वेदों और उपनिषदों में जिन नैतिक और दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है, गीता उनमें समन्वय स्थापित करके उनका सारतत्त्व प्रस्तुत करती है। गीता में वर्णव्यवस्था, मानव जीवन के चार आश्रमों तथा पुरूषार्थों, कर्मवाद, पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता और ईश्वर की सत्ता को पूर्णरूपेण स्वीकार किया गया है परन्तु गीता में वर्णव्यवस्था को जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर स्वीकार किया गया है।
श्री अरविन्द, गांधीजी तथा तिलक जैसे विचारकों का मत है कि गीता में ‘निष्काम कर्म’ को ही सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सभी परिस्थितियों में निष्काम कर्म करने की शिक्षा दी है। उनके अनुसार फलाकांक्षा का त्याग करके सफलता-असफलता को समान मानते हुए ही कर्म करना चाहिए। इस ‘निष्काम कर्मयोग’ के अनुसार आचरण करने के लिये यह बहुत आवश्यक है कि मनुष्य अपनी सभी इन्द्रियों को संयमित करे तथा अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण रखे। स्वानियंत्रण करने के पश्चात् मनुष्य फलासक्ति के बिना कर्म करे।
वर्तमान में सिविल सेवाओं में तनाव का स्तर ऊँचा है क्योंकि कल्याणकारी राज्य की निरंतर बढ़ती अपेक्षाएँ, गठबंधन की राजनीति के कारण परस्पर विरोधी तथा कठिन दबाव, मीडिया एवं सिविल सोसाइटी की जागरूकता आदि सिविल सेवकों को चारों ओर से घेरे रखती हैं। इन जटिल परिस्थितियों में यदि सिविल सेवक स्वनियंत्रण रख निष्काम भाव से अपने कार्यों का संपादन कानूनों, नियमों, विनियमों एवं अंतरात्मा के निर्देशानुसार करता रहे तो न केवल उसे चौतरफा तनावों से मुक्ति मिलेगी बल्कि शांति, संतोष एवं परिणाम भी प्राप्त होंगे। एक सिविल सेवक द्वारा निजी हितों को त्यागकर, निष्पक्षतापूर्वक फैसले लेकर तथा सत्यनिष्ठा के साथ अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करना ही ‘निष्काम कर्मयोग’ है।
अतः निःसंदेह गीता का निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत सिविल सेवकों के लिये एक श्रेष्ठ मार्गदर्शक का कार्य कर सकता है।