Wednesday, 9 August 2017

पंचायती राज व्यवस्था


स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय सभ्यता गाँवों की सभ्यता थी। ग्रामीण जनता स्थानीय मामलों का स्वत: ही प्रबंध करती थी। ग्रामीण जीवन प्रणाली स्वतन्त्र थी, किन्तु ब्रिटिश शासन की स्थापना के पश्चात् गाँवों का स्वतन्त्र जीवन लगभग समाप्त हो गया। नये-नये कानूनों और अदालतों के बन जाने से पंचायतों का महत्व समाप्त हो गया।

चिन्तनात्मक विकास:-

सन् 1947 में देश स्वतन्त्र हो गया। भारत में प्रजातन्त्र के सच्चे स्वरूप को अपनाया गया। प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की नीति को प्रशासन का आधार बनाया गया। परिणामस्वरूप ग्राम-पंचायतों के संगठन हेतु प्रभावी कदम उठाए गए।
पुन: इनकी स्थापना, महत्व एवं उपयोगिता में वृद्धि हो गई। 73वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा ग्रामों में पंचायती राज की स्थापना हेतु त्रिस्तरीय को अपनाया गया एवं इनकी शक्तियों एवं कार्यो में विस्तार किया गया।
पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों में मतदाताओं एवं प्रत्याशियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन करने हेतु प्रयास किये गये। पंचायती राज को अनेक उपलब्धियों के बाद भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा है। पंचायती राज संख्याओं की सफलता के लिए समस्याओं के निराकरण हेतु अनेक प्रभावी कदम उठाये गए एवं सुझाव दिये गये।

उपसंहार:-

पंचायती राज का संबंध ग्रामीण विकास से सम्बंधित है। ग्रामीण विकास पर ही भारत का विकास निर्भर है। अत: पंचायती राज की सफलता हेतु आवश्यक है कि समस्याओं का अधिकाधिक समाधान किया जाये। नीतियाँ एवं कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर बनाये जायें एवं लागू किये जाएं और ग्रामीण समस्याओं के प्रति हमारे राजनेता सचेत रहें।
भारत गाँवों का देश है । अत: गाँवों की उन्नति एवं विकास पर ही भारत का सम्पूर्ण विकास सम्भव है । भारत के संविधान निर्माता भी इस बात से पूर्ण परिचित थे । इसीलिए स्वतन्त्रता प्राप्ति और उसे स्थायी बनाने हेतु ग्रामीण शासन व्यवस्था की ओर अधिक ध्यान दिया गया।
हमारे संविधान में भी यह निर्देश दिये गए हैं कि राज्य ग्राम पंचायतों के निर्माण के लिए कदम उठाएगा और उन्हें इतनी शक्ति और अधिकार प्रदान करेगा जिससे कि वे ग्राम-पंचायतें स्वशासन की इकाई के रूप में कार्य कर सकें।
हमारी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था भी इस विचारधारा पर आधारित है कि शासन जनता के लिए हो और जनता भी शासन के कार्यो में हाथ बंटाए। भारत में यह अधिक से अधिक प्रयास किया जाता है कि ग्रामीण जनता भी शासन के कार्यो में हाथ बटाए।
इसलिए भारत की ग्रामीण जनता हेतु पंचायती राज ही एकमात्र उपयुक्त उपाय है। पंचायतें हमारे राष्ट्रीय जीवन की रीढ है, जिस पर सम्पूर्ण शासन व्यवस्था आधारित है। ग्राम पंचायतों का इतिहास भारत में बहुत पुरातन है। प्राचीनकाल में ग्रामीण झगडों का निपटारा ग्राम पंचायतें ही करती थीं।
किन्तु भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के पश्चात् पंचायतें शनै:- शनै: लगभग समाप्त हो गयीं थीं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में पुन: पंचायती राज की स्थापना की ओर ध्यान दिया गया । भारतीय संविधान केर अनुच्छेद 40 में कहा गया है कि राज्य राम पंचायतों का संगठन करने के लिए प्रभावी कदमइ उठायेगा।
1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम और तत्पश्चात् पंचायती राज की शुरुआत हुई। पंचायतों के गठन के लिए विभिन्न राज्यो द्वारा जो कानून बनाए गये थे उनकी जाँच-पडताल के लिए 1957 में बलबन्त राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई।
समिति ने 1958 में अपनी रिपोर्ट दी। समिति ने पंचायती राज की स्थापना के लिए कुछ मूलभूत सिद्धान्त निर्धारित किए और एक त्रिस्तरीय ढाँचे की सिफारिश की, जिसका तात्पर्य है कि तीन स्तरों पर समितियां बनाईं जाये-ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायतें हो, खण्ड स्तर पर पंचायत समितियां तथा जिला स्तर पर एक जिला परिषद कायम की जाए। अर्थात् ‘ग्रामों’ का समूह ‘खण्ड’ कहलाता है और खण्डों के समूह को ‘जिला’ कहते हैं।
मेहता समिति की सिफारिशें सबसे पहले राजस्थान और आध प्रदेश द्वारा स्वीकार की गई। तत्पश्चात् तमिलनाडु मे पंचायतों का गठन किया उड़ीसा, कर्नाटक, असम, पश्चिम बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों ने पंचायती राज की स्थापना के लिए विशेष उत्साह दिखलाया।
मेद्यालय और नागालैण्ड को छोड़कर अब देश के सभी राज्यों में पंचायती राज लागू हो गया है । इस समय देश में दो लाख बीस हजार ग्राम पंचायतें, लगभग पाँच हजार पाँच सौ पंचायत समितियां और तीन सौ इकत्तहर जिला परिषदें हैं।
वर्तमान समय में पंचायती राज व्यवस्था की अत्यधिक उपयोगिता है। इसीलिए इसे अनेक अधिकार, साधन और जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं। प्रथम, पंचायती राज व्यवस्था भारत में प्रजातान्त्रिक राज व्यवस्था को ठोस आधार प्रदान करती है जिसके कारण शासन जनता द्वारा संचालित होता है और ग्रामवासियों की भी शासन व्यवस्था के प्रति रुचि जागृत होती है।
द्वितीय, केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों की समस्याओं को ये संस्थायें कम करती है क्योंकि शासकीय शक्तियों एवं कार्यों का विकेन्द्रीयकरण होता है जिसके कारण शासकीय सत्ता गिने-चुने लोगों के हाथ में न रहकर पंचायती कार्यकर्ताओ के हाथ में पहुँच जाती है।
तृतीय, पंचायतें प्रजातन्त्र की प्रयोगशालाएं होती हैं जो राजनीतिक अधिकारों के लिए नागरिकों को शिक्षा देती हैं, साथ ही उनमें नागरिक गुणों का विकास करती हैं। चतुर्थ, हमारी ग्रामीण जनता पंचायती राज व्यवस्था के कारण शासन के बहुत करीब पहुँच जाती है परिणामस्वरूप जनता एवं शासन में एक-दूसरे की समस्याओं को समझने व उसके समाधान हेतु भावनाएँ उत्पन्न होती हैं और ग्रामीण उत्थान संभव होता है। पंचम, पंचायते के कार्यकर्ता और पदाधिकारी स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच कडी हैं।
इन् स्थानीय पदाधिकारियों के बिना, ऊपर से प्रारम्भ किए हुये राष्ट्र निर्माण के क्रियाकलापों का चलन जटिल होता है। इन लोगों के सहयोग के बिना सरकारी अधिकारियों का काम भी मुश्किल है जाता है। षष्ठम, भारत का भावी नेतृत्व करने हेतु ये अत्यन्त सुदृढ एवं शक्तिशाली संस्थायें हैं विधायकों एव मन्त्रियों को प्राथमिक अनुभव और प्रशिक्षण प्रदान करती हैं जिससे वे ग्रामीण मारा की समस्याओ से अवगत होते हैं।
इस प्रकार गाँवों में उचित नेतृत्व का निर्माण करने एव विकार कार्यो में जनता की रुचि बढ़ाने में पचायतों का प्रभावी योगदान रहता है। स्पष्ट है कि भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सफलता हेतु पंचायती राज व्यवस्था का होने आवश्यक है। इनका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण विकास के प्रयासों और जनता के मध्य तादाल्म स्थापि करना है।
संविधान में संशोधन द्वारा पचायती राज संस्थाओं को सांविधानिक मान्यता प्रदान की गई है। 25 अप्रैल, 1993 से 73वां संविधान सशोधन अधिनियम 1993 लागू किया गया जिसकी कुछ विशेषताएँ जो इस प्रकार हैं; पहली, ग्राम सभा ग्रामीण स्तर पर ऐसी शक्तियों का प्रये करेगी और ऐसे कार्य करेगी जो राज्य विधानमण्डल विधि बनाकर उपबंध करें।
दूसरी, प्रत्येक राज्य में ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर और जिला स्तर पर पचायती राज संस्थाओं का गठन किया जाएगा, किन्तु उस राज्य में जिसकी जनसख्या 20 लाख से अधिक नहीं है वहाँ मध्यवर्ती स्तर पंचायतों का गठन करना आवश्यक नहीं होगा।
तीसरी, राज्य विधानमडलों को विधि द्वारा की संरचना हेतु उपबध करने की शक्ति प्रदान की गई है, परन्तु किसी भी स्तर पर के प्रादेशिक क्षेत्र की जनसख्या और ऐसी पंचायत में निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों सख्या के मध्य अनुपात समस्त राज्य में यथासंभव एक ही होगा।
प्रत्येक पंचायत क्षेत्र की सख्या के म्हपात में अनुसूचित जातियों एव अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित। आरक्षित स्थानों में से एक-तिहाई स्थान अनुसूचित जातियो और जनजातियों की स्त्रियों लेए आरक्षित रहेंगे। चौथी, पंचायतो का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया। यदि पंचायते भंग की तो उनके चुनाव छह महीनों के भीतर कराने होंगे। पाँचवी, पंचायतों की वित्तीय स्थिति का क्षण करने हेतु वित्त आयोग का गठन किया गया।
वित्त आयोग जिन विषयों पर राज्यपाल अपनी सिफारिशे पेश करेगा वे हैं-ऐसे करो, शुल्कों, पथ करों और फीसों कीमर्दर्शाना जो पतों को प्रदान की जा सकें, राज्य की संचित निधि में पंचायतों के लिए सहायता अनुदान पचायतों की वित्तीय स्थिति में सुधार हेतु उपाय बताना। छठी, पंचायत के निर्वाचन के लिए निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है। इसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश औति ही इसके पद से हटाया जा सकता है।
सातवीं, वे संशोधन में 11वी अनुसूची जोड है जिसमें इसके कार्य ये बताए गये; कृषि विस्तार, भूमि सुधार, भूमि संरक्षण, लघु सिंचाई, संबंध, पेयजल, लघु उत्पादन, लघु उद्योग, ईधन व चारा, पुस्तकालय, लोक वितरण प्रणाली, कल्याण कार्यक्रम, सांस्कृतिक क्रियाकलाप, गरीबी उन्तुलन कार्यक्रम, समाज के कमजोर कल्याण, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता सम्बंधी सुविधायें, प्रौढ और अनौपचारिक शिक्षा, तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा, मल्ल उद्योग, पशुपालन, खादी, ग्राम और कुटीर उद्योग, सामाजिक और फार्म बनीद्योग, ग्रामीण आवास, ग्रामीण विद्युतीकरण, सड़कें, पुलिया, पुल, जलमार्ग व संचार के अन्य साधन, स्त्री और बाल विकास, परिवार कल्याण आदि सुविधायें उपलब्ध कराना।
अत: भारतीय संविधान का हिस्सा बन जानें के कारण पंचायती राज्य संस्थाओं के अधिकारों, दायित्वों त्त साधनों को उनसे छीना नहीं जा सकेगा। वौ संविधान संशोधन पंचायती राज संस्थाओं एकरूपता लाने का प्रयास है। अभी तक पंचायती व्यवस्था की असफलता का कारण न केराना रहा है और उन्हें बार-बार भंग या स्थगित किया जाना रहा है जबकि भारत में राज की स्थापना निर्वाचन-व्यवस्था और वयस्क मताधिकार जागृत जैसे लोकतान्त्रिक स्तम्भों पर ही रखी गई है।
पंचायती राज के संचालन का आधार विभिन्न स्तरों पर त्मक चुनावों को ही बनाया गया है, ताकि (1) ग्रामवासियों में स्थानीय समस्याओं के प्रति मृत हो, (2) ग्रामीण जनता में राजनीतिक जागरूकता बड़े, (3) मताधिकार का उचित, (4) मताधिकार के प्रयोग का प्रारम्भिक प्रशिक्षण दिया जा सके तथा (5) मतदाताओं सीनता दूर करना क्योंकि चुनाव ही हमारे स्वराज्य की नींव है ।
किन्तु भारत में पंचायती। प्रगति धीमी ही रही। इसका कारण ग्रामीण मतदाताओं के दृष्टिकोण में संकुचन और ता ही रहा है। ग्रामीण लोगों ने पंचायती संस्थाओं के चुनावों में पंचपरमेश्वर की पवित्र भुला दिया है जिससे पंचायती संस्थाओं का धरातल ही डगमगाने लगा है।
यदि पंचायती राज्य संस्थाओं के चुनाव विश्लेषणों का अध्ययन करें तो विभिन्न स्थितियों से स्पष्ट हो जायेगा की ग्रामीण जनता किस प्रकार से अपने मताधिकार का प्रयोग करती है:-
(1) पंचायती चुनाव में जनता योग्यतम एवं अनुभवी व्यक्तियो को मत देने की बजाय धर्म एवं जाति के आधार मतदान का प्रयोग करती है।
(2) कई उम्मीदवार तो मतदाताओं को पूस देकर उनका खरीद लेते है।
(3) अधिकाश लोग चुनावों एवं मतदान के प्रति कोई रुचि नहीं दिखलाते।
(4) राजनीतिक गुटबन्दी के आधार पर मतदाता अपने मतदान का उपयोग करते हैं, जिससे जनता दो गुटों में विभक्त हो जाती है और ग्रामीण एकता को बहुत आधात पहुँचता है।
मतदाता की दृष्टि से नागरिक के मुख्य कर्तव्य वोट देना, ईमानदारी एवं निष्ठा से वोट देना समझदारी से वोट देना है। गाँधीवादी दार्शनिक काका कालेलकर का कहना है कि ”ग्रामीण ओं को चाहिए कि पंचायती राज संस्थाओं में अपने प्रतिनिधियों को उस दृष्टि से चुनें दृष्टि से हम मरीज के लिए डॉक्टर चुनते हैं।
वोट देने वालो को दो बाते देखनी चाहियें- कि किन व्यक्तियों द्वारा गाँवों का हित हो सकता है और द्वितीय, उन उम्मीदवारों का चरित्र है या नहीं।”  पण्डित नेहरु के अनुसार ”मैं पंचायती राज के प्रति पूर्णत: आशान्वित हूँ। राज संस्थाओं की सफलता की कुंजी गाँवों के हजारों-लाखों मतदाता ही हैं । बस करा है उनकी मनोवृत्तियों को सुधारने की।”
अत: भारत में पंचायती राज का आरम्भ एक ऐतिहासिक घटना ही कहा जा सकता है। पंचायती को सफलता कम ही मिली है। प्रोफेसर रजनी कोठारी के अनुसार इन संस्थाओं ने नए नेताओं को जन्म दिया है जो आगे चलकर राज्य और केन्द्रीय सभाओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों से अधिक शक्तिशाली हो सकते हैं।
कांग्रेस और अन्य दलों के राजनीतिज्ञ इन संस्थाओ उण्ट लगे हैं। अब वे राज्य-विधानमण्डल की बजाय पंचायत समिति और जिला परिषदो देने लगे हैं। पण्डित नेहरु ने भी कहा था “मैं पंचायती राज्य के प्रति पूर्णत: आशान्वित हूँ। में महसूस करता हूँ कि भारत के संदर्भ में यह बहुत-कुछ मौलिक एवं क्रान्तिकारी है।”
पंचायती व्यवस्था ने देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिका नकल ! देश को आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर किया है तथा भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में की उपस्थिति ने ग्रामीण जनता को जागरुकता प्रदान की है।
किन्तु यह कहना असत्य होगा कि विगत कुछ वर्षों से इन संस्थाओं ने विशेष उत्साह नहीं दिखाया है। ये ग्रामीण में नवीन विश्वास, आस्था एवं चेतना स्थापित करने में असफल रही हैं। किन्तु इसका अर्थ नहीं कि ये संस्थायें असफल हो गई हैं। कुछ राज्यों में तो इनके कार्य सराहनीय हैं और अन्तर्गत नागरिक सुविधाओं का अधिकाधिक ध्यान रखा गया है।
भारतीय पचायत राज ओं के समक्ष अनेक समस्यायें हैं, जिनका निराकरण करना अति आवश्यक है। यह समस्यायें थम, यह आशा थी कि पंचायती राज से वास्तव में सत्ता का विकेन्द्रीयकरण होगा तथा गाँवों अनुभव करेंगे कि शासन कार्यों का संचालन वह स्वय करेंगे।
वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। पंचायतों पर बड़े-बड़े किसानों और समाज के कुछ विशेष वर्गो की प्रभुता पाई जाती है। सरका पंचायतें ‘जनशक्ति’ का प्रतीक नहीं बन पाई है। नये अधिनियम द्वारा यह आशा सकती है कि प्रत्येक पिछड़े वर्गो एवं महिलाओं को प्रत्येक स्तर पर उचित प्रतिनिधित्व।
द्वितीय, पंचायतों के चुनावों में सर्वत्र राजनीतिक दलों की घुसपैठ देखने को मिलती पंच व सरपंच हेतु योग्य व्यक्तियों का चुनाव नहीं हो पाया। तृतीय, जिलाधीश तथा अन्य पंचायती संस्थाओं के कार्यो में अनावश्यक हस्तक्षेप करते है । हस्तक्षेप एवं दबावों के अधिकारी वर्ग गलत कार्य कर बैठते हैं । चतुर्थ, अशिक्षा एवं अज्ञानता के कारण गाँव वालों को आपसी झगडो से ही छुट्टी नहीं मिलती।
गाँवों में हिंसा का वातावरण व्याप्त है। अधिकांश लोग ढिलाई एव आलस के कारण विकास कार्यों में रुचि नहीं लेते। पचम, पचायतो के आय के साधन भी बहुत सीमित हैं जबकि ग्रामीण जनता के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। सरकार से मिलने वाला अनुदान पर्याप्त नहीं होता। इसीलिए इनका जीवन-स्तर निम्न होता है।
इसलिए वित्त व्यवस्था की गई है कि हर राज्य में एक वित्त आयोग का गठन किया जायेगा। वित्त आयोग पचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करके उनके वित्तीय आधार को मजबूत बनाने की कोशिश करेगा। हर पांच वर्ष के बाद एक नये वित्तीय आयोग का गठन किया जाएगा। षष्ठम, इस बात पर भी अभी तक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है कि पंचायती राज का ढांचा क्या हो। नये अधिनियम में त्रिस्तरीय ढाँचे का प्रावधान है, परन्तु 20 लाख से कम की आबादी वाले राज्यों में दो स्तरीय पंचायतें होंगी।
जबकि देखने में आता है कि जन्तु-कश्मीर में एकस्तरीय ढाँचा है। हिमाचल प्रदेश, उडीसा में द्विस्तरीय ढाँचा कायम किया गया है। इन समस्याओं के अतिरिक्त भी कुछ समस्यायें हैं, जैसे-राजनीतिक जागरुकता की कमी, विकास कार्यो की उपेक्षा, शासकीय अधिकारियों एवं निर्वासित प्रतिनिधियों में सहयोग की कमी इत्यादि। भारतीय समृद्धि का आधार भारतीय गाँव हैं और गाँवों के सर्वागीण विकास पर ही भारत का विकास निर्भर है और ग्रामीण विकास पंचायतों के सफलतापूर्ण संगठन पर ही निर्भर है।
अत: पंचायती राज की सफलता हेतु कुछ सुझाव दिये जा सकते हैं, जो इस प्रकार हैं- पंचायतों र्क वित्तीय हालत सुधारनी होगी, पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण दिया जाये, अधिकारिये को पंचायतों के मित्र, दार्शनिक एवं पथ-प्रदर्शक के रूप में कार्य करना चाहिए, पंचायती रार संस्थाओं में व्याप्त गुटबन्दी को समाप्त किया जाये और पंचायतों के चुनावों में मतदान को अनिवा करना होगा एवं जो मतदाता चुनाव में भाग न ले, उन पर जुर्माना लगाया जाए जो पचास रुप से अधिक न हो।
राजनीतिक दृष्टि से पचायती राज संस्थाओं का भारत में अत्यधिक महत्व है। पंचायतों चुनावों में राजनीतिक दल भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगे हैं और पंचायतों को भी रष्ट्रि एव राज्य स्तर की राजनीति का आधार माना जाने लगा है। लोकसभा और विधानसभा के चुना में सफलता प्राप्त करने हेतु राजनीतिक दल और उनके नेता यह अनुभव करने लगे हैं कि पंचायर पंचायत समितियों और जिला परिषदों पर अधिकार किया जाना अपरिहार्य है।
अत: ग्रामीण नेतृत्व विकसित हो रहा है क्योंकि ‘सरपंच’, ‘प्रधान’ और ‘जिला प्रमुख’ अधिक प्रभावक भूमिका कर रहे हैं। पंचायती राज के माध्यम से भारत की शासन प्रणाली में एक नवीन एवं सजीव प्रण की नींव रखी जा चुकी है और इसके परिणामस्वरूप भारत की पंचायती राज व्यवस्था में आ उतार-चढाव देखने को मिलते हैं:-
(i) पंचायती राज के माध्यम से उत्साही कार्यकर्ताओं में स्थान मिल गया और उन्हे आगे बढने के लिए प्रशिक्षण एवं ट्रेनिंग की सुविधायें उपलब्ध हो गई।
(ii) पंचायती राज का दूरगामी प्रभाव यह हुआ कि ग्रामीण राजनीति मे गतिशीलता एवं बढ़ गई। ऐसी व्यवस्था की गई जिससे की गावों के सरपंच अपने अधिकारों का प्रयोग न्यायो एवं दूरदर्शिता के साथ कर सकेगे एवं राजनीतिक अनुशासन को बनाये रखेंगे।
(iii) पंचायतों का चुनाव लोकसभा एवं विधानसभा के चुनावों की भाँति होता है जिसके कारण ग्रामीण में गुटबन्दी की भावनाएँ विकसित हो गई है और राजनीति के अखाडे बनते जा रहे है।
(iv) 73वें संविधान संशोधन द्वारा पिछडी जातियों एवं महिलाओं के विकास के लिए पंचायती राज वेवस्थाओं में सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया है, जिससे कि उनमें नवीन चेतना का विकास हो सके।
(v) जिला प्रशासन और सामुदायिक विकास दोनो विभागों के कर्मचारियों को पहली बार पर्याप्त शक्ति सम्पन्न और राजनीतिक समर्थन द्वारा प्रतिरक्षित जनप्रिय सस्थाओं के एक सुसगठित जाल का सामना करना पड़ रहा है।
(vi) पंचायती राज व्यवस्था का तात्कालिक प्रभाव यह था कि ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य पार्टियो की तुलना मे काग्रेस की ताकत पहले से भी अधिक हो गई।
(vii) इनके माध्यम से सम्पर्क सूत्र की राजनीति का विकास हुआ। गाँव, जिलो व राज्यों के मुख्यालयों से जुड़ने लगे। राज्यस्तरीय नेता ऐसी जोड़-तोड़ करने लगे कि उनके गुट एवं पार्टी के व्यक्ति पंचायतों में आयें ताकि उनका समर्थन मजबूत बन सके। पंचायती संस्थाएं एवं नेतृत्व गाँवों को राजनीति से जोड़ने की महत्वपूर्ण कड़ी हैं।

निष्कर्षत:-

पंचायती राज व्यवस्था में व्याप्त विष को काबू करने के लिए वास्तविक सत्ता सम्पन्न लोकतान्त्रिक स्थानीय संस्थाओं की स्थापना आवश्यक है क्योंकि वर्तमान व्यवस्था का लोकतान्त्रिक स्वरूप प्राय: लुप्त होता जा रहा है। अत: प्रशासनिक तनाव को समाप्त करना अत्यावश्यक है।