भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अनुसार आत्महत्या को अन्य अपराधों की तरह माना गया है किंतु वर्तमान में न केवल माननीय सर्वोच्च न्यायालय के नजरिये में परिवर्तन हो गया है अपितु दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक और विकसित देशों में आत्महत्या को अपराध नहीं माना जाता है।
इसके दो पक्ष हैं- पहला, अपराध मानने से वह आत्महत्या के लिये प्रेरित नहीं होगा। दूसरा, अपराध मानने का नुकसान यह है कि जो पहले से ही मानसिक रूप से परेशान है, वह और परेशान होगा तथा आत्महत्या के लिये प्रेरित होगा।
आत्महत्या के प्रयास को अपराध न मानने के पीछे निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-
⇒वर्तमान में बहुत सारी मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट्स में यह साबित हो चुका है कि आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति मानसिक रूप से डिसऑर्डर का शिकार होता है। इसलिये व्यक्ति को मनौवैज्ञानिक परामर्श लेना चाहिये और उसे सुधार का मौका देना चाहिये।
⇒मानवीय दृष्टि से यह अपराध नहीं होना चाहिये, क्योंकि अपराधी का आशय अपराध करना नहीं था। वह तो उसकी क्षणिक आवेग की स्थिति थी।
⇒सभी धर्मों में आत्महत्या या अपराधवोध से ग्रसित व्यक्ति, जो आत्महत्या करना चाहता है, के लिये सुधार का प्रावधान है।
⇒कुछ रिपोर्ट्स यह भी बताती हैं कि जैसे ही उस व्यक्ति को सजा मिलती है, वैसे ही उस व्यक्ति के अंदर अपराधबोध की भावना बढ़ती है और आत्महत्या के लिये उसके प्रयास की तीव्रता और बढ़ जाती है।
उपरोक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए सरकार ने मेंटल हेल्थकेयर एक्ट-2017 के तहत आत्महत्या के प्रयास को अपराध की सूची से अलग कर दिया गया है। पीड़ित को मानसिक चिकित्सा, रिहैबिलिटेशन सेंटर इत्यादि भेजने की व्यवस्था की गई है।
इसकी सिफारिश द्वितीयक प्रशासनिक आयोग एवं विधि आयोग ने भी की थी। आत्महत्या को अपराध घोषित करने में मानवीय, मनोवैज्ञानिक रुग्णता एवं अपने परिवार के भविष्य इत्यादि जैसे नैतिक मुद्दे भी शामिल हैं।