राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र (एनसीएओआर) के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध के अनुसार आर्कटिक की बर्फ के तेजी से पिघलने का भारतीय मानसून पर बुरा असर हो सकता है। इस संबंध में राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र (एनसीएओआर) गोवा, के अनुसंधान पत्र में रिपोर्ट प्रकाशित की गई है।शोधकर्ता मनीष तिवारी एवं विकास कुमार की अगुवाई में किये गये इस अध्ययन में पाया गया कि इस क्षेत्र में वैश्विक आंकड़ों की तुलना में कहीं अधिक जलवायु परिवर्तन हो रहा है। इसका असर भारतीय मॉनसून पर भी पड़ रहा है।
प्रमुख तथ्य
- वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन के लिए पिछली दो शताब्दियों में आर्कटिक क्षेत्र में हुए ऊष्मा बदलावों को दोबारा संगठित किया।
- वैज्ञानिकों के शोधानुसार ध्रुवीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन वैश्विक औसत से दोगुना हो रहा है।
- वैज्ञानिकों ने पाया कि पिछले दो शताब्दियों में जलवायु परिवर्तन द्वारा संचालित ग्लेशियर पिघलने में वृद्धि हुई है।
- आर्कटिक क्षेत्र में इन भौगोलिक परिवर्तनों के कारण राज्य और पृथ्वी की जलवायु प्रणाली के संतुलन को महत्वपूर्ण रूप से बदलने का अनुमान जताया गया है।
- वैज्ञानिकों ने ऑर्गनिक कार्बन और अन्य पदार्थों की उपस्थिति का पता लगाने के लिए आर्कटिक क्षेत्र की तलछटी का अध्ययन किया।
- आर्कटिक में बढ़ते हिमनद से प्रकाश की उपलब्धता में कमी आई है और इस प्रकार उत्पादकता में कमी आई है जिसके परिणामस्वरूप जैविक कार्बन की कम उपस्थिति होती जा रही है।
- शोध के परिणामस्वरूप यह पाया गया कि आर्कटिक क्षेत्र में 1840 एवं 1900 को छोड़कर प्रत्येक वर्ष बर्फ पिघलने में बढ़ोतरी जारी रहा है।
- आर्कटिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन में 1840 के बाद से बर्फ पिघलना आरंभ हुआ तथा इसमें 1970 के बाद से सबसे अधिक तेजी देखी गई।
- शोधकर्ताओं के अनुसार, बर्फ पिघलने से समुद्र के जल स्तर में हो रहे बदलावों से भारत के मॉनसून में भी बदलाव हो देखे गये हैं, विशेषकर दक्षिण पश्चिम भारत के मॉनसून में इसका अधिक असर देखा गया है।