Thursday 7 September 2017

रोहिंग्या समस्या व अन्य मुद्दे तथा भारत-म्यांमार संबंध


भारतीय प्रधानमंत्री तीन देशों की विदेश यात्रा पर निकल चुके हैं। उनकी यात्रा का पहला पड़ाव म्यांमार है, जहाँ वह ‘ना पीई ता’ (Nay Pyi Taw) में ‘आसियान’ और ‘पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन’ (East Asia Summits - EAS)) में भाग लेंगे। हाल के वर्षों में भारत की विदेश नीति में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखे गए हैं। एशिया में भारत ने अपनी ‘लुक ईस्ट’ नीति में बदलाव लाते हुए ‘एक्ट ईस्ट नीति’ पर काम करना शुरू किया, लेकिन फिर भी वर्ष 2014 के बाद से भारतीय प्रधानमंत्री म्यांमार नहीं जा पाए हैं।
गौरतलब है कि म्यांमार भारत के लिये कई कारणों से महत्त्वपूर्ण है। मसलन, हालिया रोहिंग्या मुद्दा, चीन की रोड एंड बेल्ट परियोजना और अभी समाप्त हुए डोकलाम गतिरोध इत्यादि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जहाँ भारत को म्यांमार से बेहतर संबंधों की दरकार है। इस लेख में हम इन सभी पहलुओं पर चर्चा करेंगे।

रोहिंग्या समस्या
विदित हो कि प्रधानमंत्री की यह यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब रोहिंग्या विरोधियों एवं म्यांमार की सेना के बीच खूनी संघर्ष जारी है। म्यांमार सरकार द्वारा घोषित आतंकवादी संगठन ‘रोहिंग्या मुक्ति सेना’ (rohingya salvation army) द्वारा 40 से अधिक पुलिस चौकियों पर आक्रमण के बाद से जारी इस संघर्ष में अब तक 400 से भी अधिक लोग मारे जा चुके हैं। रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे ने समूचे विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा है।
अब ऐसे में अपनी यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री को अपने इस पड़ोसी देश में जारी सांप्रदायिक हिंसा के इस जटिल और दर्दनाक मुद्दे के समाधान हेतु पहल करनी होगी। भारत को इस मुद्दे पर संवेदनशीलता इसलिये भी दिखानी होगी, क्योंकि हाल ही में सरकार ने रोहिंग्या शरणार्थियों को देश से निकालने को लेकर एक योजना बनाई थी।

रोहिंग्याओं को क्यों वापस भेजना चाहती है सरकार ?
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने हाल ही में कहा था कि “गैर-कानूनी तौर पर रह रहे 40 हज़ार रोहिंग्या देश से बाहर निकाले जाएंगे क्योंकि देश के अलग-अलग जगहों पर रह रहे हैं रोहिंग्या मुसलमान अब समस्या बनते जा रहे हैं।यूएनएचसीआर के मुताबिक, भारत में 14,000 से अधिक रोहिंग्या रह रहे हैं। हालाँकि जो दूसरी सूचनाएँ गृह मंत्रालय के पास मौजूद हैं, उनके मुताबिक इस समय लगभग 40 हज़ार रोहिंग्या अवैध रूप से देश में रह रहे हैं।
दरअसल, अवैध विदेशी नागरिकों का पता लगाना और उन्हें वापस भेज देना एक निरंतर प्रक्रिया है और गृह मंत्रालय ‘विदेशी अधिनियम, 1946’ की धारा 3(2) के तहत देश में अवैध रूप से रह रहे विदेशी नागरिकों को वापस भेजने की प्रक्रिया शुरू कर रहा है।

क्या होना चाहिये ?
मूलतः म्यांमार के रखाइन प्रांत में रहने वाला रोहिंग्या समुदाय दुनिया के सबसे ज़्यादा सताए हुए समुदायों में एक है। भारत में दस्तावेज़ों के अभाव में इनके बच्चों को स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता है। साथ ही, न तो इन्हें पीने का साफ पानी मयस्सर है और न ही कोई इनकी सफाई का ध्यान रखता है।
वैसे, भारत ने 1951 के ‘यूनाइटेड नेशंस रिफ्यूजी कन्वेंशन’ और 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। इस कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने वाले देश की यह कानूनी बाध्यता हो जाती है कि वह शरणार्थियों की मदद करेगा। यही कारण है कि वर्तमान में भारत के पास कोई राष्ट्रीय शरणार्थी नीति नहीं है, लिहाज़ा शरणार्थियों की वैधानिक स्थिति बहुत अनिश्चित है जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के विरुद्ध है।
फिर भी एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र होने के नाते भारत का यह दायित्व बनता है कि वह संकटग्रस्त लोगों के लिये अपने दरवाजे खुले रखे। जिस शरणार्थी को शरण देने की अनुमति दे दी गई है, उसे बाकायदा वैधानिक दस्तावेज़ मुहैया कराए जाएँ ताकि वह सामान्य ढंग से जीवन-यापन कर सके। साथ ही, शरणार्थियों को शिक्षा, रोजगार और आवास चुनने का हक भी दिया जाना चाहिये।
यह सही है कि शरणार्थियों के कारण संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है, कानून व्यवस्था के लिये चुनौती उत्पन्न होती है। लेकिन हमारी समस्या यह है कि राष्ट्रीय शरणार्थी नीति के अभाव में शरणार्थियों का न तो पंजीकरण हो पाता और न ही इनका कोई स्थायी पता होता है।
ऐसे में यदि कोई शरणार्थी अपराध करने के बाद भाग जाए तो उसको कानून की गिरफ्त में लेना मुश्किल हो जाता है। अतः शरणार्थियों को वापस म्यांमार भेजने से ज़्यादा उचित एक पारदर्शी और जवाबदेह व्यवस्था का निर्माण करना है ताकि शरणार्थियों का प्रबंधन ठीक से हो सके।

म्यांमार की चीन पर बढ़ती निर्भरता
भारतीय प्रधानमंत्री की यह यात्रा डोकलम विवाद के साये में हो रही है। अतः भारत यह चाहेगा कि म्यांमार से अपने संबंधों को मज़बूत करे, ताकि इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभुत्व पर लगाम लगाई जा सके। यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि म्यांमार दो या तीन साल पहले की तुलना में आज चीनी सहायता पर अधिक निर्भर है। चीन पर इसकी निर्भरता के कुछ मुख्य कारण हैं:
1. चीन के साथ म्यांमार के रिश्ते इसलिये महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इन सबंधों के केंद्र में म्यांमार के प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग सुनिश्चित करना है।
2. विदित हो कि चीन म्यांमार में एक ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ का निर्माण करने के लिये रियायतें दे रहा है। साथ ही, म्यांमार के क्यूक्यूऊ (Kyaukpyu) में एक प्राकृतिक एवं गहरे समुद्री बंदरगाह के विकास में भी चीन की दिलचस्पी है जो कि उसकी ‘रोड एंड बेल्ट परियोजना’ का हिस्सा बन सकता है।
3. गौरतलब है कि चीन द्वारा म्यांमार में समय-समय
पर सशस्त्र जातीय संघर्षों के तेज़ होने के दौरान विद्रोही समूहों और म्यांमार सरकार के बीच शांति वार्ता कराने में मध्यस्थ की भूमिका अदा की जाती है।
4. इसके अलावा, रखाइन राज्य में जारी संघर्ष में म्यांमार को मानवाधिकारों के उल्लंघन का दोषी मानते हुए, संयुक्त राष्ट्र या अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जब उस पर सवाल उठाया जाएगा तो वह अपने हितों के सरंक्षण के लिए चीन पर ही निर्भर रहेगा क्योंकि ‘वीटो पावर’ चीन को प्राप्त है न कि भारत को।

भारत से अपेक्षित प्रयास
यदि भारत को म्यांमार में चीन के बढ़ते प्रभुत्व का मुकाबला करना है तो उसे भारत-म्यांमार आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाना होगा। वर्तमान में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार करीब 2.2 अरब डॉलर का है, जिसे और अधिक बढ़ाया जा सकता है।
‘कालादान मल्टी-मॉडल ट्रांज़िट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट’ और ‘भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग’ जैसी परियोजनाओं को गति देनी होगी।
मांडले स्थित ‘म्यांमार इंस्टीट्यूट ऑफ इन्फोर्मेशन टैक्नोलॉजी’ जैसी और भी मानव विकास परियोनाएँ आरम्भ की जानी चाहियें। हालाँकि ऐसी संभावना है कि यात्रा के दौरान नई कनेक्टिविटी परियोजनाओं या विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर सहयोग की घोषणा की जा सकती है।

और अधिक प्रयास की जरूरत क्यों?
वर्ष 2022 तक कालादान और ‘भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग’ जैसी परियोजनाओं के समुचित कार्यान्वयन से भारत को महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त होगा, लेकिन दुर्भाग्य से वाणिज्यिक व्यापार और निवेश के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि भारत का म्यांमार में निवेश आधार काफी संकीर्ण है।
म्यांमार से कृषि एवं वन उत्पाद और तेल व गैस को वह विस्तारण देना होगा जो म्यांमार की विकासीय की जरूरतों के साथ-साथ 3 अरब डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार लक्ष्य को पूरा कर सके।
भारत और म्यांमार बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने के लिये बिम्सटेक जैसे क्षेत्रीय सहयोग की वह रूपरेखा तय करनी होगी जो दोनों ही देशों के लिये लाभप्रद हो।
विदित हो कि म्यांमार को सेम और दालों (beans and pulses) के निर्यात द्वारा भारत ने वहाँ खाद्य सुरक्षा बहाल करने में अहम भूमिका निभाई है, लेकिन हाल में जिस तरह से दालों के निर्यात पर रोक लगा दी गई है। हमें इस तरह के मामलों में एक समन्वित पहल करनी होगी।

निष्कर्ष
भारत में प्रायः यह कहा जाता है म्यांमार भारत के लिये पूर्व का द्वार है, लेकिन यह एक प्रचलित कहावत ही बनकर रह गई है। लंबी जमीनी और समुद्री सीमाएँ साझा करने के बावज़ूद अब तक दोनों देशों के बीच सीमित संपर्क ही स्थापित हो सका है। अतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वर्तमान यात्रा भारत-म्यांमार संबंधों को नई ऊँचाइयों पर ले जाने का सुनहरा अवसर है।