Saturday, 29 July 2017

जैन-दर्शन के पाँचों नैतिक सिद्धान्तों की विवेचना कीजिये।


जैन धर्म में निम्नलिखित पाँच नैतिक सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है-
1.किसी भी जीव के साथ हिंसा न करना (अहिंसा)।
2.सदैव सत्य बोलना।
3.चोरी न करना।
4.व्यभिचार से दूर रहना।
5.भौतिक धन-संपत्ति के लिये लालच न करना (अपरिग्रह)।

इन पाँचों नैतिक सिद्धान्तों का पालन गृहस्थ और मुनियों दोनों को करना चाहिये परन्तु मुनियों के लिये नियम ज्यादा कठोर होते है।
जैन-दर्शन में स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी जीव को शारीरिक या मानसिक पीड़ा पहुँचाना हिंसा है, जिसे पूरी तरह त्याग देना चाहिये। प्रकृति में सभी जीवों का जीवन समान महत्त्व का है। सत्य के संबंध में भी जैन-दर्शन का दृष्टिकोण सीधा और स्पष्ट है। व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में सत्य से विचलित नहीं होना चाहिये।
हालाँकि जैन-दर्शन ‘स्याद्वाद’ के माध्यम से दूसरे के विचारों की सत्यता में विश्वास के लिये उदारता अपनाने का भी रास्ता दिखाता है।
जैन-दर्शन में चोरी को जघन्य पाप माना है तथा इसके किसी भी तरीके को अपनाना वर्जित समझा गया है। इस दर्शन में यह आदेश भी है कि विवाहित पुरूषों को स्त्रियों पर लोलुप दृष्टि नहीं डालनी चाहिये। उसे उनके साथ आदरपूर्वक व्यवहार करना चाहिये।
ब्रह्मचर्य का यह नियम सभी पुरूषों पर लागू होता है। जैन-दर्शन मनुष्य को अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण की शिक्षा भी देता है। मनुष्य को लालची नहीं होना चाहिये तथा धन-संपत्ति के लिये असाधारण प्रेम नहीं पालना चाहिये। अपनी आवश्यकतों को नियंत्रित रख एक सादा व संतोषी जीवन जीना चाहिये।
इस प्रकार हम पाते हैं कि जैन-दर्शन के पाँचों नैतिक सिद्धांत ने केवल व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन को सँवारते हैं बल्कि समाज में आपसी भाईचारा, अहिंसा, सत्य की उपस्थिति व सद्चरित्रता को भी प्रोत्साहित करते हैं।