Friday, 31 August 2018

‘आरक्षण की व्यवस्था’ के हालिया स्वरूप को खत्म कर ‘आर्थिक आरक्षण’ देने की मांग किस हद तक उचित प्रतीत होती है? हालिया आंदोलनों के संदर्भ में कथन की चर्चा करें।


आरक्षण प्रणाली सदियों से उपेक्षित निचली जातियों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान कर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने हेतु प्रारम्भ की गई थी। परंतु वर्तमान परिदृश्य में जबकि आजादी के लगभग 7 दशक पश्चात् ‘समानता’ का लक्ष्य प्राप्त कर लिया जाना चाहिये था, आरक्षण की मांग अन्य ‘सामान्य समुदाय’ के लोगों द्वारा उग्रता से उठाई जा रही है।

हालिया दिनों में विभिन्न राज्यों के संपन्न समुदाय जैसे- गुजरात का पाटीदार, महाराष्ट्र का मराठा तथा हरियाणा का जाट समुदाय जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था को समाप्त कर ‘आर्थिक आधार’ पर आरक्षण की मांग हेतु आंदोलित दिखा। यदि इन आंदोलनों के पक्ष का विश्लेषण किया जाए तो कहीं-न-कहीं इनकी यह मांग उचित प्रतीत होती है।

वर्तमान में सरकारी नौकरियों तथा विश्वविद्यालयों में 15 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जातियों तथा 7.5 प्रतिशत सीटें अनुसूचित  जनजातियों के लिये आरक्षित हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक राज्य स्वयं की आरक्षण व्यवस्था लागू करता है जो कि कुल मिलाकर लगभग 50 प्रतिशत हो जाती है। इस व्यवस्था से सामान्य वर्ग का विद्यार्थी अधिक अंक प्राप्त करने के बावजूद शिक्षण संस्थान में प्रवेश तथा नौकरी के लिये ‘अयोग्य’ हो जाता है, जबकि आरक्षित वर्ग के विद्यार्थी न केवल औसत अंकों के साथ शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेते हैं बल्कि अन्य सुविधाएँ तथा नौकरी भी आसानी से प्राप्त कर लेते हैं।

विडम्बना केवल ‘सामान्य’ बनाम ‘आरक्षित’ श्रेणी की नहीं अपितु गरीब सामान्य वर्ग तथा अमीर आरक्षित वर्ग की है। वर्तमान आरक्षण प्रणाली सामान्य वर्ग के ‘गरीब’ व्यक्ति के आरक्षण पर मौन है तो आरक्षित वर्ग के ‘अमीर’ व्यक्ति के संबंध में प्रावधानों का अभाव है। यद्यपि ‘क्रीमीलेयर सिद्धांत इस संदर्भ में सीमा आरोपित करता है परंतु इसका संकुचित विस्तार इसे नाकाम सिद्ध करता है। 

इस प्रकार इस व्यवस्था से ‘योग्यता’ द्वितीयक हो जाती है तथा ‘जाति’ प्राथमिक। यही कारण है कि सार्वजनिक क्षेत्रों में कार्यकुशलता एवं निष्पादन क्षमता नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।

उपरोक्त समस्या के साथ-साथ यह प्रणाली सामाजिक विभेदन को भी बढ़ावा देती है। आर्थिक विभेदन का यह रोष विभिन्न जातियों के आपसी विवादों तथा हिंसक झड़पों में मुखर होता है। इसके अतिरिक्त आरक्षण का लाभ उस वर्ग के अमीर व्यक्ति ही अधिकतर उठाते हैं जिससे अंतरा जातीय विभेदन भी गहरा होता है। यह सामाजिक विभेदन भारत की सामाजिक विविधता पर प्रहार कर भारतीय समाज की नींव को खोखला कर रहा है।

अतः यह उचित प्रतीत होता है कि उपरोक्त समस्याओं के निदान हेतु जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था को समाप्त कर आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति तथा योग्यता आधारित कर दिया जाना चाहिये।

परंतु यह केवल विवाद का एक पक्ष है, क्योंकि यदि जाति आधारित आरक्षण समाप्त कर दिया गया तो न केवल ‘भारतीय समाजवाद’ खतरे में पड़ जाएगा, अपितु ‘समावेशी विकास’ की अवधारणा भी अवरूद्ध होगी। अतः आरक्षण को समाप्त करना या केवल ‘आर्थिक स्थिति’ आधारित करना समाधान नहीं होगा बल्कि ‘आरक्षण प्रणाली’ को ‘व्यवस्थित’ करना बेहतर उपाय होगा।

तथाकथित निचली जातियों के उत्थान हेतु इस प्रणाली को बनाए रखना तथा अंतिम व्यक्ति तक इसकी जानकारी एवं लाभ सुनिश्चित करना अपेक्षित है और सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े एवं योग्य व्यक्तियों की सहायता करना भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, ‘क्रीमीलेयर’ का दायरा विस्तारित कर अमीर आरक्षित वर्ग को इससे से बाहर कर इस प्रणाली को सुचारू, निष्पक्ष एवं लाभकारी बनाया जा सकता है।