यूनानी कला के प्रभाव से देश के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में कला की जिस नवीन शैली का उदय हुआ उसे गांधार शैली कहा जाता है। यह विशुद्ध रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित धार्मिक प्रस्तर मूर्तिकला शैली है, जिसका उदय कनिष्क प्रथम के समय हुआ। तक्षशिला, कपिशा, पुष्कलावती, बामियान आदि इसके प्रमुख केंद्र रहे। इसमें स्वात घाटी के भूरे रंग के पत्थर या काले स्लेटी पत्थरों का इस्तेमाल होता था। इस कला का चरम विकास कुषाण काल में हुआ।
गांधार कला को दो खंडों में वर्गीकृत किया जाता है— प्रारंभिक गांधार कला तथा परवर्ती गांधार कला। प्रारंभिक गांधार कला के अंतर्गत मूर्तियों का निर्माण मिट्टी, चूना, भित्ति स्तंभ तथा प्लास्टर का उपयोग करके किया जाता था। परवर्ती गांधार कला शैली में पाषाण का उपयोग प्रचुर मात्र में प्रारंभ हुआ। इस कला शैली पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस दौर में गांधार कला की निम्नलिखित विशेषताएँ देखी गई हैं-
➤ मानव शरीर की सुंदर रचना तथा माँसपेशियों का सूक्ष्म अंकन।
➤ शरीर पर पारदर्शक वस्त्रें का सिलवटों के साथ प्रयोग।
➤ अनुपम नक्काशी।
गांधार कला में बुद्ध की मूर्तियों को इतना सुंदर बनाने का प्रयास किया गया है कि ये यूनानियों के सौंदर्य देवता अपोलो की अनुकृति लगती हैं। इसमें बुद्ध को प्रायः घुंघराले बाल व मूँछ, ललाट पर अर्णा (भौंरी), सिर के पीछे प्रभामंडल, वस्त्र सलवट युक्त और चप्पल पहने हुए दर्शाया गया है। इस कला में प्रयुक्त चिड़ियों की पूँछ जैसी परतें रोम में हैड्रियन काल की हेलेनिस्टिक शैली का अनुकूलित रूप मानी जाती है।
इस शैली की मूर्तिकला में जो भव्यता है यद्यपि उससे भारतीय कला पर यूनानी और हेलेनिस्टक प्रभाव पड़ने की बात स्पष्ट होती है तथापि अपने इसी स्वरूप के कारण यह भारतीय कला की मुख्य धारा से पृथक् रही तथा इसका क्षेत्र पश्चिमोत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहा।
बौद्ध मूर्तियों के अतिरिक्त गांधार शैली की कुछ देवी मूर्तियाँ भी मिलती हैं। इनमें देवी रोमा की मूर्ति विशिष्ट है। हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों में पांचिक, हारिति, कुबेर, इंद्र, ब्रह्मा, सूर्य आदि का भी चित्रण इस कला में मिलता है।