मैला ढोने या मैनुअल स्कैवेंजिंग की प्रथा एक सामाजिक बुराई के रूप में हमारे समाज में अभी भी विद्यमान है, जो किसी भी सभ्य समाज को कलंकित करने के लिये पर्याप्त है। इस अमानवीय प्रथा में निम्नलिखित नैतिक मुद्दे अंतर्निहित हैं-
⇰मैला ढोने या मैनुअल स्कैवेंजिंग की प्रथा हमारे संविधान की प्रस्तावना में वर्णित व्यक्ति की गरिमा के विपरीत है।
⇰इस प्रथा के तहत सीवर की सफाई के क्रम में होने वाली मौतों से संविधान के भाग तीन में उल्लेखित जीवन के अधिकार के साथ-साथ गरिमापूर्ण जीवन की गारंटी का भी उल्लंघन होता है।
⇰जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देने में इस प्रथा का बहुत बड़ा योगदान है। इस कुप्रथा के अंतर्गत दलितों को मैला ढोने व शौचालय साफ करने के लिये मजबूर किया जाता है, जो समाज में ऊँच-नीच और जातिगत भेदभाव की भावना के लिये उत्तरदायी है।
⇰संविधान के अनुच्छेद 46 में कहा गया है कि राज्य समाज के कमज़ोर वर्गों खासकर अनुसूचित जाति और जनजाति की सामाजिक अन्याय से रक्षा करेगा। लेकिन इस बुराई का विद्यमान होना, इस अनुच्छेद के क्रियान्वयन पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। इस तरह यह प्रथा सामाजिक न्याय की प्रक्रिया को भी बाधित करती है।
⇰यह भी देखा गया है कि इस प्रथा में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है, खासकर ग्रामीण इलाकों में जहाँ शुष्क शौचालयों को हाथों से साफ किया जाता है तथा मैला सिर पर ढोकर उसे बाहर फेंका जाता है। इस तरह यह महिला सशक्तीकरण में बाधक होने के साथ लिंगगत भेदभाव को भी जन्म देता है।
⇰वर्तमान सरकार द्वारा देश को स्वच्छ बनाने के लिये चलाए जा रहे स्वच्छ भारत अभियान के तहत बड़ी संख्या में शुष्क शौचालयों का निर्माण किया जा रहा है जिसे कालांतर में साफ करने की आवश्यकता होगी। इसके परिणामस्वरूप अप्रत्यक्ष रूप से मैनुअल स्कैवेंजिंग को बढ़ावा मिल सकता है।
इस तरह मैला ढोना एक गंभीर सामाजिक समस्या है, जो कई प्रकार की सामाजिक समस्याओं को जन्म देने के लिये भी उत्तरदायी है।
इस समस्या के समाधान के लिये अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम जैसी आधारभूत संरचनाओं का विकास करने के अतिरिक्त शिक्षा, आर्थिक उत्थान, उचित वैधानिक और दंडात्मक कार्रवाइयों के द्वारा इसे नियंत्रित किया जा सकता है।