Friday 28 July 2017

भारत में सूखा, बाढ़ एवं पेयजल की अनुपलब्धता जैसी समस्याओं को एक साथ साधने के लिये 'नदी जोड़ो परियोजना' एक रामबाण साबित हो सकती है। समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।


भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण (NWDA) की इस नदी जोड़ो परियोजना के तहत हिमालयी और प्रायद्वीपीय क्षेत्र की चिह्नित नदियों एवं क्षेत्रों को कुल 30 ‘लिंकों’ द्वारा आपस में जोड़ा जाना है। इसमें हिमालयी क्षेत्र में 14 तथा प्रायद्वीपीय क्षेत्र में 16 संपर्क नहरें शामिल हैं। हाल ही में ‘केन-बेतवा लिंक’ को पर्यावरणीय मंजूरी के लिये हरी झण्डी मिलने के साथ ही इस राष्ट्रव्यापी योजना के पहले चरण की शुरुआत होने की संभावना बढ़ गई है।

नदी जोड़ो परियोजना की आवश्यकता क्योंः?
भारत की मानसून आधारित कृषि अर्थव्यवस्था में मानसून की अनिश्चितता, मानसून आधिक्य या मानसून की कमी एक बड़ी जनसंख्या को प्रभावित करती है। इस परियोजना द्वारा नदियों को जोड़कर, जलाधिक्य वाली नदियों के जल को जलाभाव वाले क्षेत्र की नदियों में स्थानांतरित किया जा सकेगा, जिससे जलाभाव वाले क्षेत्र की सूखे व पेयजल की समस्या का समाधान निकल सकता है तथा जलाधिक्य क्षेत्र से बाढ़ की स्थिति को टाला जा सकता है।
⇒इस परियोजना के तहत करीब 3000 बांध बनाये जाने हैं। इससे बड़ी मात्रा में विद्युत भी उत्पन्न की जा सकेगी।
⇒सिंचाई की उपलब्धता होने से कृषि पैदावार बढ़ेगी तथा इससे ग्रामीण गरीबी में भी कमी आएगी।
⇒नहरों का प्रयोग अंतर्देशीय परिवहन के लिये भी किया जा सकेगा।
⇒परंतु इस नदी जोड़ो परियोजना के जितने लाभ परिलक्षित हो रहे हैं, वे सिक्के का सिर्फ एक पहलू हैं। इस परियोजना को धरातल पर लाना आसान नहीं है क्योंकि इस परियोजना के विरोध में भी प्रभावी तर्क दिये जा रहे हैं।

विरोध में तर्क
⇒नहरों एवं जलाशयों के निर्माण से बड़ी मात्रा में निर्वनीकरण की स्थिति भी उत्पन्न होगी जो पर्यावरण व जैव-विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।
⇒इससे बड़ी संख्या में लोगों का विस्थापना होगा जिनका पुनर्वास एक बड़ी चुनौती रहेगी।
⇒अंतर्राष्ट्रीय जल-संधियों को लेकर भी समस्याएँ उत्पन्न होंगी (जैसे-ब्रह्मपुत्र नदी को लेकर)।
⇒इस परियोजना का अनुमानित खर्च अत्यधिक है, जिसकी व्यवस्था करना सरकार के लिये एक बड़ी चुनौती होगी।
दोनों पहलुओं पर गौर करने पर यह स्पष्ट होता है कि यद्यपि नदी जोड़ो परियोजना में असीम संभावनाएँ हैं तथा यह सूखा (जलाभाव क्षेत्र), बाढ़ (जलाधिक्य क्षेत्र) और पेयजल अनुपलब्धता जैसी समस्याओं के निराकरण में रामबाण साबित हो सकती है
परंतु विस्तृत पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव आंकलन के बिना इस परियोजना को धरातल पर लाने से बचना चाहिये ताकि भविष्य में यह किसी गंभीर स्थिति का कारण न बन सके।