प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उपस्थित हुई परिस्थितियों, मार्ले-मिण्टो सुधारों के वास्तविक स्वरूप के स्पष्ट होने तथा तिलक और ऐनी बेसेंट की सकारात्मक सोच ने होमरूल लीग आंदोलन की नींव रखी। तिलक और ऐनी बेसेंट ने भारतीयों को स्वशासन की शिक्षा देने, सभी राष्ट्रवादियों को एक उद्देश्य के लिये एकजुट करने तथा राजनीतिक गतिविधियों को जीवन्त करने के लिये क्रमशः अप्रैल 1916 और सितंबर 1916 में अलग-अलग ‘होमरूल लीग’ की स्थापना की। यह आंदोलन देशभर में बहुत लोकप्रिय भी हुआ। परंतु, 1919 तक आते-आते यह आंदोलन काफी कमजोर और धीमा पड़ गया था।
इस आकस्मिक अवसान के निम्नलिखित कारण रहे-
- इस आंदोलन में एक प्रभावी संगठन का अभाव था।
- 1917-18 में हुए सांप्रदायिक दंगों ने आंदोलन पर नकारात्मक प्रभाव डाला।
- आंदोलन में अतिवादियों द्वारा सितंबर 1918 में अहिंसात्मक प्रतिरोध का सिद्धांत अपनाये जाने की बात से नरमपंथी आंदोलन से पृथक होने लगे थे। 1918 के पश्चात् तो उनकी भागीदारी नगण्य हो गई थी।
- सितंबर 1918 में एक मुकदमें के सिलसिले में तिलक विदेश चले गए जबकि मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के संबंध में व्यक्तिगत प्रतिक्रिया एवं अहिंसात्मक प्रतिरोध के मुद्दे पर ऐनी बेसेंट विचलित हो गई। बेसेंट द्वारा कुशल नेतृत्व न दे पाने तथा तिलक के विदेश में होने के कारण आंदोलन नेतृत्वविहीन होकर धीमा व कमजोर पड़ गया।
यद्यपि होमरूल लीग आंदोलन ज्यादा समय तक सक्रिय नहीं रह पाया किंतु इस आंदोलन को उस अल्पकाल में भी अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त हुई। यथा-
- आंदोलन ने शिक्षित वर्ग से इतर जनसामान्य में राजनीतिक चेतना जगाई।
- इस आंदोलन ने देश के हर हिस्से में सांगठनिक संपर्क तैयार किया जिसने स्वतंत्रता आंदोलन के चरमोत्कर्ष काल में देश के सभी हिस्सों के लोगों को स्वतंत्रता संघर्ष से जोड़ा।
- इस आंदोलन ने जुझारू राष्ट्रवादियों की एक नई पीढ़ी तैयार की जिसने बाद के आंदोलनों में नेतृत्व प्रदान किया।
- मांटेग्यू की घोषणाएँ और चेम्सफोर्ड सुधार काफी हद तक होमरूल लीग आंदोलन के दबाव व प्रभाव में हुए।
- ‘लखनऊ समझौता (1916)’ में होमरूल लीग का अहम योगदान था।