Tuesday, 29 August 2017

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लंबे समय तक खुद को सामाजिक सुधार के प्रयासों से दूर रखा। इन सुधारों की ठोस शुरुआत केरल के मंदिर प्रवेश आंदोलनों से हुई। इन आंदोलनों पर संक्षेप में टिप्पणी करें।


सन् 1885 में अपनी स्थापना के समय से ही कांग्रेस सामाजिक सुधारों के लिये मुखर होकर सामने नहीं आई थी। इसके दूसरे ही अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी ने कहा था- “हम यहाँ एक राजनीतिक संगठन के रूप में इकट्ठे हुए हैं। कांग्रेस को खुद को सिर्फ उन सवालों तक सीमित रखना चाहिये, जो सवाल पूरे राष्ट्र से जुड़े हों।”
समाज सुधार के पहले प्रयास के रूप में कांग्रेस ने 1917 में एक प्रस्ताव पास कर जनता से अपील की कि ऐसी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करें, जिनके कारण पिछड़े वर्गों को हेय दृष्टि से देखा जाता है और उनके साथ अन्याय किया जाता है। इसके बाद छुआछूत खत्म करने की गांधी जी की प्राथमिकता के आधार पर 1923 में कांग्रेस ने ठोस कदम उठाने का प्रयास किया। उस समय के छुआछूत के खिलाफ आंदोलनों के रूप में केरल की दो घटनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं –
वायकोम सत्याग्रह
केरल में एझवा और पुलैया नामक अछूत जातियों को सवर्णों से क्रमशः 16 व 32 फुट की दूरी रखनी पड़ती थी। त्रावणकोर के एक गाँव वायकोम में एक मंदिर से जुड़ी सड़क को इस्तेमाल करने की अनुमति अवर्ण या दलित वर्ग को नहीं थी। केरल कांग्रेस समिति ने इस छुआछूत के खिलाफ सत्याग्रह करने का निर्णय लिया। कई सवर्ण संगठनों जैसे- नायर समाजम, केरल हिंदू सभा, सर्वोच्च ब्राह्मण जाति नंबूदरियों की योगक्षेम सभा आदि ने न केवल सत्याग्रह का समर्थन किया, बल्कि अछूतों के मंदिर प्रवेश की भी वकालत की।
आंदोलन चलता रहा, सन्1925 में गांधी जी ने केरल का दौरा किया तथा त्रावणकोर की महारानी से एक समझौता किया जिसमें अछूतों को मंदिर की सड़क का इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी गई थी। अब भी अछूतों को मंदिर प्रवेश की अनुमति न मिलने के विरोध में गांधी जी ने अपने दौरे में केरल के किसी भी मंदिर में प्रवेश नहीं किया। वीरामास्वामी नायकर इस आंदोलन से जुड़े एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे।
गुरुवयूर सत्याग्रह
स्थानीय नेता के.केलप्पण की अपील पर केरल कांग्रेस समिति ने 1931 में मंदिर प्रवेश का मुद्दा फिर से उठाया। समिति ने गुरुवयूर में मंदिर प्रवेश सत्याग्रह छेड़ने का निर्णय लिया। इस सत्याग्रह में भी दलितों से लेकर ऊँची जाति नंबूदरी तक के लोग शामिल थे। 1932 में केलप्पण अनशन पर बैठ गए। गांधी जी द्वारा स्वयं आंदोलन का नेतृत्त्व करने के आश्वासन के बाद ही केलप्पण ने अनशन तोड़ा। सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया। उस समय तो मंदिर प्रवेश की अनुमति नहीं मिली, परंतु इस आंदोलन को मिले ज़बरदस्त समर्थन ने उस समय एक सामाजिक जागृति ला दी थी।