Wednesday 9 August 2017

‘सूखा’ को परिभाषित कीजिये। इसके कारण और इसके द्वारा उत्पन्न समस्याओ और विभिन्न सुझावो पर प्रकाश डालते हुए तथा वर्गीकरण का आधार बताते हुए भारत के सूखा-प्रभावित क्षेत्रों का उल्लेख कीजिये।


मानसूनी अनिश्चितता तथा अनियमितता के साथ-साथ वर्षा का असमान वितरण भारत में सूखे का मूल कारण है। भारत के सम्पूर्ण क्षेत्रफल के लगभग 12% भाग में औसत वर्षा 60 से.मी. से भी कम और केवल 8% भाग में ही औसत वर्षा 250 से.मी. से अधिक होती है। स्वाभाविक है कि कम वर्षा तथा अनियमित वर्षा वाले क्षेत्र प्रायः सूखा प्रभावित होते हैं ।
सिंचाई आयोग (1962) के अनुसार, ऐसे क्षेत्र को सूखाग्रस्त माना गया है जहाँ वर्षा की मात्रा 75 से.मी. या उससे कम होती है। जबकि भारत के मौसम विभाग ने ‘सूखा’ उस मौसम-स्थिति को बताया है, जिसमें मध्य मई से मध्य अक्टूबर के बीच लगातार किसी चार सप्ताह के बीच वर्षा की मात्रा 5 से.मी. से कम हो। ऐसा होना मानसून की असफलता का द्योतक भी होता है।
सूखा एक असामान्य व लंबा शुष्क मौसम होता है जो किसी क्षेत्र विशेष में स्पष्ट जलीय असंतुलन पैदा करता है। सूखा के लिये मानसून की अनिश्चितता के अतिरिक्त कृषि का अवैज्ञानिक प्रबंधन भी उत्तरदायी कारक हो सकते हैं।
सूखा कई प्रकार के होते हैं। इनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं:-
(क) वायुमण्डलीय,
(ख) कृषिगत
(ग) स्थायी और
(घ) अल्पकालिक/मौसमी।
सामान्य तौर पर यहाँ कृषिगत सूखा पाया जाता है, क्योंकि वर्षा की कमी से मृदा में नमी की मात्रा घटती है जिसका कृषि-उत्पादन पर तुरन्त दुष्प्रभाव नजर आता है
भारत का लगभग 2/3 क्षेत्र सूखे के प्रभाव में रहता है। कृषि मंत्रालय के अनुसार 14 राज्यों के 67 जिले इस समस्या से सर्वाधिक ग्रस्त हैं। ये राज्य हैं - पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा तमिलनाडु।
सूखा प्रभावित क्षेत्रों के वर्गीकरण का आधारः-
वर्षा की तीव्रता (Intensity), वर्षा के आवर्तन ;(Periodicity), संभाव्य अन्तर्भौम जल (Ground water potential) तथा कृषि उत्पाद के आधार पर सूखा की तीव्रता की पहचान तीन स्तरों पर की गई है।
(1) अत्यन्त सूखा क्षेत्र (Extreme Drought Areas)
भारत के सूखा-ग्रस्त कुल क्षेत्रों का 12% क्षेत्र इसके अन्तर्गत आता है। इस क्षेत्र में वार्षिक वर्षा 50 से.मी. से कम होती है। पष्चिमी राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा उत्तर-पश्चिम म0प्र0 के क्षेत्र इसमें आते हैं।
(2) प्रबल सूखा क्षेत्र (Severe Drought Areas)
इसके अन्तर्गत कुल सूखा-क्षेत्र का 42% क्षेत्र आता है। सामान्यतः यहाँ 50-100 से.मी. वर्षा होती है। इसके अन्तर्गत मैदान पठार का वृष्टि-छाया प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश का रायलसीमा एवं तेलंगाना प्रदेश तथा महाराष्ट्र का मराठवाड़ा एवं विदर्भ प्रदेश आते हैं।
(3) मध्यम सूखा क्षेत्र Moderate Drought Areas)
इसके अन्तर्गत सबसे अधिक कुल सूखा क्षेत्र का 46% भाग आता है। यहाँ औसत वार्षिक वर्षा 100-200 से.मी. होती है। इसमें जम्मू-कश्मीर, झारखंड का छोटा नागपुर का पठार, उड़ीसा, म.प्र. का बघेलखंड क्षेत्र तथा मध्य-पूर्व का तमिलनाडु क्षेत्र आता है।
200 से.मी. से अधिक औसत वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र में सूखे की संभावना न्यून होती है। भारत में कुल लगभग 10 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र सूखाग्रस्त है।
सूखे का कारण -
(1) मानसून की अनिश्चितता (2) वर्षा की विभिन्नता
(3) पर्वतों की दिशा (4) अनियमित चक्रवात
(5) वनों का विनाश (6) बंजर भूमि में वृद्धि
(7) मरुस्थलीकरण (8) तापमान में वृद्धि
(9) मिट्टी की संरचना (10) जल का अत्यधिक उपयोग
(11) जल-प्रबंधन पर ध्यान न दिया जाना. (12) तीव्र जनसंख्या वृद्धि, तथा
(13) नित्यवाही नदियों का अभाव, खासकर प्रायद्वीपीय भाग में
सूखे से उत्पन्न समस्याएँ
(1) सिंचाई के लिए जलाभाव (2) पेयजल संकट
(3) खाद्यान्न की कमी. (4) चारे की फसल की कमी.
(5) कच्चे माल की कमी (कृषि आधारित उद्योगों के लिए) (6) मूल्य-वृद्धि.
(7) वनस्पतियों के विकास में बाधा. (8) पारिस्थिति की असन्तुलन
(9) विद्युत उत्पादन में कमी विषेषकर जल विद्युत में)
(10) बेरोजगारी (11) मृदा-अपरदन
(12) सूखा राहत कार्यक्रम हेतु धनराशि जुटाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक परियोजनाओं को बन्द करना पड़ता है।
(13) कई प्रकार की उष्ण-कटिबंधीय बीमारियाँ/महामारी
(14) नैतिक पतन (आत्महत्या, चोरी, हत्या आदि), तथा
(15) प्रवास में वृद्धि।
सुझाव
भारत में सूखा के प्रभाव को कम करने के लिए निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं:-
(1) कृषि जलवायु (Agro-climate) के आधार पर उपयुक्त फसल का चुनाव करना
(2) शुष्क कृषि (Dry Agriculture) को अपनाना.
(3) कुछ विशिष्ट फसलों का विकास करना, जैसे - कपास - & (PRS-72, PRS-74) अरहर-AC-5 गेहूँ कल्याण, चावल - & CR38, CR42 आदि ।
(4) सिंचाई के विशेष साधनों का प्रयोग जैसे -
(क) टपक सिंचाई (Drip Irrigation), तथा
(ख) छिड़काव सिंचाई (Sprinkle Irritation)
(5) नहरों के सतह का पक्कीकरण.
(6) उचित जल-क्षेत्र प्रबंधन. ;- (Watershed Management)
(7) जल संरक्षण.
(8) मिट्टी-संरक्षण (मेड़बन्दी, सीढ़ीदार खेत आदि)
(9) चारा बैंक की स्थापना,
(10) बंजर भूमि का विकास,
(11) पशुपालन और डेयरी उद्योगों का विकास,
(12) लघु तथा कुटीर उद्योग जैसे सहायक उद्योगों का विकास,
(13) वानिकी एवं सामाजिक वानिकी का विकास,
(14) पूर्व चेतावनी के माॅडल का विकास
(15) प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रतिबद्धता में वृद्धि,
(16) आधारभूत संरचना में विदेशी निवेश,
(17) आपात-प्रबंधन,
(18) स्वयंसेवी संस्थाओं ;छळव्द्ध को प्रोत्साहित करना तथा
(19) जनसामान्य की सहभागिता एवं पंचायत की भूमिका में गुणात्मक तथा मात्रात्मक वृद्धि।
निष्कर्ष
हरित-क्रांति से पूर्व भारत ‘सूखा’, ‘अकाल’, अथवा दुर्भिक्ष का पर्याय बना हुआ था। यहाँ के मध्ययुगीन इतिहास को देखने से स्पष्ट होता है कि सूखा ग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले मारवाड़ी, पंजाबी और सिंधी जनसंख्या का राष्ट्रव्यापी विस्थापन हुआ है।
परन्तु समय के परिवर्तन के साथ भारत खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया। हरित क्रान्ति ने खाद्यान्न की कमी तथा अकाल से भारत को मुक्ति दिलाई। यद्यपि मौसमी दुष्प्रभाव अपने यथार्थ रूप में विद्यमान है, तथापि भारत सरकार ने इससे निजात पाने के लिए न सिर्फ कई दीर्घकालीन योजनाओं, जैसे - सिंचाई साधनों का विकास नवीन बीजों का विकास, वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के प्रोत्साहन आदि पर बल दिया है, बल्कि लघुकालीन योजनाओं के अन्तर्गत राहत कार्य, लघुस्तरीय सिंचाई योजनाओं पर भी विशेष ध्यान दिया है।