामों पर विचार नहीं कर सकती थी और न ही इसके सदस्य उनके बारे में कोई सवाल कर सकते थे। कोई भी विधेयक गवर्नर जनरल के अनुमोदन के बाद कानून बनता था। भारत सचिव इनके द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को रद्द भी कर सकता था।
भारतीय दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करने के लिए कुछ गैर अधिकारी भारतीय सदस्य भी काउंसिल में शामिल कर लिए गए थे। लेकिन लेजिस्लेटिव कॉउंसिल में भारतीय सदस्यों की संख्या बहुत कम थी और वह भारतीय जनता द्वारा चुने हुए नहीं होते थे बल्कि गवर्नर जनरल द्वारा नामजद किए जाते थे और अक्सर राजा महाराजा और उनके मंत्री, बड़े जमीदार, बड़े व्यापारी या सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी ही इसका लाभ ले पाते थे ।
1861 में संसद में इंडियन काउंसिल बिल यानी यही बिल पेश करते हुए भारत सचिव चार्ल्स वुड ने कहा था कि सारे अनुभव हमें यही बताते हैं कि एक विजेता जाति दूसरी जाति पर शासन करती है तो एक निरंकुश सरकार ही शासन का सबसे नरम रूप हो सकती है।
प्रांतीय प्रशासन
शासन की सुविधा के लिए अंग्रेजों ने भारत को प्रांतो में बांट रखा था। जिनमें बंगाल, मद्रास और बंबई प्रांतों को प्रेसिडेंसी कहा जाता था। इन प्रेसिडेंसीओ का शासन एक गवर्नर अपनी 3 सदस्यों वाली काउंसिल की सहायता से चलाता था। उसकी नियुक्ति सम्राट करता था। प्रेसिडेंसीयों की सरकारों को दूसरी प्रांतीय सरकारों के मुकाबले अधिक अधिकार और शक्तियां प्राप्त हुआ करती थी। इन दूसरे प्रांतो का शासन गवर्नर जनरल के द्वारा नियुक्त किया गये लेफ्टिनेंट गवर्नर तथा चीफ कमिश्नर चलाते थे।
1833 के पहले तो प्रांतीय सरकारों को काफी हद तक स्वायत्तता प्राप्ति थी, लेकिन 1833 में उनसे कानून बनाने के अधिकार वापस ले लिए गए थे और उनके व्यय पर केंद्रीय नियंत्रण लगा दिया गया था। अनेक स्रोतों से राजस्व जमा होता था, जमा होकर केंद्र में पहुंचता था और तब केंद्र उसे प्रांतीय सरकारों में बांटता था। प्रांतों की छोटी-छोटी बातों पर भी केंद्र का नियंत्रण हुआ करता था। यह प्रणाली व्यवहार में बर्बादी का कारण बनी। दूसरी बात प्रांतीय सरकारों के लिए राजस्व के संग्रह पर निगरानी रखना और उनके खर्चे पर नियंत्रण रखना केंद्रीय सरकार के लिए संभव ही नहीं था, इसलिए अधिकारियों ने सार्वजनिक विकेंद्रीकरण करने का फैसला ले लिया।
1870 में लॉर्ड मेयो ने पुलिस, जेल, शिक्षा, चिकित्सा, सेवा और सड़क जैसी सेवाओं और सड़कों जैसी कुछ सेवाओ के प्रशासन के लिए प्रांतीय सरकारों को निर्धारित रकम देना शुरू किया और उनको इस धन का अपनी इच्छा अनुसार उपयोग करने को कहा जाता था।
1877 में इस योजना को लॉर्ड लिटन ने और आगे फैलाया उसने प्रांतीय सरकारों को भू राजस्व, उत्पादन शुल्क, सामान्य प्रशासन और कानून तथा न्याय व्यवस्था जैसी कुछ सेवाएं भी शौप दी। इसके साथ-साथ व्यय का भार उठाने के लिए राज्य सरकारों को उस प्रांत से स्टाम्प, उत्पादन कर तथा आयकर जैसे कुछ स्रोत से प्राप्त हुई आय का एक निश्चित भाग दिया जाने लगा।
1882 में निर्धारित धन देने की उक्त प्रणाली भी खत्म कर दी गई। किसी प्रांत को कुछ स्त्रोतों से प्राप्त पूरी आय देने दी और साथ ही अन्य स्रोतों से प्राप्त आय का एक निश्चित भाग दिये जाने का निश्चय किया गया। इस तरह राजस्व के सारे स्रोतों से प्राप्त आय का एक निश्चित भाग दिया जाएगा। अब इन श्रोतो को तीन भागों में बांट दिया गया। सामान्य, प्रांतीय तथा वे जिनसे प्राप्त आय केंद्र और प्रांतों के मध्य बाटी जानी थी। हालांकि यह सब कार्यवाही करने का उद्देश्य यह था कि प्रशासकीय पुनर्गठन के तहत व्यय कम किया जा सके और आय बढ़ जाए।
यह यह ध्यान रखना चाहिए कि अभी तक केंद्रीय व प्रांतीय, दोनों ही सरकारे पूरी तरह भारत सचिव (ब्रिटिश सरकार) के अधीन थी।
स्थानीय संस्थाएं
वित्त से सम्बंधित उक्त कठिनाइयों को और कम करने के लिए सरकार ने प्रशासन का और अधिक विकेंद्रीकरण कर दिया। जैसे नगरपालिका और जिला परिषदों के द्वारा स्थानीय शासन को प्रोत्साहित करने का मन बनाया। यहां पर कहना चाहूंगा कि यूरोप के साथ भारत के संपर्क बढ़ रहे थे। साम्राज्यवाद और आर्थिक शोषण की नई विधियां सामने आ रही थी। ऐसे में अर्थव्यवस्था, सफाई व्यवस्था, और शिक्षा के क्षेत्र में यूरोप में जो प्रगति हो रही थी उसे भारत में भी लागू किए जाने का मन बनाया जाने लगा था। इसके साथ-साथ भारत में उभरता हुआ राष्ट्रवादी आंदोलन भी नागरिक जीवन को आधुनिक बनाने की मांग कर रहा था, जबकि सरकार का सेना और रेलवे पर भारी खर्चा हो रहा था। सरकार गरीब जनता पर कर पहले ही बहुत अधिक लगा चुकी थी। सरकार ने सोचा कि अगर जनता को यह लगे कि उन पर जो कर लगाए गए हैं उससे प्राप्त आमदनी का इस्तेमाल उन्हीं के कल्याण के लिए किया जा रहा है तो वह कर देने में हिचकिचएगी नहीं। इसलिए निर्णय लिया गया कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, जल आपूर्ति जैसे विषय स्थानीय संस्था को दे दिए जाए और स्थानीय कर लगाकर उन का खर्च निकाला जाए। एक दूसरा पहलू भी था वह यह था कि किसी न किसी रूप में प्रशासन से भारतीय जुड़े रहेंगे तो भारत के लोग राजनीतिक रुप से उनसे असंतुष्ट नहीं होंगे उनके समर्थन में बने रहेंगे। लेकिन भारतीयों को केवल स्थानीय संस्थाओं के स्तर पर ही जोड़ा जा सकता था।
सबसे पहले 1866 और 68 के बीच स्थानीय संस्थाओं की स्थापना की गई। लगभग हर मामले में इसके सदस्य नामजद होते थे उनका अध्यक्ष जिला मजिस्ट्रेट होता था। यह संस्थाएं प्रबुद्ध भारतीयों द्वारा ब्रिटिशों के कर उगाही का साधन समझी जाने लगी। तब 1882 में लॉर्ड रिपन की सरकार ने अपने सरकारी प्रस्ताव में ग्रामीण और नगरीय स्थानीय संस्थाओं द्वारा जिनके अधिकांश सदस्य गैर अधिकारी होंगे स्थानीय मामलों के प्रबंध की एक नीति निर्धारित की। जहां भी अधिकारियों को चुनाव प्रणाली लागू करना संभव लगे वहां इन गैर अधिकारी सदस्यों को जनता द्वारा चुना जाना था। इस प्रस्ताव में किसी स्थानीय संस्था के अध्यक्ष के रूप में किसी गैर अधिकारी के चुनाव की छूट भी दी गई लेकिन सभी जिला परिषद और नगर पालिकाओं में चुने हुए सदस्य अल्पमत में होते थे। इसके अलावा वे बहुत थोड़े मतदाताओं द्वारा चुने जाते थे क्योंकि मत देने का अधिकार बहुत कम लोगों को था। परिणामतः जिलों के अधिकारी ही जिला परिषदों के अध्यक्ष बने रहे। हालांकि बाद में गैरअधिकारी नगरपालिका समितियों के अध्यक्ष बने हैं। यही कहना चाहूंगा कि सरकार इन संस्थाओं को कभी भी निलंबित या भंग भी कर सकती थी। इस प्रकार कलकत्ता, मद्रास और बंबई के प्रेसीडेंसी नगरों को छोड़कर हर जगह स्थानीय संस्थाएं सरकारी विभाग बन कर रह गयी। लेकिन राजनीतिक रुप से जो भारतीय जागृत थे उन्होंने रिपन के प्रस्ताव का स्वागत किया, यह सोच कर कि समय आने पर स्थानीय स्वशासन के साधन के रूप में उन्हें परिवर्तित कर दिया जाएगा।
सेना में परिवर्तन
1858 के बाद सेना का सावधानी के साथ पुनर्गठन किया गया। इसका उद्देश्य था कि अब पूर्व की भांति पुनः विद्रोह न हो पाए। सैनिकों की विद्रोह की क्षमताओं को यदि एकदम समाप्त ना किया जा सके तो उसे यथासंभव कम करने के लिए कदम उठाया जाए। इसके लिए सेना में यूरोपीय सैनिक बढ़ा दिए गए। जैसे बंगाल की सेना में अब यह अनुपात एक और दो का हो गया तथा मद्रास तथा मुंबई में सेना में दो और 5 का अनुपात हो गया। इसके लिए भौगोलिक और सैनिक महत्व के स्थानों पर यूरोपीय सेनाओं को तैनात किया जाता था तथा तोपखाने, टैंक, बख्तरबंद गाड़ियों जैसी जगहों पर सेना के महत्वपूर्ण विभाग सदैव यूरोपियों के हाथ में रहते थे।
1914 तक कोई भी भारतीय सूबेदार के पद से ऊपर नहीं हो सका। दूसरी बात भारतीय अंग का संगठन "संतुलन और जवाबी संतुलन" तथा "बांटो और राज करो" की नीति के आधार पर किया गया, जिससे ब्रिटिश विरोधी विद्रोह के लिए एकजुट होने का उनको अवसर ही ना मिले। सेना की भर्ती मे जाति, क्षेत्र और धर्म के आधार पर भेदभाव किए गए या मनगढ़अंत कहानी गढ़ी गई थी। जैसे कहा गया कि कुछ लड़ाकू जातियां होती है और कुछ गैर लड़ाकू। अवध, विहार, मध्य भारत और दक्षिण भारत के सैनिकों ने आरंभ में अंग्रेजों की भारत विजय में सहायता की थी लेकिन 18 57 के विद्रोह में उन्होंने भाग भी लिया था इसलिए उन्हें ग़ैर लड़ाकू कहा गया और बड़ी संख्या में सेना में उनकी भर्ती बंद कर दी गई। दूसरी तरफ विद्रोह को कुचलने में सहायता देने वाले पंजाबी, गोरखे और पठानों को लड़ाकू जाती घोषित किया गया और इन्हें बड़ी संख्या में भर्ती किया गया।
1875 में ब्रिटिश भारत की सेना का आधा भाग पंजाबियों का ही था। भारतीय रेजीमेंटों को तमाम जातियों और वर्गों का मिश्रण बना दिया गया। सैनिकों की संप्रदायिक, जातिगत, कबीलाई और क्षेत्रीय निष्ठाओं को प्रोत्साहित किया गया ताकि उनके बीच राष्ट्रवादी भावना विकसित न हो। रेजीमेंटों में जातियों और संप्रदायों के आधार पर कंपनियां बनाई गई।
भारत सचिव चार्ल्स वुड ने 1861 में वायस राय कैनिंग को एक पत्र लिखा था। उसमें उसने कहा था कि मैं एक ऐसी बड़ी सेना कभी देखना नहीं चाहता जिसकी भावनाएं और पूर्वाग्रह और संपर्क वैसे हो जिसे अपनी शक्ति का भरोसा है और जो मिलकर विद्रोह करने की इतनी उत्सुक हो। अगर एक रेजीमेंट विद्रोह करें तो दूसरी रेजीमेंट को उससे इतना कटा हुआ देखना पसंद करुंगा कि वह उस पर गोली चलाने के लिए भी तैयार हो। अर्थात ब्रिटिश अधिकारी यहां भारतीय सेना को भाड़े की सेना बनाना चाहते थे। भारतीय सेना आगे चलकर बहुत ही खर्चीली हो गई ।
1904 में भारतीय राजस्व का लगभग 52 प्रतिशत इसी पर खर्च होता था क्योंकि यह एक से ज्यादा उद्देश्य पूरे करती थी। भारत सबसे महत्वपूर्ण उपनिवेश था इसलिए रूसी, फ़्रांसीसी और जर्मन साम्राज्यवादियों से लगातार इसकी रक्षा करनी पड़ती थी। इसलिए भारतीय सेना की संख्या में भी बहुत बढ़ोतरी हुई। भारतीय सेना एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश सत्ता और शासन को फैलाने का भी काम करती थी सेना का सेना का खर्च भारत के राजस्व से ही पूरा किया जाता था।
सार्वजनिक सेवाएं
भारत सरकार पर भारतीयों का नियंत्रण लगभग ना के बराबर था। प्रशासन में अधिकार और उत्तरदायित्व के सारे पदों पर इंडियन सिविल सर्विस के सदस्य बैठे होते थे जिनकी भर्ती लंदन में होने वाली वार्षिक प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से की जाती थी। इन परीक्षा में भारतीय बैठ सकते थे।
1863 में यह परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले पहले भारतीय सत्येंद्रनाथ ठाकुर थे जो रवींद्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई थे। इसके बाद लगभग हर साल 1 या 2 भारतीय सिविल सर्विस के गौरवपूर्ण पदों पर पहुंचते थे, लेकिन अंग्रेजों की अपेक्षा इनकी संख्या कम होती थी। सिविल सर्विस परीक्षा अनेक बाधाओं से ग्रसित थी। यह प्राचीन ग्रीक और लैटिन के ज्ञान पर आधारित थी, जिसे इंग्लैंड में लंबे और खर्चीले अध्ययन के बाद ही प्राप्त किया जा सकता था। इसके साथ सिविल सर्विस परीक्षा में बैठने की आयु 18 59 में 23 वर्ष थी 1878 में घटाकर 19 वर्ष कर दी गई।
प्रशासन के दूसरे विभाग जैसे पुलिस, सार्वजनिक निर्माण, चिकित्सा, डाक, तार, जंगल, इंजीनियरिंग, कस्टम और बाद में रेलवे में भी बड़े और अधिक वेतन पाने वाले पदों पर ब्रिटिश नागरिकों को ही बिठाया जाता था। सभी महत्वपूर्ण पदों पर यूरोपीय बैठते थे ।
1893 में भारत सचिव लॉर्ड किम्बरले ने यह व्यवस्था रखी थी कि सिविल सर्विस के सदस्यों में यूरोपीयो की हमेशा एक पर्याप्त संख्या होना अत्यंत आवश्यक है। साथ ही लैंसडाउन ने इस बात पर जोर दिया कि अगर इस विशालकाय साम्राज्य को सुरक्षित रखना है तो उसकी सरकार का यूरोपियों के हाथ में होना अनिवार्य है।भारतीयों के दबाव में 1918 के बाद प्रशासन की सेवाओं का धीरे-धीरे भारतीयकरण भी किया गया, लेकिन नियंत्रण और अधिकार के पद फिर भी अंग्रेजों के हाथों में ही रहे।
रजवाड़ों के साथ संबंध
1857 से पहले अंग्रेज भारतीय राज्यों को हड़पने का कोई भी आवश्यक चूकते नहीं थे, किंतु अब यह नीति छोड़ दी गई । अनेक भारतीय शासक अंग्रेजों के वफादार थे और उन्होंने विद्रोह को कुचलने में उनकी सहायता भी की थी। वायसराय कैनिंग ने कहा भी था कि इन सासको ने तूफानों में तंगरोधको का काम किया है । उन की वफादारी के इनाम में यह घोषणा की गई कि उन्हें उत्तराधिकारी गोद लेने के अधिकार को मान्यता दी जाएगी तथा भविष्य में उनके राज्यों का कभी भी अधिग्रहण नहीं किया जाएगा।
1807 में कैनिंग लिखता है सर जान-मालकोम ने यह बात कही थी यदि हम पूरे भारत को जिलों में बांट दे तो भी वास्तविकता ऐसी नहीं है कि हमारा साम्राज्य 50 वर्षों तक भी जारी रह सके। पर अगर हम बिना किसी राजनैतिक सत्ता दिए मात्र शाही उपकरणों के रूप में अनेक देशी रजवाड़ों को बनाए रखें भारत में हम तब तक बने रहेंगे जब तक समुद्र पर हमारा वर्चस्व बना रहेगा। इसस मत की ठोस सच्चाई में मुझे कोई संदेह नहीं है और हाल की घटनाओं के बाद इस मत पर ध्यान देना पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है। ब्रिटिश इतिहासकार पी ई रॉबर्ट ने कहा है कि साम्राज्य के आधार के रूप में उनको बनाए रखना तब से ब्रिटिश नीति का एक सिद्धांत बन गया।
रजवाड़ों को बनाए रखना ब्रिटिश नीति का एक पक्ष है इस नीति का दूसरा पक्ष यह है कि ब्रिटिश अधिकारियों का उन पर पूर्ण नियंत्रण बना रहा। 18 57 के विद्रोह से पहले अंग्रेज इन रजवाड़ों के आंतरिक मामलों में हमेशा दखल देते थे लेकिन फिर भी सैद्धांतिक रूप से उनको सहयोगी और स्वाधीन शक्ति माना जाता था । अब स्थिति पलट गई अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए राजाओं को अब ब्रिटेन को सर्वोपरि शक्ति मानना पड़ता था।
1876 में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटेन की सत्ता पर जोर देने के लिए रानी विक्टोरिया ने भारत की साम्राज्ञी का पद भी सम्हाल लिया था लार्ड कर्जन ने यह बात स्पष्ट की थी कि राजा महाराजा अपने राज्यों का शासन केवल ब्रिटिश सम्राट के एजेंटों के रूप में करेंगे। राजाओं ने भी इस अधीनता को स्वीकार कर लिया और स्वेच्छापूर्वक सम्राज्य के पिछलग्गू बन गए क्योंकि उन्हें अपने राज्य के शासक बने रहने का आश्वासन दिया गया था। रेजिडेंट के जरिए रजवाड़ा के रोजमर्रा के प्रशासन में दखल देना शुरु कर दिया गया, बल्कि मंत्रियों और दूसरे अधिकारियों को नियुक्त करने और हटाने के अधिकार पर भी जोर देते थे। कभी-कभी शासकों को हटा दिया जाता था या उन्हें उनकी शक्तियों से वंचित कर दिया जाता था। अंग्रेज चाहते थे कि इन राज्यों में एक आधुनिक प्रशासन स्थापित किया जाए,ताकि ब्रिटिश भारत से उनका एकीकरण हो। रेलवे, डॉकतार व्यवस्था, मुद्रा प्रणाली और एक साझा आर्थिक जीवन के विकास में भी इस एकीकरण को और उसके फलस्वरूप हस्तक्षेप को और बढ़ा दिया। दूसरा कारण अनेक राज्यों में लोकतांत्रिक जन आंदोलनों और राष्ट्रवादी आंदोलनों का उभरना था । अधिकारियों ने राजाओं को इन आंदोलनों को दबाने में सहायता दी तो दूसरी ओर उन्होंने इन राज्यों में प्रशासन के गंभीर दुरुपयोग को समाप्त करने के प्रयास भी किये।
आज यह भी स्पाष्ट है कि भारतीय राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के किसी भी विचार का परित्याग करने की घोषणा की गई थी....
Britanica द्वारा प्रकाशित The History of India नामक पुस्तक के पृष्ठ 261 पर उल्लिखित है-" The announcement reversed Lord Dalhousie prewar policy of political unification through princely state annexation."