हितों के इन टकरावों की परिणति तीन आंग्ल-मराठा युद्धों के के रूप में हुई। अंग्रेजों और मराठों के मध्य 1775-82 में प्रथम, 1803-06 में द्वितीय तथा 1817-18 में तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ। यद्यपि मराठे उस समय मुगलों से अधिक शक्तिशाली थे परंतु अंग्रेजों से सैनिक व्यवस्था, नेतृत्व, कूटनीति तथा साधनों में बहुत पीछे थे। फलस्वरूप मराठों को अंग्रेजों से हार मिली।
मराठों की पराजय के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-
मराठों की पराजय के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-
- अयोग्य नेतृत्वः मराठों में उत्तम नेतृत्व का पूर्णतया अभाव था। महादजी सिंधिया, अहिल्याबाई होल्कर, पेशवा माधवराव तथा नाना फड़नवीस जैसे नेता 1790 से 1800 के बीच संसार से चल बसे थे।
- मराठा राज्य के लोगों की एकता कृत्रिम तथा आकस्मिक थी। मराठा शासकों ने किसी समय भी कोई सामुदायिक विकास, विद्या प्रसार अथवा जनता के एकीकरण के लिये कोई प्रयास नहीं किया।
- मराठों की आर्थिक नीति राजनीतिक स्थिरता में सहायक नहीं थी। मराठा साम्राज्य महाराष्ट्र के संसाधनों पर नहीं अपितु बलपूर्वक एकत्रित की गई धनराशि (लूट, चौथ, सरदेशमुखी आदि) पर निर्भर था। बार-बार युद्धों के चलते अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई।
- मराठों में राजनीतिक तौर पर पारस्परिक सहयोग की भावना नहीं थी। होल्कर, सिंधिया, भौंसले सब आपस में लड़ते रहते थे। अंग्रेजी ने उनकी इस फूट का लाभ उठाया।
- यद्यपि व्यक्तिगत वीरता में मराठे कम नहीं थे, किंतु इनकी सैनिक प्रणाली अंग्रेजी सैनिक संगठन, अस्त्र-शस्त्र, अनुशासन और नेतृत्व से काफी पीछे था। मराठों ने युद्ध की वैज्ञानिक तथा आधुनिक प्रणाली नहीं अपनाई। न ही उन्होंने उत्तम व अचूक तोपखाना बनाया।
- अंग्रेजों की उत्तम कूटनीति जिसके द्वारा वे युद्ध से पूर्व प्रायः भिन्न-भिन्न मित्र बनाकर शत्रु को अकेला कर देते थे, अधिक उत्तम गुप्तचर व्यवस्था तथा प्रगतिशील दृष्टिकोण (यूरोपीय लोग उस समय तक धर्म तथा दैवीय बंधनों से बाहर आ चुके थे तथा अपनी शक्ति का प्रयोग वैज्ञानिक आविष्कारों, दूर समुद्री यात्राओं तथा उपनिवेश जीतने में लगा रहे थे) मराठों से अंग्रेजों को श्रेष्ठ सिद्ध करने में सफल रहा।
- इस प्रकार अपनी आंतरिक व बाह्य दुर्बलताओं के कारण मराठों ने अपने से अधिक मजबूत व अनुशासित संगठन के समक्ष घुटने टेक दिये तथा मराठा साम्राज्य पर कंपनी का प्रभुत्व स्थापित हुआ।