The rude behavior of the so-called civil society (Author: Rajeev Ranjan)
सभ्य कहे जाने वाले लोग इस समाज में सारे 'असभ्य' व्यवहार घर के बाहर तो
करते ही है उससे कहीं ज्यादा घर की चारदीवारी के भीतर ही करते है घर के
बाहर तो लोग काफी हद तक जान पाते है और कभी कानून या समाज के पास इसका इलाज
भी होता है लेकिन घर की चारदीवारी के भीतर होने पर प्रतिकार नहीं हो पता
क्योंकि इनके खिलाफ आवाज उठाने की ताकत घर के भीतर ही दम तोड़ देती है कुछ
यही हाल हमारे समाज का भी है।
एक महिला यदि कहीं अकेली
जाती है तो उसे 100 सवालों का जबाब देना पड़ता है यदि वह अपने घर में विलम्ब
से लौटती है तो उसे विलम्ब के लिए तर्कपूर्ण कारणों को स्पष्ट करना होता
है और यदि वह गैर मर्दो के साथ देखी जाती है तो उस पर संदेह किया जाता है।
दामनी
की घटना को हमलोग भूले भी नहीं थे कि कुछ दिनों पहले जहाँ लोग नवरात्रि
के अनुषठान में कन्या पूजन कर रहे थे तो वहीं 5 साल की गुड़िया के साथ
..............। मेरा यह मानना है कि अगर किसी घटना के दर्द को समझना हो तो
अपने - आप को उस घटना से जोड़ कर देखें की अगर मेरे साथ.............या फिर
मेरे परिवार के किसी सदस्य के साथ............।
हरियाणा
के रोहतक जिले में कुछ दिन पहले ही एसी घटना सामने आई। रोहतक में एक
नावालिग के साथ उसका सौतेला ...... ही रेप करता रहा व फिर उसका जबरन ...... भी करबा दिया। हरियाणा में ही एक पिता ने अपनी पुत्री के साथ अपने
5 दोस्तों को अपने ही सामने............ वह भी इसलिए कि उसने प्रेम
विवाह किया था।
ताजूब की बात है यह सब घटनायें उस देश
में हो रही है जो धर्म की दृष्टि से विश्व गुरु कहलाता है। जहाँ तथाकथित 34
करोड़ देवी - देवताओं का निवास है व कितने देवी - देवताओं का जन्म भी
भारत में ही बताया गया है। बुद्ध, महाबीर का जन्म भी भारत में ही हुआ। जहाँ
सबसे ज्यादा मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे है। जहाँ देवीयों के रुप में
काली, सरस्वती, दुर्गा की पुजा की जाती है। तथाकथित धर्म गुरुओं से पुछने
पर रटा-रटाया जवाब आयेगा की पुर्व जन्म का पाप है या फिर धर्मग्रंथों का
सहारा लेगें की गीता में लिखा है कि जब पाप बढ़ जाता है तो भगवान अवतार लेते
है, दुष्टों का विनाश करने के लिए। मेरी समझ से परे है कि पाप कितना
बढ़ेगा, कब तक बढ़ेगा व अवतार कब होगा। धर्म गुरुओं का तो यहाँ तक कहना है कि
ईश्वर की मर्जी के बिना कुछ नहीं होता तो क्या...........।
कुछ लोग फिल्मों/सिनेमा को दोष ठहरा रहे है लेकिन जावेद साहेब ने संसद में
कहा की अगर फिल्मों के कारण ही ऐसी घटनायें होती तो तमिलनाडु व
आंध्रप्रदेश में ऐसी घटनायें सबसे ज्यादा होती क्योंकि पुरे भारत में 1400
सिनेमाघर है व आधे से ज्यादा दक्षिण भारत में ही है। कुछ लोगों का यह मानना
है की महिलायें आधुनिक वस्त्र पहन रही है इसलिए ऐसा हो रहा है लेकिन क्या 3
साल, 5 साल की बच्चियों में भी उन्हें सेक्स दिखायी देता है।
मैं इस लेख के जरीए यह प्रकाश डालने की कोशिश कर रहा हूँ कि "सभ्य समाज का
असभ्य व्यवहार" करने की। जहाँ तक मैं समझता हूँ यह समस्या संस्कृति व
मनोवृति का ज्यादा है। इसको इस प्रकार से समझा जा सकता है। एडम व स्मीथ या
कहे आदम व हब्बा की कहाँनियों को आपलोग जानते होंगे तो यह आपको याद होगा की
स्त्रियों का जन्म तथाकथित आदम/एडम के बाऐं पैर के अंगूठे से जन्म हुआ।
वहीं ईश्वर द्वारा वर्जीत फल चखने से मना करने पर भी आदम ने वह वर्जित फल
चखा व आदम ने इसका सारा दोष हब्बा पर ही मढ़ा। (बाइबिल में बताया गया है कि
ईश्वर ने पुरुष का अकेलापन दूर करने के लिए उसके शरीर से एक पसली निकाल कर
स्त्री का सृजन किया। यानी स्त्री बनायी ही इसलिए गयी है कि वह पुरुष की
सहायता करे व उसके जीवन को आनंद से भरे।) आप सभी ने हिंदूओं के देव विष्णु
की तस्वीर में प्राय: यह देखा होगा कि विष्णु लेटे अवस्था में रहते हैं व
लक्ष्मी को उनके पैर दबाते दिखाया जाता है।
हमारे समाज में
पितृसत्ता (Patriarchy) समाज की नींव काफी गहरी है। अथर्ववेद में पुत्री
के जन्म पर दु:ख प्रकट किया गया है। ऐतरेय ब्राह्राण में भी पुत्री को
'कृपण' या नृपत्रि कहा गया है। वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया हा कि यदी
पत्नी, पति के साथ यौन सम्बंध नहीं स्थापित करना चाहती है तो पति का यह
अधिकार है कि मान-मनौव्बल से न माने तो बल का प्रयोग करना चाहिए।
अथर्ववेद
में तो स्पष्ट लिखा है कि यदि पत्नी पति की इच्छा के विरुद्द घर से बाहर
मनोरंजन के लिए जाती है तो उसे फटे बांस से मारा जा सकता है। कामसूत्र में
भी स्त्रियों पर हिंसा की काफी संभावनाएं चित्रित की गई है वहीं मनुस्मृति
में विभिन्न वर्गों की स्त्रियों के लिए सजाएं एक सी न होकर वर्ण भेद पर
आधारित थी।
वैदिक ऋचाओं में भूमि और पशुओं के साथ पुत्रों
की तो कामना की गयी है, लेकिन पुत्रियों की नहीं। इसका कारण यह है कि
उत्पादन पद्द्ति में पुरुष प्रधान है, स्त्री का स्थान गौण है।एक ऋचा में
कहा गया है: स्त्री वह भूमि है जिसमें मनुष्य अपना अंग शिथिल कर देती है और
पति अपनी संतान की कामना से बीज बपन करता है। ऋग्वेद के दुसरे श्लोक में
जिस तरह लता वृक्ष से लिपट जाति है उसी तरह तू अपने पति का आलिंगन कर और
उसके मन को आकर्षित कर तथा वह तेरे मन को प्रसन्न करे। यानी पुरुष वृक्ष है
व स्त्री लता। एक आधार है, व दूसरा आधारित।
पौराणिक कथाओं
की बात की जाए तो कुछ का जिक्र यहाँ पर कर रहा हूँ। एक का जिक्र कुंती के
साथ सूर्य का समागम का कर रहा हूँ। कुंती, उस समय तक कुंती को रजोदर्शन
नहीं हुआ था यानी उसे मासिक नहीं होता था अर्थात वह नाबालिग थी। इसलिए
कुंति के साथ सोने के लिए सूर्य को उसे काफी पटाना पाड़ा। (वन पर्व, 307)
यहाँ सूर्य द्वारा कुंति को पटाने का वर्णन इस प्रकार किया गया है। सुर्य
कुंति से कहता है, 'कन्या शब्द की व्योत्पत्ति कम् धातु से हुई है, जिसका
अर्थ है चाहे जिस किसी भी पुरुष की इच्छा कर सकनेवाली कन्या स्वतंत्र है।
उस पर किसी का अधिकार नहीं, उसके साथ संबंध अर्धम नहीं। स्त्रियों और पुरुष
के बीच में कोई रुकावट न होना, यही लोगों की मूल और स्वाभाविक अवस्था है।
विवाह आदि संस्कार कृत्रिम है। तुमने यदि मुझसे समागम किया तो भी
तुम कुमारी ही रहोगी। महाभारतकार बतलाता है कि तुरंत उसे रजोदर्शन हो कर वह समागम के योग्य हुई। गौर किया जाए तो हमारे शास्त्र भी कमाल के है जब चाहे
टोपी से, रुमाल से खरगोश निकाल सकते है।
अहल्या गौतम मुनि
की पत्नी थी। वह इतनी गुणी व सुन्दर थी कि स्वयं इंद्र भी प्रलुब्ध हो गये।
एक दिन जब संयम और नहीं रखा जा सका तो गौतम मुनि का ही रुप धारण कर इंद्र
ने अहल्या का सतीत्व भ्रष्ट कर दिया। कुछ ही देर बाद वास्तविक मुनि लौटे तो
अहल्या को कुछ शक हुआ और सारी बात बता दी। अपनी स्त्री के इस 'लज्जास्पद
कार्य' के बारे में सुनते ही गौतम मुनि ने क्रोध में आकर अहल्या को पत्थर
की मुर्ति बना दिया समझ से परे है कि इतने सिद्द पुरुष होते हुए भी उन्हें
यह ख्याल नहीं आया कि वह इंद्र के छल की शिकार हुई है, निसंदेह आज तक हमारे
समाज में बलात्कार की शिकार स्त्री के साथ ऐसा ही नजरिया दिखाया जाता है।
द्रोपदी व सीता से भी आप सभी लोग परचीत है। दोनों ही क्रमश: महाभारत व
रामायण की प्रमुख रानियां हैं। दोनों ने अपने पत्तियों के साथ वनवास के सभी
कष्ट झेले। दोनों ही सुशील व शिक्षित थी। द्रोपदी अपने पाँचों पत्तियों,
की मुर्खता के कारण कौरवों के हाथों भरी सभा में अपमानित की गयी। वहीं सीता
का अपमान तो स्वंय उनके पति 'राम' के हाथों हुआ। जहाँ रावण ने सीता को
उठाकर लंका ले गया व लंका से लौटने पर अपने सतीत्व को सावित करने के लिए
राम के कहने पर अग्निपरिक्षा दि व खरी उतरने पर भी राम ने उन्हें त्याग
दिया।
मुस्लीम समुदाय में भी देखा जाए तो एक पुरुष चार
महिलाओं के साथ रह सकता है, वहीं महिलायें, कुरआन, 4.अन-निसा (मदिना में
उतरी-आयतें 177), परा4, 15. के अनुसार तुम्हारी स्त्रियों में से जो
व्यभिचार कर बैठे, उनपर अपने में से चार आदमियों की गवाही लो, फिर यदि वे
गवाही दे दें तो उन्हें घरों में बंद रखो, यहाँ तक कि उनकी मृत्यु आ जाए
या अल्लाह उनके लिए कोई रास्ता निकाल दे। दुसरी तरफ 22. और उन स्त्रियों
से विवाह ना करो, जिन्से तम्हारे बाप विवाह कर चुके हों, परन्तु जो पहले हो
चुका सो हो चुका। निस्संदेह यह एक अश्लील और अत्यन्त अप्रिय कर्म है और
बुरी रीति है। 23. तुम्हारे लिए हराम है तुम्हारी माएँ, बेटियां, बहने
फूफियाँ, भतीजियाँ, भाँजियाँ, और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुम्हें दूध
पिलाया हो और दूध के रिश्ते से तुम्हारी बहनें व सासें और तुम्हारी
पत्नियों की बेटियाँ जो दुसरे पति से हों और तुम्हारी गोदों में
पलीं-तुम्हारी उन स्त्रियों की बेटियाँ जिनसे तुम संभोग कर चुके हो। परन्तु
यदि संभोग नहीं किया है तो उसमें तुमपर कोई गुनाह नहीं - और तुम्हारे उन
बेटों की पत्नियाँ जो तुमसे पैदा हो और यह भी कि तुम दो बहनो को ईकट्ठा
करो; परन्तु पहले जो हो चुका सो हो चुका। निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त
क्षमाशील, दयावान है। 25. और तुममें से जिस किसी की इतनी सार्मथ्य न हो कि
पाकदामन, स्वतंत्र, ईमानवाली स्त्रियाँ से विवाह कर सके, तो तुम्हारी वे
ईमानवाली जवान लोंडियाँ ही सही जो तुम्हारे कब्जे में हो, और अल्लाह
तुम्हारे ईमान को भली-भाँति जानता है।
इस समुदाय में एक
"हलाला" का रिवाज है जिसमें तलाक देने पर अगर पुरुष फिर से उस स्त्री को
अपनाना चाहे तो उसे हलाला कराना पड़ता है, अर्थात उस महिला को किसी के साथ
कम से कम एक दिन के लिए निकाह करना पड़ता है व उस महिला को उसके साथ एक दिन
के लिए ही सही लेकिन उस पुरुष के साथ हमविस्तर होना पड़ता है। वह पुरुष चाहे
तो अगले दिन तलाक देदे व वह महिला अपने तथाकथित पहले पति के साथ फिर से
निकाह कर सकती है।
इस्लाम का एक प्रसिद्द अर्थ है, सुलह,
शांति,कुशलता, संरक्षण, शरण आदि। हजरत मुहम्म्द ने कहा है; "इस्लाम ग्रहन
करो, तवाही से बच जाओगे"। आपने यह भी कहा, "जो व्यक्ति भी इस (इस्लाम) में
आया सलामत (सुरक्षित) रहा। लेकिन मेरी समक्ष से परे है, इस्लाम का ये गूढ़
अर्थ रहते भी यहाँ की महिलायें..........।
महात्मा बुद्द को
ही लीजिये? वे स्त्री के पक्षधर थे, ऐसी बात नहीं थी। अंबपाली को
स्वीकार, उसी पितृसत्तात्मक मुल्यों के अधीन वेश्यावृति को मान्यता प्रदान
करना था। कहते है, जब बुद्द ने संघ की स्थापना की, तो शुरु औरतों को मर्दों
की तरह, दास बनकर आना मना था। उन्होंने अपने संघ में स्त्रियों को जगह
नहीं दी, लेकिन उनके चचेरे भाई, आनंद चाहते थे कि स्त्रियों को भी पुरुषों
की तरह संघ में बराबरी की भागीदारी मिले। उन्होंने बुद्द से इसके लिए
तर्क-विर्तक भी किया, पर बात जब नहीं बनी, तो उन्होंने समझाने की कोशिश
करते हुए बुद्द से पूछा, क्या औरतें अगर कोशिश करें तो निर्माण प्राप्त कर
सकती है? "इस पर जवाब में बुद्द ने कहा, हाँ क्यों नहीं, प्राप्त कर सकती
है।" तब आनंद ने बड़ी ही विनम्रता से कहा, "तो फिर आप उन्हें संघ में आने
क्यों नहीं देते"? बड़े दुख के साथ मै यह लिख रहा हूँ कि सम्पूर्ण
बुद्द-साहित्य में कहीं भी आनंद के सिवा दुसरे किसी भी व्यक्ति का वर्णन
नहीं मिलता है, जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि बुद्द या बौद्द ध्रर्म
स्त्रियों के प्रति उदार था। अंगुत्तर निकाय (खंड-2, पृष्ठ-76) में
स्त्रियों के दरवार में नहीं होने पर बुद्द से अपनी नाराजगी जताते है।
आखिरकार बुद्द स्त्रियों को अपने कायदे के अनुसार भिक्षुणियों को भिक्षुओं
के निचे दबे रहना था। इस तरह संघ को दर्जों में बाँट दिया, साथ ही
भिक्षुणियों के लिये दश कड़ी शर्तें रख दी, जिसके पालन करने के पश्चात ही
औरतें संघ में आ सकती थी। जिनमें एक था, स्त्री-स्मिता को सब्से अधिक चोट
पहुँचाने वाला नियम, भिक्षुणी चाहे जितना भी बलिष्ठ हो, उसके सामने कोई
कमजोर कनिष्ठ भिक्षु आ जाये, तो उसका सम्मान सर झुकाकर करना होगा व
भिक्षुणी को सजा, भिक्षु के वनिस्पत, ज्यादा कठोर होगा। इस प्रकार स्त्री
पर लादे गये लगभग सभी नियम सख्त थे और स्त्री स्मिता को चोट पहुँचाने वाले
थे। बुद्द्काल में केवल बाहर ही नहीं, संघ के भीतर भी स्त्री को पुरुष के
अधीन, उसकी मर्जी के अनुसार जिना होता था।
जातकों में
उल्लेखित तथ्यों को पढ़ने से साफ हो जाता है कि बिद्द का स्त्रियों के प्रति
विचार क्या था? लगभग हर जगह स्त्रियों को काला नाग, व्यभिचारिणी, रहस्थमयी
व मोहनी, पुरुषों को अपने मोह-जाल में फ़ँसानेवाली कहा गया है।
मध्यकाल
में स्त्रियों का जितना ह्रास हुआ उसे हमारा समाज एक कलंक के रुप में
निश्चित ही कभी भी भूल नहीं पायेगा। स्त्रियों को शिक्षा, सम्पत्ति को
वंचित कर प्रताड़ित करने का अधिकार पुरुष को देकर उसे पुरुषों की दया पर
निर्भर कर दिया और पुरुष को बढ़ावा दिया गया।
वर्तमान में
महाराष्ट्र, नांदेड़ (अर्धापुर), वैधु समाज की शर्मनाक प्रथा देखने को मिलती
है। यहाँ के वैधु समाज में बेटियों को बेचने की प्रथा है ( बाप ही अपनी
बेटियों को बेचते है।)। शादी कुछ दिनों के लिए की जाती है अर्थात मन भरने
तक। उसके बाद फिर मंडी में बेची जाती है बकायदा यहाँ मंडी लगा करती है।
पहली बार 20 से 30 हजार रुपये में, पहली शादी से माँ बनजाने पर लड़की की
कीमत 50 से 1 लाख तक। एक साल वित जाने जानेपर 1 लाख से ज्यादा भी। इस तरह
एक ही बेटी की कई बार निलामी होती है।
राजस्थान व आस-पास के
सटे इलाके (पाकिस्तान के भी) में एक कंजर समुदाय के लोग रहते है। इस समुदाय
में यह प्रथा है कि ये अपने ही घरों की महिलाओं (बेटी, पत्नी, बहन) से देह
व्यपार कराते है।
कुछ दिनों पहले ईरान की संसद ने एक बिल पास किया है जिससे की पुरुष अपनी गोद ली हुई 13 साल की बेटी से शादी कर सकेगा।
मिस्र की एक प्रथा है (वर्तमान में ही लागू की गयी है।) आखरी समागम, इसके
अनुसार पुरुष अपनी पत्नी के मर जाने के बाद भी संबंध बना सकता है (मृत
शरीर से छ: घंटे तक)।
आखीर क्यों स्त्रियों का महत्तव और
सम्मान तथाकथित सभ्य समाज में एक जानवर से भी कम हो गया है। देखा जाये
तो कन्या के जन्म के पहले से ही उनपर अत्याचार किया जाता है, कहीं गर्भ में
ही लिंग परिक्षण कराकर मार दिया जाता है तो कहीं जन्म होने पर
दूध में डुबोकर फिर अफीम खीलाकर मार दिया जाता है। कहीं-कहीं तो जीवित
अवस्था में ही झाड़ियों या कुड़ेदान में फेंक दिया जाता है या फिर जमीन में
गाड़ दिया जाता है। अगर जीवित रहती भी है तो उसे घर में ही लिंग-भेद का
शिकार होना पड़ता है चाहे वो खान-पान हो या आजादी या फिर वस्त्रों को ही
लेकर क्यों न हो। वहीं घर के कामों में भी लड़कियों को ही सम्मिलित किया
जाता है लड़कों को नहीं। अगर लड़का रो दे तो उसे लड़की कहा जाता है। कहीं-कहीं
जो अपने आप को सभ्य कहते हैं वे भी लड़कियों को बेटा कह कर संबोधित किया
जाता है। मेरे खयाल से लड़कियों को बेटा कहना भी उनका तिरस्कार है क्योंकि
इससे यह साबित होता है कि बेटे, लड़कियों से बेहतर होते है।
पुरुष
जब शादी करने जाता है तो वह घोड़ी पर बैठकर हाथ में तलवार लिए जाता है जैसे
कि वह युद्द लड़ने या अपहरण करने जा रहा है। कहीं-कहीं लोग मोटर गाड़ियों से
शादी में इसी भाव से जाते है जैसे वह कुछ जीतने जा रहे हो और ताजुब की बात
है कन्या पक्ष वाले भी 'कन्यादान' करते हैं मानों जैसे कोई 'वस्तु' सौंप
रहे हैं (हिन्दुओं में कन्यादान सबसे बड़ा दान माना जया है।)।
स्त्री
चाहे जितनी भी गुणी और पतिव्रता हो, उसकी शारीरिक पवित्रता ही सबसे
महत्वपूर्ण है, यह है तथाकथित सभ्य समाज। यह भी माना जाता है कि सारे
खानदान की इज्जत स्त्री के साथ ही जुड़ी हुई है। निसंदेह स्त्री के मन और
बुद्दि से ज्यादा उसके शरीर को महत्व दिया जाता है।
आज जरूरत
है तो हमारी सोंच बदलने की व हर पहलुओं पर वारीकी से सोंचने व अमल करने की।
26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ। जिसमें एक स्वतंत्र,
समानतावादी तथा न्यायपूर्ण समाज की कल्पना की गयी। कलम की एक नोंक से
स्त्री व पुरुष को सब प्रकार से बराबर घोषित कर दिया गया। लेकिन सिर्फ
कानून बनाने से दुनिया स्वर्ग वन जाती, तो क्या बात थी। हर दुख का निपटारा
कानून की किताब में एक वाक्य जोड़ने से हो जाता। देखा जाए तो स्त्री-पुरुष
संबंध का मूल गणित अब भी वही है जो हजारों साल पहले निर्धारित किया था।
शाहवानों सुप्रीम कोर्ट से तो मुकदमा जीत गयी, लेकिन अपने समाज से हार
गयी। गंगू वाई (शास्त्रीय संगीत) का कहना है कि अगर कोई मुस्लिम इस मुकाम
पर पहूँचता है तो वह उस्ताद, अगर वह हिंदू है तो पंडित मगर महिला- वाई बन
कर रह जाती है। अब आप ही बतलायें हम क्या कहे इस "तथाकथित सभ्य समाज के
असभ्य व्यवहार को।"
(आप ने पूरा लेख पढ़ा इसके लिए धन्यवाद।)