Wednesday 25 July 2018

मातृ मृत्युदर: लक्ष्य और हासिल

  देश के जिन हिस्सों में भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और जागरूकता की कमी है, वहाँ प्रसव के दौरान मातृ मृत्युदर के सर्वाधिक मामले देखने को मिलते हैं। कम उम्र में लड़कियों का विवाह भी मातृ मृत्युदर में वृद्धि का बड़ा कारण है। दरअसल, बहुत ही कम उम्र में मातृत्व से खतरनाक बीमारियां पनपती हैं और साथ ही जान जाने का भी खतरा बना रहता है।    विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का यह खुलासा संतोष प्रदान करने वाला है कि मातृ स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्तायुक्त पहुंच में सुधार और महिलाओं के बीच शिक्षा पर जोर दिए जाने से भारत में मातृ मृत्युदर में कमी आई है। संगठन ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि भारत में मातृ मृत्युदर (एमएमआर) में तकरीबन सतहत्तर प्रतिशत की कमी आई है। रिपोर्ट के अनुसार 1990 में मातृ मृत्युदर दर पांच सौ छप्पन प्रति लाख जीवित प्रसव थी, जो 2016 तक घटती हुई एक सौ तीस पर आ गई।    सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) ने भी बताया है कि भारत में मातृ मृत्युदर 2011-13 के दैरान एक सौ सड़सठ प्रति लाख थी, जो 2014-16 के दौरान एक सौ तीस पर आ गई। इसमें तीन राज्य केरल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु ऐसे हैं जो पहले ही सतत विकास लक्ष्य हासिल कर चुके हैं।    भारत में मौजूदा मातृ मृत्युदर अभी भी सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) से नीचे है। यह वाकई चिंता का विषय है जो देश को 2030 तक सत्तर से नीचे के मातृ मृत्युदर के सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रेरित करती है। आंकड़े बताते हैं कि 2005 के मुकाबले स्वास्थ्य सेवाओं का दोगुना विस्तार हुआ है और सार्वजनिक सुविधाओं में संस्थागत प्रसव का अनुपात लगभग तिगुना हो गया है। यह 2005 के अठारह प्रतिशत से 2016 में बावन प्रतिशत हो गया है। अगर निजी सुविधाओं को शामिल कर लें तो संस्थागत प्रसव का दायरा उनासी प्रतिशत हो जाता है। लेकिन मातृ मृत्युदर के आंकड़ों को और नीचे लाने की जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर गौर करें तो भारत में अभी भी गर्भधारण संबंधी जटिलताओं के कारण और प्रसव के दौरान पांच लाख से अधिक महिलाएं हर साल दम तोड़ देती हैं।    इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले डेढ़ दशक में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का तेजी से विस्तार हुआ है। जगह-जगह अस्पताल खुले हैं जिससे प्रसव कार्य में सुगमता आई है। लेकिन जागरूकता के अभाव में मातृत्व को सुरक्षित बनाना अभी भी चुनौती बना हुआ है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में प्रति एक लाख जन्म पर मातृत्व मृत्युदर तीन सौ है। यह आंकड़ा दुनिया के सबसे पिछड़े हुए अफ्रीका और लातिन अमेरिकी देशों के समान है। गौर करें, तो कुपोषण के कारण सिर्फ गर्भवती महिलाएं मौत के मुंह में नहीं जा रही हैं, बल्कि उनके शिशु भी काल-कवलित हो रहे हैं।    उत्तर प्रदेश में शिशुओं की मृत्युदर राष्ट्रीय औसत से अधिक है। यहाँ जन्म लेने वाले पचास प्रतिशत बच्चे कुपोषित होते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार का लक्ष्य 2017 तक प्रति एक लाख जन्म पर मातृ मृत्युदर को दो सौ से नीचे लाना था। लेकिन यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका है। देश के अन्य राज्यों की स्थिति भी उत्तर प्रदेश से अलग नहीं है। इस लक्ष्य को साधना तभी संभव होगा जब राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार होगा। इसलिए यह सवाल भी उठता है कि बजट में पूरा पैसा मिलने के बाद भी सरकारों के स्वास्थ्य महकमे ऐसे मिशनों और कार्यक्रमों को सफल क्यों नहीं बना पाते।    मातृ मृत्युदर का प्रमुख कारण तीस प्रतिशत रक्तस्राव, उन्नीस प्रतिशत एनीमिया, सोलह प्रतिशत संक्रमण, दस प्रतिशत जटिल व जोखिम वाले प्रसव और आठ प्रतिशत उच्च रक्तचाप संबंधी विकार हैं। गर्भवती महिलाओं को कुपोषण के कारण कभी-कभार गर्भपात भी कराना होता है जिससे उनकी जान जाने का खतरा बना रहता है।    मैटरनल मॉर्टेलिटी रेशियो (एमएमआर) और इंटरनेशनल प्रेग्नेंसी एडवाइजरी सर्विसेज की रिपोर्ट की मानें तो भारत में असुरक्षित गर्भपात से हर दो घंटे में एक स्त्री की जान चली जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि स्वास्थ्य जागरूकता के बावजूद आज भी गांवों में तकरीबन चालीस प्रतिशत प्रसव बेहद खतरनाक स्थिति में घरों में ही कराए जाते हैं। इसके पीछे बड़े कारण अशिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है।     संयुक्त राष्ट्र की ‘पापुलेशन फंड-इंडिया’ की रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में पचास प्रतिशत और राजस्थान में इकतालीस प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं ने अपने घरों में शिशुओं को जन्म दिया। देश के अन्य राज्यों की हालत भी ऐसी ही है। इससे न सिर्फ गर्भवती महिलाओं की जान जोखिम में पड़ रही है, बल्कि वे खतरनाक बीमारियों की चपेट में भी आ रही हैं। इस समस्या से निजात पाने के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाने की भी जरूरत है।    लेकिन दुख की बात यह है कि मातृ मृत्युदर में जिस तेजी से कमी लाने के लिए काम होने चाहिए थे, उनके शुरू नहीं हो पाने के पीछे सरकार की स्वास्थ्य संबंधी नीतियां जिम्मेदार हैं। किसी से छिपा नहीं है कि देश में अस्पतालों और डॉक्टरों की भारी कमी है। अस्पतालों में न तो डॉक्टर हैं और न ही दवा। अस्पताल और डॉक्टर हैं वहां चिकित्सकीय उपकरण एवं अन्य जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। दूसरी ओर, देश में प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की भारी कमी है। एक आंकड़े के मुताबिक देश में तकरीबन पचास हजार मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकताओं और लगभग पंद्रह हजार सहायक नर्सों की कमी है। दवा और उचित इलाज के अभाव में बीस वर्ष से कम उम्र की पचास प्रतिशत महिलाएं प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं। इसी तरह अस्पतालों में चिकित्सकीय उपकरणों की भारी कमी और डॉक्टरों की लापरवाही से तकरीबन दस से पंद्रह प्रतिशत गर्भवती महिलाएं मौत के मुंह में चली जाती हैं।    आज गांवों में डॉक्टरों की कमी की वजह से नब्बे प्रतिशत गर्भवती महिलाएं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर हैं। इसकी कीमत उन्हें जान देकर चुकानी पड़ती है। एक रिपोर्ट के अनुसार माँ बनने के लिहाज से भारत खराब देशों में शुमार है। महत्त्वपूर्ण बात यह कि देश के जिन हिस्सों में भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और जागरूकता की कमी है, वहां प्रसव के दौरान मातृत्व मृत्युदर के सर्वाधिक मामले देखने को मिलते हैं। कम उम्र में लड़कियों का विवाह भी मातृ मृत्युदर में वृद्धि का बड़ा कारण है। दरअसल, बहुत ही कम उम्र में मातृत्व से खतरनाक बीमारियां पनपती हैं और साथ ही जान जाने का भी खतरा बना रहता है। पर अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार महिलाओं और विशेषकर गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर बेहद चिंतित व सतर्क है। महिलाओं के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू भी हुई हैं। गर्भवती महिलाओं को प्रसव और टीकाकरण के लिए छह हजार रुपए की आर्थिक मदद भी शुरू की गई है। चूंकि देश भर में कुपोषण और गंभीर बीमारियों की वजह से गर्भवती महिलाओं की समस्याएं बढ़ रही है, इस अर्थ में यह मदद उनके लिए संजीवनी का काम कर सकती है।    गर्भवती महिलाओं की मौत का एक बड़ा कारण उन्हें समुचित पौष्टिक आहार न मिलना और समुचित इलाज की कमी है। इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय पोषण मिशन की दिशा में कदम बढ़ाया है जिसके तहत महिलाओं और बच्चों को पूरक पोषण दिया जाना आसान होगा। सरकार ने इसके लिए पिछले साल साढ़े तीन अरब रुपए से ज्यादा का प्रावधान किया था। सरकार ने इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए जमीनी स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी के जरिए निगरानी की व्यवस्था की है। महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इसके अलावा सरकार ने बच्चों के पोषक देखभाल के लिए एक नई व्यवस्था बनाई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों पर तेजी से और ईमानदारी से अमल हो, ताकि भारत में मातृ मृत्युदर और कम हो सके।

देश के जिन हिस्सों में भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और जागरूकता की कमी है, वहाँ प्रसव के दौरान मातृ मृत्युदर के सर्वाधिक मामले देखने को मिलते हैं। कम उम्र में लड़कियों का विवाह भी मातृ मृत्युदर में वृद्धि का बड़ा कारण है। दरअसल, बहुत ही कम उम्र में मातृत्व से खतरनाक बीमारियां पनपती हैं और साथ ही जान जाने का भी खतरा बना रहता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का यह खुलासा संतोष प्रदान करने वाला है कि मातृ स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्तायुक्त पहुंच में सुधार और महिलाओं के बीच शिक्षा पर जोर दिए जाने से भारत में मातृ मृत्युदर में कमी आई है। संगठन ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि भारत में मातृ मृत्युदर (एमएमआर) में तकरीबन सतहत्तर प्रतिशत की कमी आई है। रिपोर्ट के अनुसार 1990 में मातृ मृत्युदर दर पांच सौ छप्पन प्रति लाख जीवित प्रसव थी, जो 2016 तक घटती हुई एक सौ तीस पर आ गई।

सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) ने भी बताया है कि भारत में मातृ मृत्युदर 2011-13 के दैरान एक सौ सड़सठ प्रति लाख थी, जो 2014-16 के दौरान एक सौ तीस पर आ गई। इसमें तीन राज्य केरल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु ऐसे हैं जो पहले ही सतत विकास लक्ष्य हासिल कर चुके हैं।

भारत में मौजूदा मातृ मृत्युदर अभी भी सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) से नीचे है। यह वाकई चिंता का विषय है जो देश को 2030 तक सत्तर से नीचे के मातृ मृत्युदर के सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रेरित करती है। आंकड़े बताते हैं कि 2005 के मुकाबले स्वास्थ्य सेवाओं का दोगुना विस्तार हुआ है और सार्वजनिक सुविधाओं में संस्थागत प्रसव का अनुपात लगभग तिगुना हो गया है। यह 2005 के अठारह प्रतिशत से 2016 में बावन प्रतिशत हो गया है। अगर निजी सुविधाओं को शामिल कर लें तो संस्थागत प्रसव का दायरा उनासी प्रतिशत हो जाता है। लेकिन मातृ मृत्युदर के आंकड़ों को और नीचे लाने की जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर गौर करें तो भारत में अभी भी गर्भधारण संबंधी जटिलताओं के कारण और प्रसव के दौरान पांच लाख से अधिक महिलाएं हर साल दम तोड़ देती हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले डेढ़ दशक में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का तेजी से विस्तार हुआ है। जगह-जगह अस्पताल खुले हैं जिससे प्रसव कार्य में सुगमता आई है। लेकिन जागरूकता के अभाव में मातृत्व को सुरक्षित बनाना अभी भी चुनौती बना हुआ है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में प्रति एक लाख जन्म पर मातृत्व मृत्युदर तीन सौ है। यह आंकड़ा दुनिया के सबसे पिछड़े हुए अफ्रीका और लातिन अमेरिकी देशों के समान है। गौर करें, तो कुपोषण के कारण सिर्फ गर्भवती महिलाएं मौत के मुंह में नहीं जा रही हैं, बल्कि उनके शिशु भी काल-कवलित हो रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में शिशुओं की मृत्युदर राष्ट्रीय औसत से अधिक है। यहाँ जन्म लेने वाले पचास प्रतिशत बच्चे कुपोषित होते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार का लक्ष्य 2017 तक प्रति एक लाख जन्म पर मातृ मृत्युदर को दो सौ से नीचे लाना था। लेकिन यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका है। देश के अन्य राज्यों की स्थिति भी उत्तर प्रदेश से अलग नहीं है। इस लक्ष्य को साधना तभी संभव होगा जब राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार होगा। इसलिए यह सवाल भी उठता है कि बजट में पूरा पैसा मिलने के बाद भी सरकारों के स्वास्थ्य महकमे ऐसे मिशनों और कार्यक्रमों को सफल क्यों नहीं बना पाते।

मातृ मृत्युदर का प्रमुख कारण तीस प्रतिशत रक्तस्राव, उन्नीस प्रतिशत एनीमिया, सोलह प्रतिशत संक्रमण, दस प्रतिशत जटिल व जोखिम वाले प्रसव और आठ प्रतिशत उच्च रक्तचाप संबंधी विकार हैं। गर्भवती महिलाओं को कुपोषण के कारण कभी-कभार गर्भपात भी कराना होता है जिससे उनकी जान जाने का खतरा बना रहता है।

मैटरनल मॉर्टेलिटी रेशियो (एमएमआर) और इंटरनेशनल प्रेग्नेंसी एडवाइजरी सर्विसेज की रिपोर्ट की मानें तो भारत में असुरक्षित गर्भपात से हर दो घंटे में एक स्त्री की जान चली जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि स्वास्थ्य जागरूकता के बावजूद आज भी गांवों में तकरीबन चालीस प्रतिशत प्रसव बेहद खतरनाक स्थिति में घरों में ही कराए जाते हैं। इसके पीछे बड़े कारण अशिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है। 

संयुक्त राष्ट्र की ‘पापुलेशन फंड-इंडिया’ की रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में पचास प्रतिशत और राजस्थान में इकतालीस प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं ने अपने घरों में शिशुओं को जन्म दिया। देश के अन्य राज्यों की हालत भी ऐसी ही है। इससे न सिर्फ गर्भवती महिलाओं की जान जोखिम में पड़ रही है, बल्कि वे खतरनाक बीमारियों की चपेट में भी आ रही हैं। इस समस्या से निजात पाने के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाने की भी जरूरत है।

लेकिन दुख की बात यह है कि मातृ मृत्युदर में जिस तेजी से कमी लाने के लिए काम होने चाहिए थे, उनके शुरू नहीं हो पाने के पीछे सरकार की स्वास्थ्य संबंधी नीतियां जिम्मेदार हैं। किसी से छिपा नहीं है कि देश में अस्पतालों और डॉक्टरों की भारी कमी है। अस्पतालों में न तो डॉक्टर हैं और न ही दवा। अस्पताल और डॉक्टर हैं वहां चिकित्सकीय उपकरण एवं अन्य जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। दूसरी ओर, देश में प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की भारी कमी है। एक आंकड़े के मुताबिक देश में तकरीबन पचास हजार मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकताओं और लगभग पंद्रह हजार सहायक नर्सों की कमी है। दवा और उचित इलाज के अभाव में बीस वर्ष से कम उम्र की पचास प्रतिशत महिलाएं प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं। इसी तरह अस्पतालों में चिकित्सकीय उपकरणों की भारी कमी और डॉक्टरों की लापरवाही से तकरीबन दस से पंद्रह प्रतिशत गर्भवती महिलाएं मौत के मुंह में चली जाती हैं।

आज गांवों में डॉक्टरों की कमी की वजह से नब्बे प्रतिशत गर्भवती महिलाएं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर हैं। इसकी कीमत उन्हें जान देकर चुकानी पड़ती है। एक रिपोर्ट के अनुसार माँ बनने के लिहाज से भारत खराब देशों में शुमार है। महत्त्वपूर्ण बात यह कि देश के जिन हिस्सों में भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और जागरूकता की कमी है, वहाँ प्रसव के दौरान मातृत्व मृत्युदर के सर्वाधिक मामले देखने को मिलते हैं। कम उम्र में लड़कियों का विवाह भी मातृ मृत्युदर में वृद्धि का बड़ा कारण है। दरअसल, बहुत ही कम उम्र में मातृत्व से खतरनाक बीमारियां पनपती हैं और साथ ही जान जाने का भी खतरा बना रहता है। पर अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार महिलाओं और विशेषकर गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर बेहद चिंतित व सतर्क है। महिलाओं के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू भी हुई हैं। गर्भवती महिलाओं को प्रसव और टीकाकरण के लिए छह हजार रुपए की आर्थिक मदद भी शुरू की गई है। चूंकि देश भर में कुपोषण और गंभीर बीमारियों की वजह से गर्भवती महिलाओं की समस्याएं बढ़ रही है, इस अर्थ में यह मदद उनके लिए संजीवनी का काम कर सकती है।

गर्भवती महिलाओं की मौत का एक बड़ा कारण उन्हें समुचित पौष्टिक आहार न मिलना और समुचित इलाज की कमी है। इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय पोषण मिशन की दिशा में कदम बढ़ाया है जिसके तहत महिलाओं और बच्चों को पूरक पोषण दिया जाना आसान होगा। सरकार ने इसके लिए पिछले साल साढ़े तीन अरब रुपए से ज्यादा का प्रावधान किया था। सरकार ने इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए जमीनी स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी के जरिए निगरानी की व्यवस्था की है। महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इसके अलावा सरकार ने बच्चों के पोषक देखभाल के लिए एक नई व्यवस्था बनाई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों पर तेजी से और ईमानदारी से अमल हो, ताकि भारत में मातृ मृत्युदर और कम हो सके।