Thursday, 2 November 2017

कितना महत्त्वपूर्ण साबित होगा बैंकों का रीकैपिटलाइजेशन?


हाल ही में अर्थव्यवस्था को गति देने, रोजगार सृजन और बैंकिंग तंत्र को मजबूत बनाने के उद्देश्य से सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को दो लाख 11 हजार करोड़ रुपए की पूंजी उपलब्ध कराने का निर्णय लिया है। केंद्र द्वारा संकटग्रस्त सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण यानी रीकैपिटलाइजेशन की घोषणा महत्त्वपूर्ण इसलिये है क्योंकि इससे बैंकों को फँसे हुए कर्ज के दुष्चक्र से उबारा जा सकता है।
उल्लेखनीय रूप से बढ़ चुके एनपीए की वजह से ही बैंक ऋण नहीं दे पा रहे हैं और देश की बैंकिंग ऋण वृद्घि 25 साल के निम्नतम स्तर पर है, जिसके कारण निजी निवेश एकदम अवरुद्घ है। ऐसे में इस कदम का स्वागत किया जाना उचित है। हालाँकि आगे की राह उतनी आसान नजर नहीं आ रही है।

क्यों अर्थव्यवस्था के लिये सरदर्द है एनपीए?
गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ (non-performing assets-NPA) किसी भी अर्थव्यवस्था के लिये बोझ हैं। ये देश की बैंकिंग व्यवस्था को रुग्ण बनाती हैं। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से ‘बैड लोन’ और ‘बैड एसेट’ (खराब परिसम्पत्तियाँ) में बेतहाशा वृद्धि हुई है।
‘गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ’ यानी एनपीए बैड लोन और बैड एसेट से ही मिलकर बनती हैं। बैड लोन से बैंकों के लाभांश में कमी आती है, फलस्वरूप बैंक के लिये ऋण देना मुश्किल हो जाता है। जब बैंकों के लिये ऋण देना मुश्किल हो जाता है तो फिर निवेश में कमी आने लगती है और जब निवेश में कमी आने लगे तो अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिलता है।
एनपीए का प्रबंधन करना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है। हम इस पर जितना ही लगाम लगाने की कोशिश करते हैं यह उतना ही बेकाबू होता जाता है।
मान लिया जाए कि किसी बैंक ने किसी संस्था को कुछ राशि ऋण के तौर पर दी है, जब बैंक ने ऋण दिया था तब तो परिस्थितियाँ ऐसी थी कि संस्था द्वारा ऋण राशि को चुकाया जाना आसान लग रहा था। लेकिन बाद में प्रतिकूल हालातों में संस्था ऋण चुकाने में असमर्थ हो गई।
यदि बैंक उसे वित्तीय संकटों से उबारने के उद्देश्य से और ऋण देता है तो इस बात का डर लगातार बना रहता है कि कहीं बाद में दिया गया ऋण भी न डूब जाए। इस प्रकार से एनपीए किसी भी अर्थयवस्था के लिये बहुत बड़ा सरदर्द जैसा ही है।

एनपीए से निजात पाने के उपाय
5/25 योजना– इसके तहत ऋण परिशोधन की अवधि को 25 वर्षों तक बढ़ा दिया जाता है एवं प्रत्येक 5 वर्षों की अवधि के पश्चात् ब्याज दरों को पुनः परिवर्तित करने का प्रावधान किया जाता है।
एस.डी.आर. (strategic debt restructuring)– इसके अन्तर्गत बैंक एन.पी.ए. से संबंधित कंपनियों को दिये गए ऋण को इक्विटी में बदलकर उसके प्रबंधन पर नियंत्रण कर सकते हैं, साथ ही बैंक 18 महीनों के अंदर इक्विटी को बेचकर अपने पैसे वापस ले सकते हैं।
जून, 2016 में ‘एस. 4 ए.’ (SCHEME OF SUSTAINABLE STRUCTURING OF STRESSED ASSETS - S4A) को लागू किया गया है, जिसके अनुसार बैंक अपने द्वारा दिये गए ऋण की कुल मात्र को सतत् (SUSTAINABLE) एवं असतत् (UNSUSTAINABLE) में बाँटकर निपटान करता है।
पुनर्गठन (Restructuring)– यदि किसी कंपनी की समस्या में सुधार नहीं हो रहा है और बैंक को यह पता है कि कंपनी विलफुल डिफॉल्टर नहीं है और न ही कंपनी ऋण को किसी और प्रयोजन में खर्च कर रही है, तब ऐसी स्थिति में बैंक कंपनी द्वारा लिये गए ऋण को पुनर्गठित कर सकती है– ब्याज दर घटाकर ऋण चुकाने की अवधि को बढाकर इत्यादि तरीकों से।

क्यों महत्त्वपूर्ण है रीकैपिटलाइजेशन?
पिछले दो सालों में भारत की कमजोर पड़ रही अर्थव्यवस्था में नई जान फूँकने और इसकी गतिशीलता को बनाए रखने के लिये सरकार प्रयासरत् है और इन्हीं प्रयासों के तहत विमुद्रीकरण और जीएसटी लागू करने के फैसले लिये गए हैं।
आज वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार की प्रवृत्तियाँ दिखनी आरंभ हो गई हैं। ऐसे में भारत को भी आर्थिक विकास के मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन करना होगा। आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये निवेश होना चाहिये, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की खस्ता हालत को देखते ऐसा होने की संभावनाएँ अत्यंत ही कम हैं। अतः यह आवश्यक था कि बैंकों का रीकैपिटलाइजेशन किया जाए।
यह प्रयास इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि कॉर्पोरेट क्षेत्र की बैलेंस शीट की समस्या से गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों (Non-performing assets - NPAs) में वृद्धि होती है। अतः एनपीए की इस समस्या के समाधान हेतु कॉर्पोरेट बैलेंस शीट के तनाव को कम किये जाने की प्रबल आवश्यकता है।

रीकैपिटलाइजेशन से जुड़ी समस्याएँ
जिस तरह बैंकों में नई पूंजी डाली जा रही है, उसका अर्थ है सरकार की ओर से 1.5 लाख करोड़ रुपए से अधिक का आवंटन और यह राशि दो साल में बैंकों को दी जाएगी। ऐसे में संभावना व्यक्त की जा रही है कि इस वर्ष राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के करीब 0.4 फीसदी तक बढ़ जाएगा। इतना ही नहीं गैर-कर राजस्व में भी कमी आने की बात कही जा रही है।
दरअसल, रीकैपिटलाइजेशन से बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी और ज़्यादा बढ़ेगी, जबकि सरकार का इरादा इसे कम करने का है। नई पूंजी का 70 फीसदी से अधिक हिस्सा सरकार की ओर से आएगा। जबकि कई बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी काफी कम हो चुकी है।
बढ़ते एनपीए के कारण आज बैंकों के बही-खाते अत्यंत ही भारी हो चले हैं और रीकैपिटलाइजेशन से जुडी सबसे बड़ी समस्या यह है कि कहीं यह राशि भी इन बही-खातों को संतुलित करने में न चली जाए, जैसा कि विमुद्रीकरण के बाद बैंकों में जमा अकूत मुद्रा के साथ किया गया था। जब बैंकों के पास कुछ बचेगा ही नहीं तो वे निवेश हेतु ऋण कहाँ से देंगे?

निष्कर्ष
विदित हो कि पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बैंकों की परिसंपत्ति गुणवत्ता की जाँच की व्यवस्था की थी, जिसके कारण बैंकों को फँसे हुए कर्ज को उजागर करना पड़ा था और निपटान की व्यवस्था बतानी पड़ी थी। इसके बाद से ही सरकारी बैंकों की व्यवहार्यता संकट में थी। तिमाही दर तिमाही में बैंक, खासतौर पर सरकारी बैंक फँसे हुए कर्ज के बढ़ते जोखिम को स्वीकार करते गए और उनसे निपटने का प्रावधान करने में ही उनका अधिकांश मुनाफा खप गया।
समय बीतने के साथ-साथ सरकार के पास विकल्प ये बचा कि कुछ डूबते सरकारी बैंकों का निजीकरण किया जाए या फिर उनका रीकैपिटलाइजेशन किया जाए। पहला विकल्प राजनीतिक रूप से व्यवहार्य नहीं था और दूसरा विकल्प राजकोषीय घाटे की दृष्टि से ठीक नहीं था। अगस्त 2015 के एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2018-19 तक 1.8 लाख करोड़ रुपए के कैपिटलाइजेशन की आवश्यकता थी, जबकि सरकार ने 51,858 करोड़ रुपए की राशि ही इनमें डाली।
अतः बैंकों को दो लाख 11 हजार करोड़ रुपए की पूंजी उपलब्ध कराने का निर्णय निश्चित ही सराहनीय है, लेकिन आज एनपीए चिंताजनक स्तर तक बढ़ चुका है। यदि अर्थव्यवस्था को एक जहाज माना जाए तो एनपीए इस जहाज़ में हो चुके छेद के समान है। रीकैपिटलाइजेशन रूपी बर्तन से हम जितना पानी उलीचने का काम करेंगे उतना ही पानी यदि एनपीए रूपी छेद से अन्दर भरता जाए तो हम रीकैपिटलाइजेशन के उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर पाएंगे।
नई पूंजी के आवंटन की प्रासंगिकता इस बात पर भी निर्भर होगी कि बैंक इसका इस्तेमाल कितने प्रभावी ढंग से कर रहे हैं और फँसे हुए कर्ज से कैसे निपट रहे हैं। भारी पैमाने पर किया जाने वाला रीकैपिटलाइजेशन जहाँ सरकारी बैंकों को ऋण संबंधी चुनौतियों से निपटने में मदद करेगा, वहीं यह बहस अभी खत्म नहीं हुई है कि असली दिक्कत क्या थी ऋण की आपूर्ति या उनकी मांग में कमी की? ऐसे में सरकार को अब सरकारी बैंकों के लंबित प्रशासनिक सुधारों पर भी ध्यान देना होगा।