Wednesday 7 June 2017

राजनीतिक – धार्मिक आंदोलन


राजनीतिक-धार्मिक आंदोलनों के अंतर्गत हम निम्नलिखित आंदोलनों एवं विद्रोहों को रख सकते हैः-

यह विद्रोह बंगाल में बिचारणशील मुसलमान धार्मिक फकीरों द्वारा किया गया। इस विद्रोह के नेता मजनू शाह ने अंग्रेजी सत्ता को चुनौती देते हुए जमींदारों और किसानों से धन इकट्ठा करना प्रारंाभर कर दिया। मजनू शाह की मृत्यु के बाद चिराग अली शाह ने आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। पठानों, राजपूतों, और सेना से निकाले गये भारतीय सैनिकों ने उसकी मदद की। भवानी पाठक एवं देवी चैधरानी इस आंदोलन से जुड़े प्रसिद्ध हिन्दू नेता थे।

बंगाल में 1770 में पड़े भीषण अकाल और अंगे्रजों की शोषणकारी नीति ने बंगाल में अस्त-व्यस्तता पैदा कर दी। इस अकाल के बाद हिन्दू नागा और गिरी सश्स्त्र संन्यासी, जो कभी मराठा और राजपूत सेनाओं का हिस्सा होतेथे, ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के प्रमुख कारणों में तीर्थ-यात्रियों पर प्रतिबंध लगाया जाना था। वारेन हेस्टिंग्स ने एक कठोर सैन्य अभियान के बाद इस विद्रोह को कुचलने में सफलता पाई। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’आनन्दमठ’ में इस विद्रोह का विस्तृत वर्णन किया है।

उत्तर-पूर्वी भारत में प्रभावी पागलपंथी एक धार्मिक पंथ था। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान और गारों तथा जांग आदिवासी इस पंथ के समर्थक थे। इस क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा क्रियान्वित भू-राजस्व तथा प्राशासनिक व्यवस्था के कारण व्यापक असंतोष था, जिसके परिणामस्वरूप 1813 ई. में पागलपंथियों के नेता टीपू ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह लगभग दो दशकों (1813-33) तक चला। इस विद्रोह के दौरान टीपू इतना प्रभावशाली हो गया कि उसने उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में औपनिवेशिक प्रशासन के सामांनातर एक और प्रशासनिक तंत्र का गठन कर लिया। इस विद्रोह को सन् 1833 में दबा दिया गया।

वहाबी आंदोलन मूलतः एक इस्लामिक सुधारवादी आंदोलन था, जिसने कालान्तर में मुस्लिम समाज में व्याप्त अंधविश्वासों एवं कुरीतियों के उन्मूलन को अपना उद्देश्य बनाया। इस आंदोलन के संस्थापक अब्दुल वहाब के नाम पर इसका नाम वहाबी आंदोलन पड़ा। सैय्यद अहमद बरेलवी ने भारत में इस आंदोलन को प्रेरणा प्रदान की। इस आंदोलन का मुख्य लक्ष्य पंजाब में सिखों और बंगाल में अंग्रेजों को अपदस्थ करके भारत में मुस्लिम सत्ता पुनस्र्थापित करना था। इन्होंने अपने अनुयायियोंका सैन्य शिक्षा दी। इस आंदोलन के तहत सैय्यद अहमद ने सन् 1830में पेशावर पर नियत्रंण कर लिया और अपने नाम से सिक्के चलवाये, किंतु 1831 में बालाकोट के युद्ध में इनकी मृत्यु हो गई। सैय्यद अहमद की अचानक मृत्यु के उपरांत वहाबी आंदोलन का वहाबी आन्दोलन का मुख्य केन्द्र पटना हो गया। इस दौरान मौलवी कासिम इनायत अली बिलायत अली तथा अहमदुल्ला ने आदोलन का नेतृत्व किया। वहाबी आंदोलन 1857 के विद्रोह की तुलना में अधिक नियोजित तथा संगठित था तथापि इस आंदोलन की अनेक कमजोरियाॅ थी, जेसे सांप्रदायिक उन्माद तथा धर्माधता। इसके बावजूद वहाबियों ने हिन्दुओं विरोध कभी नहीं किया वहाबी आंदोलन निःसदेंह भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराना चाहता था। परंतु इस आंदोलन का उद्देश्य भारत के लिए स्वतत्रंता प्राप्त करना नहीं बल्कि मुस्लिम शासन की पुनस्र्थापना करना था। सन् 1870 के आसपास अंगे्रजों द्वारा इस आंदोलन का दमन कर दिया गया।

कूका आंदोलन तथा वहाबी आंदोलन में समानता इन अर्थों में थी कि दोनो ही धार्मिक आंदोलन के रूप में आरम्भ हुए और दानों ही बाद में ऐसे राजनीतिक आंदोलनों में परिवर्तित हो गये जिनका एकसमान उद्देश्य अंगे्रेजों को भारत से बाहर निकालना था। सन् 1840 में भगत जवाहर मल (सियान साहब) ने कूका आदोलन की शुरूआत पश्चिम पंजाब से की। इस आन्दोलन का उदेश्य सिख धर्म में व्याप्त बुराइयों का उन्मूलन कर उसे शुद्ध करना था। सियान साहब और उनके शिष्य बालक सिंह ने उत्तर-पश्चिमी सीमा पं्रात में हाजरों को अपना मुख्यालय बनाया। कालान्तर में सिख प्रभुसत्ता को पुनस्र्थापित करना ही कूका आंदोलन का प्रमुख उदेश्य बन गया। सन् 1863-72 के बीच अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबा दिया तथा आंदोलन के प्रमुख नेता रामसिंह को रंगून भेज दिया।