Monday 19 June 2017

भारतीय दर्शन के विकास पर एक संक्षिप्त परिचय


भारतीय दर्शन के विकास के क्रम में वेद की स्वीकार्यता व अस्वीकार्यता को लेकर भारतीय दर्शन परंपरा में दो धाराएं चलती है-
1. जो वेद की प्रमाणिकता को स्‍वीकार करते है, वे आस्तिक या वैदिक कहे गये, जिनमें सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मिमांसा एवं वेदांत दर्शन को शामिल किया जाता है।
2. जो वेद की प्रमाणिकता को अस्वीकार करते हैं, वे नास्तिक या अवैदिक कहे गये, जिनमें चार्वाक, बौद्ध एवं जैन दर्शन को शामिल किया जाता है।
ईसवी सन के आरम्भ तक दर्शन के छह संप्रदाय विकसित हो चुके थे :- सांख्य , योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत।

सांख्य:-
→ सांख्य की व्युत्पत्ति संख्या शब्द से हुई।
→ सांख्य दर्शन के मूल प्रवर्तक कपिल ने बताया है कि मानव का जीवन प्रकृति की शक्ति द्वारा रूपायित होता है, न कि किसी दैवी शक्ति के द्वारा।
→ प्राचीन सांख्य दर्शन के अनुसार जगत की उत्पत्ति ईश्वर से नहीं , अपितु प्रकृति से होती है।
→ चौथी सदी के आसपास सांख्य दर्शन में प्रकृति के अतिरिक्त पुरुष नामक एक और उपादान जुड़ा और दोनों को सृष्टि का कारण माना गया।
→ नवीनतम मत के अनुसार प्रकृति और पुरुष दोनों के मेल से जगत की सृष्टि होती है।
→ इस दर्शन के अनुसार मोक्ष यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति से हो सकता है। यह यथार्थ ज्ञान प्रत्यक्ष , अनुमान और शब्द से हो सकता है। आजकल यही मार्ग वैज्ञानिक अनुसन्धान का भी है।

योग :-
→ योग दर्शन के अनुसार मोक्ष ध्यान और शारीरिक साधना से मिलता है।
→ ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का निग्रह योगमार्ग का मूलाधार है।
→ इस दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति के लिए कई तरह के आसान ( अर्थात विभिन्न स्थिति में दैहिक व्यायाम ) तथा प्राणायाम ( अर्थात् श्वास के लिए व्यायाम ) सुझाये गए हैं।
→ ऐसा समझ गया कि इन साधनाओं से चित्त का सांसारिक लगाव दूर हो जाता है और उसमें एकाग्रता आती है।

न्याय :-
→ न्याय या विश्लेषण पद्धति का विकास तर्कशास्त्र के रूप में हुआ है।
→ इस दर्शन के अनुसार मोक्ष ज्ञान की प्राप्ति से हो सकता है।
→ इसमें विशेष महत्त्व की बात है , किसी प्रतिज्ञा या कथन की सत्यता की जाँच अनुमान, शब्द और उपमान द्वारा किया जाना।
→ इस दर्शन में तर्क का प्रयोग किस तरह किया जाता है इसका उदहारण नीचे देखा जा सकता है :-
1. पर्वत अग्नियुक्त है।
2. क्योंकि वहां धुआँ है।
3. जहाँ जहाँ धुआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, जैसे रसोई घर में।

→ इस दर्शन में तर्क के प्रयोग का जो महत्त्व प्रतिपादित हुआ उससे भारतीय विद्वान प्रभावित होकर तार्किक रीति से सोचने और बहस करने की ओर झुके।

वैशेषिक :-
→ वैशेषिक दर्शन द्रव्य अर्थात भौतिक तत्वों के विवेचन को महत्त्व देता है। वह सामान्य और विशेष के बीच अंतर करता है।
→ इस दर्शन के अनुसार पृथ्वी , जल, तेज, वायु और आकाश के मेल से नयी वस्तुयें बनती हैं।
→ वैशेषिक दर्शन ने परमाणुवाद की स्थापना की । इसके अनुसार भौतिक वस्तुएँ परमाणुओं के संयोजन से बनी हैं।
→ इस प्रकार वैशेषिक दर्शन ने ही भारत में भौतिकशास्त्र का आरम्भ किया। लेकिन इस वैज्ञानिक दृष्टि को ईश्वर में विश्वास और आध्यात्मवाद ने अपने में फंसा लिया और दर्शन में भी स्वर्ग और मोक्ष समा गए।

मीमांसा :-
→ मीमांसा का मूल अर्थ है तर्क करने और अर्थ लगाने की कला। लेकिन इसमें तर्क का प्रयोग विविध वैदिक कर्मों के अनुष्ठानो का औचित्य सिद्ध करने में किया गया है।
→ इसके अनुसार मोक्ष वेद - विहित कर्मों के अनुष्ठान से प्राप्त होता है।
→ मीमांसा के अनुसार वेद में कही गयी बातें सदा सत्य हैं
→ इस दर्शन का मुख्य लक्ष्य स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति है।
→ मनुष्य तब तक स्वर्ग सुख पाता रहता है जब तक उसका संचित पुण्य शेष रहता है। जब वह पुण्य समाप्त हो जाता है तब वह फिर धरती पर आ गिरता है।
→ मीमांसा दृढ़ता पूर्वक बताती है कि मोक्ष पाने के लिए यज्ञ करना चाहिए।

वेदान्त :-
→ वेदांत का अर्थ है वेद का अंत।
→ ईसा पूर्व दूसरी सदी में संकलित बादरायण का ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है।
→ बाद में इस पर दो प्रख्यात भाष्य लिखे गए , पहला शंकर का नवीं सदी में और दूसरा रामानुज का बाराहवीं सदी में।
→ शंकर ब्रह्म को निर्गुण बताते हैं किन्तु रामानुज के अनुसार ब्रह्म सगुण है।
→ शंकर ज्ञान को मोक्ष का मुख्य कारण मानते हैं, किन्तु रामानुज भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं।
→ वेदांत दर्शन का मूल आरंभिक उपनिषदों में पाया जाता है। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही सत्य हैं अन्य हर वस्तु माया अर्थात अवास्तविक है।
→ इस दर्शन के अनुसार आत्मा और ब्रह्म में अभेद है। अतः जो कोई आत्मा को या अपने आपको पहचान लेता है, उसे ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है और मोक्ष मिल जाता है।
→ ब्रह्म और आत्मा दोनों शाश्वत और अविनाशी हैं। ऐसा मत स्थायित्व और अपरिवर्तनीयता की भावना जगाता है। आध्यात्मिक दृष्टी से जो सत्य है वह उस व्यक्ति की अपनी सामाजिक और भौतिक परिस्थिति में भी सत्य हो सकता है।
→ कर्मवाद भी वेदांत के साथ जुड़ गया। इसका अर्थ है कि मनुष्य को पूर्व जन्म में किये गए कर्मों का परिणाम भुगतना पड़ता है। इसका भीतरी अर्थ तो यही हुआ कि मनुष्य जो सुख दुःख भोगता है वह सांसारिक कारणों से नहीं बल्कि ऐसे कारणों से भोगता है जो न उसकी जानकारी में हैँ और न वश में।
जीवन के प्रति भौतिकवादी दृष्टि :-
→ सांख्य और वैशेषिक दर्शनों ने जीवन के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
→ भौतिकवादी विचार आजीवकों के सिद्धान्तों में भी पाये जाते हैं जिन्होंने बुद्ध के समय में नास्तिक दर्शन पद्धति स्थापित की।
→ भौतिकवादी दर्शन का प्रमुख प्रवर्तक चार्वाक हुआ।

चार्वाक का दर्शन :-
→ चार्वाक के दर्शन का नाम लोकायत हुआ, जिसका अर्थ है सामान्य लोगों से प्राप्त विचार।
→ इसमें लोक अर्थात दुनिया के साथ गहरे लगाव को महत्त्व दिया गया है और परलोक में अविश्वास व्यक्त किया गया है।
→ चार्वाक मोक्ष की कामना का विरोधी था। वह किसी दैवी या अलौकिक शक्ति का अस्तित्व नहीं मानता था। वह उन्हीं वस्तुओं की सत्ता / यथार्थता स्वीकार करता था जिन्हें मानव की बुद्धि और इंद्रिय द्वारा अनुभव किया जा सके। स्पष्टतः इसका आशय यह हुआ कि वह ब्रह्म और ईश्वर की सत्ता नहीं मानता था। उसके अनुसार यज्ञ की कल्पना ब्राह्मणों ने दक्षिणा अर्जित करने के उद्देश्य से की है।
→ चार्वाक को बदनाम करने के लिए उसके विरोधियों ने उसके केवल इस मत को खूब उछाला : जब तक जिएँ सुख से जिएँ , कर्जा लेकर घी पीएं।
→ चार्वाक का वास्तविक योगदान है उसकी भौतिकवादी दृष्टी। वह किसी भी कार्य में दिव्य या अलौकिक हाथ को नकारता है और मानव को सभी क्रियाओं का मूल मानता है।
→ भौतिकवाद के आग्रह वाले दार्शनिक धाराओं का विकास ईसा पूर्व 500 और 300 ई के बीच की अवधि में हुआ जब आर्थिक और सामाजिक स्थिति विकास विस्तार की ओर थी।
→ पाँचवी सदी के आते आते भौतिकवादी दर्शन को प्रत्ययवादी दार्शनिकों ने दबा दिया। वे भौतिकवादी दर्शन की निरन्तर निंदा करते रहे और धार्मिक अनुष्ठानों एवम् आध्यात्मिक साधनाओं को मोक्ष का मार्ग बताते रहे।
→ प्रत्ययवादी दार्शनिकों ने सांसारिक कार्य का कारण अलौकिक शक्ति को बताया। यह मत वैज्ञानिक अनुसन्धान की प्रगति में और तार्किक चिंतन में बाधक सिद्ध हुआ।
→ प्रत्ययवादी और मोक्षवादी दर्शनों में खोया हुआ जनसामान्य , वर्णाधारित समाज- व्यवस्था की विषमताओं की ओर तथा राज्य की प्रतिमूर्ति राजा की प्रबल सत्ता की ओर कभी नजर उठा नहीं सका।
उपर्युक्त तथ्य बाह्य स्रोत से शामिल।