- मानो तो देव, नहीं तो पत्थर – विश्वास ही फलदायक
- आम का आम गुठली का दाम – सब तरह से लाभ-ही-लाभ
- घर की मुर्गी दाल बराबर – घर की वस्तु का कोई आदर नहीं करना
- बिल्ली के भाग्य से छींका (सिकहर) टूटा – संयोग अच्छा लग गय
- ऊँचे चढ़ के देखा, तो घर-घर एकै लेखा – सभी एक समान
- रोजा बख्शाने गये, नमाज लगे पड़ी – लाभ के बदले हानि
- मुँह में राम, बगल में छुरी – कपटी
- इस हाथ दे, उस हाथ ले – कर्मों का फल शीघ्र पाना
- मोहरों की लूट, कोयले पर छाप – मूल्यवान वस्तुओं को छोड़कर तुच्छ वस्तुओं पर ध्यान देना
- गुड़ खाय गुलगुले से परहेज – बनावटी परहेज
- नाम बड़े, पर दर्शन थोड़े – गुण से अधिक बड़ाई
- लश्कर में ऊँट बदनाम – दोष किसी का, बदनामी किसी की
- उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे – अपराधी ही पकड़नेवाली को डाँट बताये
- दुधारु गाय की दो लात भी भली – जिससे लाभ होता हो, उसकी बातें भी सह लेनी चाहिए
- बैल का बैल गया नौ हाथ का पगहा भी गया – बहुत बड़ा घाटा
- ऊँट के मुँह में जीरा – मरूरत से बहुत कम
- न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी – झगड़े के कारण को नष्ट करना
- भैंस के आगे बीन बजावे, भैंस रही पगुराय – मूर्ख को गुण सिखाना व्यर्थ है
- खेत खाये गदहा, मार खाये जोलहा – अपराध करे कोई, दण्ड मिले किसी और को
- बेकार से बेगार भली – चुपचाप बैठे रहने की अपेक्षा कुछ काम करना
- खरी मजूरी चोखा काम – अच्छे मुआवजे में ही अच्छा फल प्राप्त होना
- नौ की लकड़ी नब्बे खर्च – काम साधारण, खर्च अधिक
- बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ, छोटे मिया सुभान अल्लाह – बड़ा तो जैसा है, छोटा उससे बढ़कर है
- एक पंथ दो काज – एक नहीं, दो लाभ
- दूध का जला मट्ठा भी फूँक-फूँक कर पीता है – एक बार धोखा खा जाने पर सावधान हो जाना
- बोये पेड़े बबूल के आम कहाँ से होय – जैसी करनी, वैसी भरनी
- एक तो चोरी दूसरे सीनाजोरी – दोष करके न मानना
- नीम हकीम खतरे जान – अयोग्य से हानि
- भइ गति साँप-छछूँदर केरी – दुविधा में पड़ना
- कबीरदास की उलटी बानी, बरसे कंबल भींगे पानी – प्रकृतिविरुद्ध काम
- नाचे कूदे तोड़े तान, ताको दुनिया राखे मान – आडम्बर दिखानेवाला मान पाता है
- तीन कनौजिया, तेरह चूल्हा – जितने आदमी उतने विचार
- पानी पीकर जात पूछना – कोई काम कर चुकने के बाद उसके औचित्य पर विचार करना
- खोदा पहाड़ निकली चुहिया – कठिन परिश्रम, थोड़ा लाभ
- पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं – पराधीनता में सुख नहीं
- घड़ी में घर जले, नौ घड़ी भद्रा – हानि के समय सुअवसर-कुअवसर पर ध्यान न देना
- कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा – इधर-उधर से सामान जुटाकर काम करना
- पराये धन पर लक्ष्मीनारायण – दूसरे का धन पाकर अधिकार जमाना
- थूक कर चाटना ठीक नहीं – देकर लेना ठीक नहीं, बचन-भंग करना, अनुचित
- गाछे कटहल, ओठे तेल – काम होने के पहले ही फल पाने की इच्छा
- गोद में छोरा नगर में ढिंढोरा – पास की वस्तु का दूर जाकर ढूँढ़ना
- गरजे सो बरसे नहीं – बकवादी कुछ नहीं करता
- घर का फूस नहीं, नाम धनपत – गुण कुछ नहीं, पर गुणी कहलाना
- घर की भेदी लंका ढाए – आपस की फूट से हानि होती हे
- घी का लड्डू टेढ़ा भला – लाभदायक वस्तु किसी तरह की क्यों न हो
- चोर की दाढ़ी में तिनका – जो दोषी होता है वह खुद डरता रहता है
- पंच परमेश्वर – पाँच पंचों की राय
- तीन लोक से मथुरा न्यारी – निराला ढंग
- तुम डाल-डाल तो हम पात-पात – किसी की चाल को खूब समझते हुए चलना
- धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का – निकम्मा, व्यर्थ इधर-उधर डोलनेवाला
- ऊपर-ऊपर बाबाजी, भीतर दगाबाजी – बाहर से अच्छा, भीतर से बुरा
- आप डूबे जग डूबा – जो स्वंय बुरा होता है, दूसरों को भी बुरा समझता है
- अधजल गगरी छलकत जाय – थोड़ी विद्या, धन या बल होने पर इतराना
- हँसुए के ब्याह में खुरपे का गीत – बेमौका
- बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी – भय की जगह पर कब तक रक्षा होगी
- अंधों के आगे रोना, अपना दीदा खोना – निर्दयी या मूर्ख के आगे दु:खड़ा रोना बेकार होता है
- ओछे की प्रीत बालू की भीत – नीचों का प्रेम क्षणिक
- अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग – परस्पर संगठन या मेल न रखना
- सत्तर चूहे खाके बिल्ली चली हज को – जन्म भर बुरा करके अन्त में धर्मात्मा बनना
- बाँझ क्या जाने प्रसव की पीड़ा – जिसको दु:ख नहीं हुआ है वह दूसरे के दु:ख को समझ नहीं सकता
- अपनी करनी पार उतरनी – किये का फल भोगना
- कहे खेत की, सुने खलिहान की – हुक्म कुछ और करना कुछ और
- आगे कुआँ, पीछे खाई – हर तरफ हानि का आशंका
- सीधी उँगली से घी नहीं निकलता – सिधाई से काम नहीं होता
- गाँव का जोगी जोगड़ा, आन गाँव का सिद्ध – बाहर के व्यक्तियों का सम्मान, पर अपने यहाँ के व्यक्तियों की कद्र नहीं
- आग लगन्ते झोंपड़ा जो निकले सो लाभ – नष्ट होती हुई वस्तुओं में से जो निकल आये वह लाभ ही है
- दमड़ी की बुलबुल, नौ टका दलाली – काम साधारण, खर्च अधिक
- ऊँट बहे और गदहा पूछे कितना पानी – जहाँ बड़ों का ठिकाना नहीं, वहाँ छोटों का क्या कहना
- सब धान बाईस पसेरी – अच्छे-बुरे सबको एक समझना
- एक अनार सौ बीमार – एक वस्तु को सभी चाहनेवाले
- आये थे हरि-भजन को ओटन लगे कपास – करने को तो कुछ आये और करने लगे कुछ और
- साँप मरे पर लाठी न टूटे – अपना काम हो जाय पर कोई हानि भी न हो
- ईश्वर की माया, कहीं धूप कहीं छाया – कहीं सुख, कहीं दु:ख
- रोग का घर खाँसी, झगड़े घर हाँसी – अधिक मजाक बुरा
- आगे नाथ न पीछे पगहा – अपना कोई न होना, घर का अकेला होना
- चूहे घर में दण्ड पेलते हैं – अभाव-ही-अभाव
- पूछी न आछी, मैं दुलहिन की चाची – जबरदस्ती किसी के सर पड़ना
- घर में दिया जलाकर मसजिद में जलाना – दूसरे को सुधारने के पहले अपने को सुधारना
- नक्कारखाने में तूती की आवाज – सुनवाई न होना
- मान न मान मैं तेरा मेहमान – जबरदस्ती किसी के गले पड़ना
- लेना-देना साढ़े बाईस – सिर्फ मोल-तोल करना
- किसी का घर जले, कोई तापे – दूसरे का दु:ख में देखकर अपने को सुखी मानना
- ताड़ से गिरा तो खजूर पर अटका – एक खतरे में से निकलकर दूसरे खतरे में पड़ना
- पहले भीतर तब देवता-पितर – पेट-पूजा सबसे प्रधान
- मार-मार कर हकीम बनाना – जबरदस्ती आगे बढाना
- माले मुफ्त दिले बेरहम – मुफ्त मिले पैसे को खर्च करने में ममता न होना
- उद्योगिनं पुरुषसिंहनुपैति लक्ष्मी – उद्योगी को ही धन मिलता है
- काबुल में क्या गदहे नहीं होते – अच्छे-बुरे सभी जगह हैं
- मियाँ-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी – जब दो व्यक्ति परस्पर किसी बात पर राजी हों तो दूसरे को इसमें क्या
- नौ नगद, न तेरह उधार – अधिक उधार की अपेक्षा थोड़ा लाभ अच्छा
- ऊधों का लेना न माधो का देना – लटपट से अलग रहना
- आधा तीतर आधा बटेर – बेमेल स्थिति
- आग लगाकर जमालो दूर खड़ी – झगड़ा लगाकर अलग हो जाना
- सारी रामायण सुन गये, सीता किसकी जाये (जोरू) – सारी बात सुन जाने पर साधारण सी बात का भी ज्ञान न होना
- मन चंगा तो कठौती में गंगा – हृदय पवित्र तो सब कुछ ठीक
- अशर्फी की लूट और कोयले पर छाप – मूल्यवान वस्तुओं को नष्ट करना और तुच्छ को सँजोना
- कहाँ राजा भोज कहाँ भोजवा (गंगू) तेली – छोटे का बड़े के साथ मिलान करना
- इतनी-सी जान, गज भर ही जबान – छोटा होना पर बढ़-बढ़कर बोलना
- हंसा थे सो उड़ गये, कागा भये दीवान – नीच का सम्मान
- भागते भूत की लँगोटी ही सही – जाते हुए माल में से जो मिल जाय वही बहुत है
- अपना ढेंढर न देखे और दूसरे की फूली निहारे – अपना दोष न देखकर दूसरों का दोष देखना
- गुरु गुड़ चेला चीनी – गुरु से शिष्य का ज्यादा काबिल हो जाना
- हाथी चले बाजार, कुत्ता भूँके हजार – उचित कार्य करने में दूसरों की निन्दा की परवाह नहीं करनी चाहिए
- आँख का अंधा नाम नयनसुख – गुण के विरुद्ध नाम
- देशी मुर्गी, विलायती बोल – बेमेल काम करना
- ईंट का जवाब पत्थर – दुष्ट के साथ दुष्टता करना
- बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद – मूर्ख गुण की कद्र करना नहीं जानता
- मँगनी के बैल के दाँत नहीं देखे जाते – मुफ्त मिली चीज पर तर्क व्यर्थ
- आप भला तो जग भला – स्वयं अच्छे तो संसार अच्छा 20. चमड़ी जाय, पर दमड़ी न जाय – महा कंजूस
- हाथ कांगन को आरसी क्या? – प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण क्या
- एक तो करेला आप तीता दूजे नीम चढ़ा – बुरे का और बुरे से संग होना
- काला अक्षर भैंस बराबर – निरा अनपढ़
- दमड़ी की हाँड़ी गयी, कुत्ते की जात पहचानी गयी – मामूली वस्तु में दूसरे की पहचान
- हाथी के दाँत दिखाने के और, खाने के और – बोलना कुछ, करना कुछ
- ओस चाटने से प्यास नहीं बूझती – अधिक कंजूसी से काम नहीं चलता
- ऊँची दूकान फीका पकवान – बाहर ढकोसला भीतर कुछ नहीं
- रस्सी जल गयी पर ऐंठन न गयी – बुरी हालत में पड़कर भी अभिमान न त्यागना
- का बर्षा जब कृषि सुखाने – मौका बीत जाने पर कार्य करना व्यर्थ है
- तेली का तेल जले और मशालची का सिर दुखे (धाती फाटे) – खर्च किसी का हो और बुरा किसी और को मालू हो
- बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल – श्रेष्ठ वंश में बुरे का पैदा होना
- लूट में चरखा नफा – मुफ्त में जो हाथ लगे, वही अच्छा
- एक म्यान में दो तलवार – एक स्थान पर दो उग्र विचार वाले
- ठठेरे-ठठेरे बदलौअल – चालाक को चालक से काम पड़ना
- न देने के नौ बहाने – न देने के बहुत-से बहाने
- मेढ़क को भी जुकाम – ओछे का इतराना
- ऊँट किस करवट बैठता है – किसकी जीत होती है
- काठ की हाँड़ी दूसरी बार नहीं चढ़ती – कपट का फल अच्छा नहीं होता
- मियाँ की दौड़ मस्जिद तक – किसी के कार्यक्षेत्र या विचार शक्ति का सीमित होना
- नाच न जाने आँगन टेढ़ा – खुद तो ज्ञान नहीं रखना और सामग्री या दूसरों को दोष देना
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