Thursday, 25 October 2018

बुजुर्गों की देखभाल का प्रश्न

Question of elderly care 


समाज के बदलते परिदृश्य का सबसे गहरा प्रभाव संबंधों पर पड़ा है। माता-पिता और संतान के बीच के संबंध भी दबाव में आ गए हैं। इसका प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि 1992 में जहाँ अकेले या अपने जीवनसाथी के साथ रहने वाले बुजुर्गों का प्रतिशत 9 था, वहीं यह 2006 में बढ़कर 19 हो गया है। प्रजातांत्रिक परिवर्तनों के साथ होता आधुनिकीकरण, प्रगति के लिए बढ़ता प्रवास और व्यक्तिवादी संस्कृति, कुछ ऐसे कारण हैं, जिन्होंने समाज को इस ओर धकेला है। इस प्रवृत्ति के कारणों को कुछ बिन्दुओं में भी विभाजित किया जा सकता है।

बढ़ती जीवनावधि एवं घटती प्रजनन दर का अर्थ है, बुजुर्गों की बढ़ती जनसंख्या एवं इसका भार उठाने के लिए कम होते बच्चे। 1991 के बाद से ही एकल परिवारों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। इनमें से 70 प्रतिशत एकल परिवार हैं।

बेहतर आर्थिक अवसरों के चलते, युवा वर्ग अब जल्दी ही घर से दूर जाने लगे हैं। ऐसा भी नहीं कि ये आसपास के क्षेत्रों तक ही जाते हों। परिवार के युवा सदस्य नौकरी या काम के लिए दूरदराज या विदेशों में जाकर रहने लगे हैं। 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि 2011 से 2016 के बीच लगभग 90 लाख लोग प्रतिवर्ष शिक्षा या काम के लिए स्थानांतरित होते रहे। शहरों में अधिकतर एकल परिवार हैं। केवल 8.3 प्रतिशत शहरी बुजुर्ग संयुक्त परिवारों में रह रहे हैं।

पश्चिमी प्रभाव के चलते परिवार के वयस्क बच्चों की ऐसी संख्या में बहुत कमी आई है, जो माता-पिता की सेवा को अपना दायित्व समझते हों। 1984 में ऐसी सेवा परायण संतानों की संख्या 91 प्रतिशत थी, जो अब घटकर 51 प्रतिशत रह गई है।


सरकारी प्रयास

बुजुर्गों की बढ़ती सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक असुरक्षा को देखते हुए सरकार ने 2007 में माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007 लागू किया। इससे माता-पिता के भरण-पोषण के लिए मासिक भत्ते की तरह आर्थिक सहायता देना, संतान का कानूनी दायित्व बन गया। 2018 में इस कानून का विस्तार करते हुए गैर जिम्मेदार संतानों को जेल भेजने का भी प्रावधान कर दिया गया। इस कानून की सहायता से पीड़ित बुजुर्ग, अपना अधिकार प्राप्त कर सकेंगे।

आर्थिक सुरक्षा के अलावा पारिवारिक मधुरता के मामले में कानून भी कुछ नहीं कर सकता। बुजुर्गों में एकाकीपन की समस्या बढ़ती जा रही है। कुल बुजुर्गों में से आधे तो उदासी एवं उपेक्षा का जीवन जी रहे हैं। कुछ को लगता है कि वे बोझ हैं। 2050 तक हर पाँच में से एक व्यक्ति 60 से ऊपर का होगा। छोटे परिवार के बढ़ते चलन और प्रवास की जरूरत के कारण भविष्य का स्वरूप धुंधला दिखाई पड़ता है।

दूसरी ओर, समाजशास्त्रियों का मानना है कि निरंतर आते परिवर्तनों की ओर सोचना एवं उसे अंगीकार करना चाहिए। इसका एक विकल्प वृद्धाश्रमों के रूप में सामने आता है। वृद्धाश्रमों का एक उत्कृष्ट रूप सहायता प्राप्त जीवनयापन है, जिसमें वृद्ध दंपत्ति एक तंत्र की सहायता से जीवन जी सकते हैं। इस प्रकार की सोसायटी में उनके लिए चिकित्सक, आया, मनोरंजन आदि की व्यवस्था होती है। समय-समय पर उनके बच्चे भी उनसे मिलने आते रहते हैं। इस प्रकार के विकल्प से संतानों के ऊपर बढ़ता दबाव कम हो जाता है। 2011-15 के बीच, केरल में इस प्रकार के वृद्धाश्रमों में रहने वालों की संख्या 69 प्रतिशत बढ़ गई है।

भारतीय समाज अनेक प्रकार के आर्थिक परिवर्तनों का सामना कर रहा है। यह सामान्य सी बात है कि प्रगति के बढ़ते अवसरों के चलते परिवार का परंपरागत स्वरूप चला पाना संभव नहीं है। देखना यही है कि बढ़ते आर्थिक अवसरों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ अपने परंपरागत मूल्यों एवं नैतिक दायित्वों के बीच हम संतुलन कैसे बना पाते हैं।