Wednesday, 11 October 2017

उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज में उपस्थित उन सामाजिक बुराइयों का वर्णन कीजिये जिनके खिलाफ सुधार आंदोलन चलाये गए थे।


उन्नीसवीं सदी में बुद्धिजीवी शिक्षित वर्ग धीरे-धीरे यह स्वीकार करने लगे थे कि भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों एवं जड़ता को दूर करने के लिये सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों की तत्काल जरूरत है। ये वो लोग थे जो आधुनिक पश्चिमी शिक्षा के मानवतावाद, विवेक पर आधारित सिद्धांतों और आधुनिक विज्ञान से तो प्रभावित थे ही, उनकी परम्परागत भारतीय विचारों एवं संस्थाओं में भी आस्था थी।
उस समय भारतीय समाज में निम्नलिखित सामाजिक बुराइयाँ उपस्थित थी-
सती प्रथाः- हिंदू समाज में पति की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा पत्नी को भी पति की लाश के साथ चिता में जिंदा जलने के लिये बाध्य किया जाता था राजा राम मोहनराय ने इस अमानवीय और अनैतिक प्रथा का घोर प्रतिरोध किया। राजा राम मोहनराय के प्रयासों से ही 1829 में बैंटिक ने इस प्रथा पर रोक लगाई थी।
नारी की अशिक्षाः उस समय का समाज नारी की औपचारिक शिक्षा का हिमायती नहीं था। राजा राम मोहन राय, हेनरी विवियन डेरोजियो और ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों ने समाज के उत्थान के लिये नारी-शिक्षा की पुरजोर वकालत की।
विधवा पुनर्विवाह की मनाहीः तात्कालिक समाज विधवा पुनर्विवाह को मान्यता नहीं देता था। जबकि, पुरुषों के लिये बहुविवाह की भी स्वीकृति थी। ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे विद्वानों ने इस बुराई विरोध में जोरदार आंदोलन चलाया जिसके परिणामस्वरूप 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून पारित हुआ।
इन सबके अलावा भी उन्नीसवीं सदी के भारतीय समाज में अशिक्षा, धार्मिक कर्मकाण्ड, पाश्चात्य शिक्षा के प्रति विरोध का भाव, बाल-विवाह और छूआछूत जैसी अनेक सामाजिक बुराइयाँ उपस्थित थी। उस समय के समाज सुधारक भी समझ चुके थे कि यदि भारतीय समाज को विदेशी प्रभुत्व के विरूद्ध एकजुट करना है तो पहले उसमें व्याप्त सामाजिक बुराईयों को दूर कर उनकी चेतना को जागृत करना होगा। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये अनेक सुधार आंदोलन चलाए गए।