थक गया हूँ......ढूंढते-ढूंढते, जिस्म टूट गया है, इंतजार न होगा खत्म,
शायद समय ही रूठ गया है? अब सोचता हूँ की मन की किवाड़ भी बंद कर लूँ,
लगा लूँ सांकर, अब न कभी खोलूँगा इनको, कितना भी खटखटाए कोई आकर.......।
लगा लूँ सांकर, अब न कभी खोलूँगा इनको, कितना भी खटखटाए कोई आकर.......।
समय कुछ मेरे साथ-साथ ऐसा चला की,
मेरे हिस्से का सोना लुटता रहा और मैं धूल बटोरता रह गया।
इस खेल में ज्यादातर लोगों की समस्या यह नहीं है कि वे अपने दोस्तों और दुश्मनों को पहचानते नहीं बल्कि समस्या यह है कि वे दुश्मनों को पहचानते हुए भी उन्हें चुन लेते हैं।
आपने धैर्यपूर्वक पूरा लेख पढ़ा धन्यवाद।