वायसराय लॉर्ड रिपन के कार्यकाल के दौरान 1883 ईo में इल्बर्ट बिल लाया गया था। इस बिल के द्वारा भारतीय न्यायाधीशों को उन मामलों की सुनवाई करने का भी अधिकार प्रदान कर दिया गया जिनमें यूरोपीय नागरिक भी शामिल होते थे। गौरतलब है कि इससे पहले यूरोपीय व्यक्तियों से संबंधित मामलों की सुनवाई केवल यूरोपीय न्यायाधीश ही करते थे। यही कारण था कि सम्पूर्ण यूरोपीय समुदाय ने इस बिल के विरोध में आन्दोलन शुरू कर दिया। वस्तुतः यूरोपीय लोगों ने इस आधार पर बिल का विरोध किया कि न्यायालय का कोई भी भारतीय सदस्य यूरोपीय अपराधियों के मामलों की सुनवाई करने के लिये उपयुक्त नहीं है। इसे ही इल्बर्ट बिल विवाद कहा जाता है। इस बिल के अत्यधिक विरोध के चलते वायसराय ने इसे वापस ले लिया था।
यद्यपि इस बिल का उद्देश्य न्यायपालिका में भारतीय और यूरोपीय सदस्यों के मध्य के अंतर को समाप्त करना था, परन्तु बिल के सन्दर्भ में उपजे विवाद ने भारतीयों को यह विश्वास दिला दिया कि वे ब्रिटिश सरकार से समानता की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं। राष्ट्रवादियों के भी समक्ष यह स्पष्ट हो चुका था कि जब यूरोपीयों के हित दाँव पर लगे हों तो सरकार से निष्पक्ष आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। हालाँकि, यह उन भारतीयों के लिये भी एक महत्त्वपूर्ण सबक था जो ब्रिटिश विरोधी सिद्धांतों को दूर करने के साधन तथा मार्ग तलाश रहे थे। शिक्षित भारतीय मध्य वर्ग ने संगठित बैठकों, प्राधिकारियों को ज्ञापन भेजकर और समाचार पत्रों के कॉलम और लेखों के माध्यम से अपने पक्ष को रखने का प्रयास किया। इल्बर्ट बिल विवाद के पश्चात दिसंबर 1883ईo में प्रथम भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें सम्पूर्ण भारत के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इन प्रतिनिधियों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा किये जाने वाले नस्लीय भेदभाव की भी निंदा की थी।
इस आन्दोलन के बहुत महत्त्वपूर्ण परिणाम हुए। इससे भारतीयों के निकट स्पष्ट हो गया कि संगठन तथा सार्वजनिक आन्दोलन कितना फलदायी होता है। भारतीयों में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सरीखे लोगों ने इस आन्दोलन से काफी सबक लिया। एक साल के अन्दर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में 'भारतीय राष्ट्रीय कोष' की स्थापना की गई तथा 1883 ईo में कलकत्ता में 'इंडियन नेशनल कान्फ्रेंस' हुई, जिसमें भारत के सभी भागों से आये हुए प्रतिनिधियों ने भाग लिया। दो साल बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। यह जातीय द्वेष भाव से प्रेरित गोरों के उन्मत्तता पूर्ण आन्दोलन का भारतीय प्रत्युत्तर था।
निश्चित तौर पर इल्बर्ट विवाद ने भारत के शिक्षित मध्यम वर्ग पर गहरा प्रभाव डाला, और पहली बार मध्यम वर्ग को अपने अधिकारों की रक्षा करने और उन्हें बढ़ावा देने के लिये एक मजबूत एवं व्यापक प्रभाव वाले राजनीतिक संगठन की आवश्यकता महसूस हुई।