एक बार एक कवि हलवाई की दुकान पहुँचे, जलेबी और दही ली और वहीं खाने बैठ गये।
इतने में एक कौआ कहीं से आया और दही की परात में चोंच मारकर उड़ चला। हलवाई को बड़ा गुस्सा आया, उसने पत्थर उठाया और कौए को दे मारा। कौए की किस्मत खराब, पत्थर सीधे उसे लगा और वो मर गया।
- ये घटना देख कवि हृदय जगा। वो जलेबी खाने के बाद पानी पीने पहुँचे तो उन्होने एक कोयले के टुकड़े से वहाँ एक पंक्ति लिख दी।
"काग दही पर जान गँवायो"
- तभी वहाँ एक लेखपाल महोदय जो कागजों में हेराफेरी की वजह से निलम्बित हो गये थे, पानी पीने आए। कवि की लिखी पंक्तियों पर जब उनकी नजर पड़ी तो अनायास ही उनके मुँह से निकल पड़ा, कितनी सही बात लिखी है! क्योंकि उन्होने उसे कुछ इस तरह पढ़ा-
"कागद ही पर जान गँवायो"
- तभी एक मजनू टाइप लड़का पिटा-पिटाया सा वहाँ पानी पीने आया। उसे भी लगा कितनी सच्ची बात लिखी है काश उसे ये पहले पता होती,
क्योंकि उसने उसे कुछ यूँ पढ़ा था -
"का गदही पर जान गँवायो"
शायद इसीलिए तुलसीदास जी ने
बहुत पहले ही लिख दिया था -
"जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी"
अपनी अपनी सोच जरूरी नही कि शायर या लेखक ने जो लिखा है वही समझा हो। आप कुछ भी अर्थ ले सकते वो आपकी भावना के ऊपर है।