आजकल नक्सल समस्या पर बड़े-बड़े लेख लिखे जा रहे हैं। वामपन्थ को गोली से उड़ा देने की बातें कही जा रही है। राष्ट्रभक्ति की हवा चल पड़ी है जिसमें लगता है सारे नक्सल और अन्य सारे आतंकवादी अब पल भर में उड़ने ही वाले हैं, केवल सेना को छूट देने की आवश्यकता बतायी जा रही है। किन्तु एक बात पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। जो मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद रूस और चीन में उखड़ गया उसे भारत पर थोपने का प्रयास चीन क्यों कर रहा है? वामपन्थ के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है क्या वह वास्तव में वामपन्थ है या परदे के पीछे कुछ और हो रहा है?
देंग जिआओ पिंग ने ही माओवाद को चीन में उखाड़ फेंका और माओ के बचे खुचे समर्थकों को गैंग ऑफ फोर के अनुयायी कहकर कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासित कर दिया। उसके बाद चीन ने आर्थिक मामले में पूँजीवादी रास्ता चुना और अब औद्योगिक क्षेत्र में चीन संसार का अग्रणी पूँजीवादी देश है, संसार की सभी बहुराष्ट्रीय पूँजीवादी कम्पनियों को चीन में कारखाना लगाना सर्वाधिक लाभप्रद और सुरक्षित लगता है। यह कैसा कम्युनिज्म है? लेनिन ने कहा था कि विदेशी पूँजी के आयात से नव-साम्राज्यवादी चंगुल में देश फँसता है और उस पूँजी का मुना कम्पनियाँ लूटकर बाहर ले जाती हैं जिससे देश को हानि पँहुचती है। माओ भी लेनिन के इस विचार से सहमत थे।
फिर क्या कारण है कि भारत के माओवादी अभी तक लेनिन और माओ के विचारों से चिपके हुए हैं, जबकि जिस माओ से उन्होंने बन्दूक की नाल से क्रान्ति निकालने की बात सीखी थी उस चीन ने लेनिनवाद-माओवाद के मौलिक सिद्धान्तों को दशकों पहले त्याग दिया?
नक्सलवाद का आरम्भ बंगाल से हुआ था, किन्तु आज नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों पर गौर करें तो पाएंगे कि नक्सलों का मुख्य ध्यान भारत के उन क्षेत्रों पर नहीं है जहाँ पूँजीवादी या सामन्ती शोषण अधिक है, जहाँ कारखानों या खेतों में दिहाड़ी पर कार्य करने वाले मजदूर अधिक हैं, बल्कि उन क्षेत्रों पर है जहाँ विश्वप्रसिद्ध खनिज भण्डार हैं। आदिवासी क्षेत्रों में जमीन्दार बनाम मजदूर की समस्या नहीं के बराबर है, और बड़े-बड़े कल-कारखाने भी कम हैं। स्पष्ट है कि आज की नक्सल समस्या का सरोकार पूँजीवादी-सामन्ती शोषण से नहीं, बल्कि उस शोषण के झूठे नारे की आड़ में भारत की खनिज सम्पदा को लूटने से है। अतः नक्सलवाद या वामपन्थ तो आड़ है, इस समस्या का किसी भी वाद से कोई लेना-देना नहीं है, मूल समस्या है लूटपाट का। कौन लूटना चाहता है? खनिजों को लूटकर कौन ले जाना चाहता है? नक्सल अपने घरों में तो नहीं रखेंगे। देशी या विदेशी पूँजीपतियों के कारखानों को ही खनिज चाहिए। नक्सलवाद का आरम्भ बंगाल से हुआ था, किन्तु आज नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों पर गौर करें तो पाएंगे कि नक्सलों का मुख्य ध्यान भारत के उन क्षेत्रों पर नहीं है जहाँ पूँजीवादी या सामन्ती शोषण अधिक है, जहाँ कारखानों या खेतों में दिहाड़ी पर कार्य करने वाले मजदूर अधिक हैं, बल्कि उन क्षेत्रों पर है जहाँ विश्वप्रसिद्ध खनिज भण्डार हैं। आदिवासी क्षेत्रों में जमीन्दार बनाम मजदूर की समस्या नहीं के बराबर है, और बड़े-बड़े कल-कारखाने भी कम हैं। स्पष्ट है कि आज की नक्सल समस्या का सरोकार पूँजीवादी-सामन्ती शोषण से नहीं, बल्कि उस शोषण के झूठे नारे की आड़ में भारत की खनिज सम्पदा को लूटने से है। अतः नक्सलवाद या वामपन्थ तो आड़ है, इस समस्या का किसी भी वाद से कोई लेना-देना नहीं है, मूल समस्या है लूटपाट का।
कौन लूटना चाहता है? खनिजों को लूटकर कौन ले जाना चाहता है? नक्सल अपने घरों में तो नहीं रखेंगे।देशी या विदेशी पूँजीपतियों के कारखानों को ही खनिज चाहिए।
इस सन्दर्भ में ध्यातव्य है कि भारत ने पहली बार कोयला निर्यात करना आरम्भ किया है - बांग्लादेश को (इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि बांग्लादेश स्वयं इस्तेमाल करेगा या चीन को देगा)। तर्क है कि पेट्रोलियम आयात से होने वाले घाटे को पूरा करना है। जापान के पास ऊर्जा के स्रोत तो भारत से भी बहुत कम है, फिर भी विदेश व्यापार में वह लाभ ही अर्जित करता रहा है। कल हमारे खनिज संसाधन समाप्त हो जाएंगे तो बांग्लादेश या चीन हमें क्या देगा?
कोयला घोटाला बहुत चर्चित रहा, सर्वोच्च न्यायालय ने भी गलत तरीके से होने वाली नीलामी पर रोक लगाई।मोदी सरकार ने बहुत ऊंची कीमत पर फिर से नीलामी कराई जिससे सरकारी खजाने को बहुत लाभ पँहुचा। कांग्रेस सरकार वह लाभ सेठों को दे रही थी (ताकि उन सेठों से चन्दा मिल सके)।
किन्तु मोदी सरकार ने जबतक नीलामी आरम्भ नहीं कराई थी और अदालत ने उन नीलामी वाले खदानों में खनन पर रोक लगा राखी थी, तब क्या देश में कोयला संकट हुआ? भारत की अधिकाँश बिजली कोयले से ही बनती है। क्या बिजली संकट हुआ? भारत की अधिकाँश बिजली कोयले से ही बनती है। क्या बिजली संकट हुआ? तब क्या विवशता थी पुनः नीलामी कराने की? पेट्रोलियम घाटे की क्षतिपूर्ति करना। "विकास" के लिए सरकार को अधिकाधिक संसाधन चाहिए।
याद रखें कि आर्थिक विकास के लिए "पूँजी निर्माण" (कैपिटल फार्मेशन) आवश्यक है, और पूँजी निर्माण में भारत पहले से ही सभी बड़े देशों में अग्रणी है, चीन को भी भारत पछाड़ चुका है। यही कारण है कि वार्षिक आर्थिक वृद्धि दर में ही चीन को पिछले वर्ष भारत ने पछाड़ दिया। पूँजी निर्माण पहले से ही अत्यधिक है, तो पूँजी निर्माण के नाम पर खनिज सम्पदा निर्यात करने की क्या विवशता है? जबसे औद्योगिक क्रान्ति संसार में आरम्भ हुई है, अधिकाँश युद्धों और विश्वयुद्धों के पीछे मुख्य कारण खनिज सम्पदा की लूट-खसोट ही रहा है।आज भारत के निर्यात की सबसे मुख्य वस्तु है खनिज, और आयात मुख्यतः विनिर्मित वस्तुओं का होता है। चीन हमारा अबसे बड़ा व्यापार "पार्टनर" बन चुका है - किन्तु यह साझेदारी बराबरी की नहीं है। हमारे निर्यात का केवल 3.6% चीन लेता है, और वह मुख्यतः खनिज है, तथा हमारे आयात का 15.8% चीन से आता है! दूसरे शब्दों में भारत अब चीन का आर्थिक उपनिवेश बन चुका है। चीन हमारी खनिज सम्पदा का दोहन करता है और उससे चीन के कारखानों में जो सामान बनते हैं वह हमें बेचता है। चीन द्वारा भारत का यह दोहन बेरोकटोक जारी रहे इसके लिए आवश्यक है कि भारत के खनिज बहुल क्षेत्रों में चीन का दबदबा कायम रहे। वर्त्तमान नक्सल समस्या की जड़ यही है। बिना जड़ के पौधा नहीं पनपता। पौधे के पत्तों को कतरने से समूल नाश नहीं होता। दिल्ली और हैदराबाद के वातानुकूलित आवासों में वामपन्थ का लेक्चर झाड़ने वाले बुद्धिजीवी इस समस्या के पत्ते हैं, नक्सल समस्या की जड़ तो बीजिंग में है। बीजिंग को माओवाद से कोई लेना-देना नहीं है, उसे भारत का खनिज चाहिए, और अपने तैयार माल के लिए भारत का बाज़ार चाहिए। इसके लिए एक तरफ हथियारबन्द नक्सलों और उनके बौद्धिक वकीलों का पोषण करता है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान, आतंकवाद, आदि द्वारा भारत को चारों ओर से घेरकर दवाब बनाये रखने का प्रयास करता है।किन्तु इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण एक तीसरी बात है जिसपर पूरी मीडिया और सारे बौद्धिक पहलवान मौन हैं। विदेश व्यापार में लाभ के कारण चीन के पास विदेशी मुद्रा का सबसे बड़ा भण्डार इकट्ठा हो गया है। उस धन का कहाँ निवेश करे यह चीन को सूझता नहीं है। विकसित देशों के पास पहले से यह समस्या है, उनके यहाँ निवेश करना लाभप्रद होता तो वहां के सेठ चीन में निवेश करने क्यों आते? विकासशील देशों की औकात ही नहीं है कि उतनी बड़ी रकम अपने यहां लगाए। अतः केवल 3% ब्याज की दर पर अन्य देशों के अलावा भारतीय सेठों कोको भी चीन ने कर्ज देना आरम्भ कर दिया है। भारतीय बैंकों की औकात नहीं है कि इतने सस्ते कर्ज दें। अतः भारत के बड़े-बड़े औद्योगिक घराने वही करेंगे जो चीन चाहेगा। पूँजीपतियों का एकमात्र राष्ट्र और धर्म है मुनाफा - चाहे वह गणेश जी की पूजा से मिले या ड्रैगन की आरती उतारने से।
इसका यह अर्थ नहीं है कि भारत का पूँजीपति वर्ग गद्दार है। उनकी अपनी विवशताएँ हैं। खोखले राष्ट्रवाद के नाम पर कोई औद्योगिक घराना अपना कारोबार बर्बाद तो नहीं कर लेगा! नवीन जिन्दल को जिन्दल स्टील के लिए सस्ते में कोयला चाहिए, जिसके लिए मनमोहन राज में कोयला खानों को गलत तरीके से नीलाम कराया।अन्ना हजारे उसके निजी हवाई जहाज में उड़कर जन्तर-मन्तर पर मोदी को छूमन्तर करने आते हैं ताकि जिन्दल स्टील को सस्ते में कोयला मिले।
लेकिन उसी भाजपा-विरोधी जिन्दल का एक दूसरा पहलू भी है - स्टील उद्योग में जिन्दल जैसों के पदार्पण के बाद ही आज भारत विश्व में दुसरे स्थान के लिए अमरीका, जापान और रूस के समकक्ष खड़ा है (पहले स्थान पर चीन है)। जिन्दल कांग्रेसी है या भाजपाई यह बात गौण है, महत्वपूर्ण यह है कि स्टील भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है जिसके बिना भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जबतक सरकारी SAIL और निजी क्षेत्र के TISCO का वर्चस्व स्टील उद्योग पर रहा, भारत नीचे के पायदान पर घिसटता रहा। आदिवासी क्षेत्र का लोहा और कोयला लेकर टाटा ने जो स्टील बनाया उसकी कमाई से भारत में नए स्टील कारखाने लगाने के बदले ब्रिटेन की सबसे बड़ी स्टील कम्पनी कोरस खरीदी। अब टाटा बहुराष्ट्रीय हो गए, एक छोटे से भारत जैसे राष्ट्र से उनकी खुराक पूरी नहीं होती। भारत को विश्वशक्ति बनाने में जिन्दल स्टील जैसे नए घरानों का भी हाथ है, भले ही वे सेक्युलर पार्टियों के समर्थक हों।
सरकार को बहुत कुछ देखकर नीतियां बनानी पड़ती है जो खोखले राष्ट्रवाद के नारेबाजों के माथे में नहीं घुसतीं।
ये हंगामेबाज तो इतना भी नहीं समझते की राष्ट्र किस चिड़िया का नाम है। स्कूल में जो नक्शा पढ़ लिया उसे राष्ट्र समझ बैठे। वह राष्ट्र नहीं, राज्य है (प्रान्त नहीं), एक राजनैतिक ईकाई है जिसे युद्धों और सन्धियों द्वारा जब चाहे तब बदला जा सकता है। परन्तु भारत जैसा राष्ट्र नहीं बदलता | बदलते वे हैं जो राष्ट्र की पाश्चात्य मनमानी परिभाषाओं के आधार पर नकली राष्ट्र हैं, जैसे कि इंग्लैण्ड। इंग्लैण्ड और स्कॉटलैंड अलग-अलग राष्ट्र हैं या यूनाइटेड-किंगडम एक राष्ट्र है यह ऑकसफोर्ड के प्रोफेसरों को भी पता नहीं है। ज्ञात इतिहास को देखें, भारत की राजनैतिक सीमाएं अधिकाँश कालखण्डों में एक नहीं मिलेगी, फिर भी भारत की प्रजा के ह्रदय में भारत नाम का प्राचीन राष्ट्र एक विशिष्ट संस्कृति के रूप में बचा हुआ है, जबकि यूनान-मिश्र-रोम सब मिट गए जहाँ से (- गांधी जी, जिनके शब्द इक़बाल ने चुराए)।
राष्ट्र तो उस साधन को कहते हैं जो प्रजा का रंजन करे - मनोरंजन नहीं बल्कि सर्वांगीण रंजन। इसके लिए जो अधिकृत हो उसे राजा कहते हैं। यह देवभाषा की सनातन परिभाषा है। संसार बनता और बिगड़ता है, दिव्य भाषा के शब्द और उनके अर्थ शाश्वत और अपरिवर्तनीय रहते हैं। जो उनके अनुसार चलते हैं उनका क्षय नहीं होता |बस्तर का कोयला और लोहा राष्ट्र नहीं है, वह सब तो राष्ट्र के भरण-पोषण हेतु संसाधन मात्र हैं। बस्तर के गरीब वनवासी हमारे राष्ट्र का हिस्सा हैं। शरीर का कोई हिस्सा टूटने से पूरे शरीर को क्षति पँहुचती है। उनके मस्तिष्क में नक्सलवाद का विष भरकर उन्हें राष्ट्र के विरुद्ध भड़काना अपराध है, तो उनके नाम पर विकास के झूठे कार्यक्रम चलाकर उनकी आड़ में वनवासियों को उनकी पुश्तैनी भूमि से बेदखल करके वहाँ के संसाधनों को मुट्ठी भर भारतीय या चीनी सेठों के लिए लूटना भी अपराध है। यह सच है कि सड़क बनाने से विकास होता है, किन्तु बस्तर में सड़क बनाने से वनवासियों का कितना विकास वास्तव में हो रहा है? उनके पास कितनी कारें हैं जो उन सड़कों पर दौड़ेगी? उनके अपने असली इतिहास को भुलाकर उन्हें बाबर का इतिहास पढ़ाने वाले स्कूल खोलने से वनवासियों का "विकास" हो जाएगा? खदानों के नाम पर उनकी पुश्तैनी जमीनें हड़पने से उनका कितना विकास हो रहा है? उनके दृष्टिकोण से सोचने का प्रयास करें, अपना दृष्टिकोण उनपर न थोपें।उनका असली विकास क्या हमारी अफसरशाही वास्तव में चाहती है? मैकॉलेपुत्रों का कचड़ा पढ़कर ही हमारी अफसरशाही ने वनवासियों का नाम "आदिवासी" रखा है ताकि स्वयं को यूरोप से आये हुए प्रवासी आर्य समझने का दम्भ पाले रहें।
सृष्टि के आरम्भ से वनों का हिस्सा बनकर वे जीते रहे हैं। ऋग्वेद में वनदेवी की स्तुति में वैदिक ऋषि कहते हैं - हे वनदेवी, वन के एकान्त में तुम्हारा मन कैसे लगता होगा? हे माँ, तुम हमारे ग्राम में अपनी सन्तानों के बीच आकर क्यों नहीं बसती? यहाँ हम तुम्हारी स्तुति में ऋचाएं पढ़ेंगे (और तुम अपने आँचल में हमें पालोगी)।महानगरों में हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने वालों में जितनी वैदिक संस्कृति बची हुए है उससे बहुत अधिक तो वनवासियों में आजतक बची हुई है।
उनके वनों का सरकार ने अधिग्रहण कर लिया, टूटे हुए पत्ते और लकड़ियाँ इकट्ठे करने पर मुकदमा ठोक देने वाले अफसर घूस लेकर ठेकेदारों को पेड़ काटने से नहीं रोकते। उपग्रहों से लिए हुए चित्र बताते हैं कि कहने के लिए जो वन बचे भी हैं और सरकार द्वारा संरक्षित हैं, उनमें हरियाली बहुत कम बची है। तथाकथित सभ्य समाज ने वनों को नष्ट कर डाला, वनवासी कैसे जियेंगे यह चिन्ता तथाकथित सभ्य समाज को प्रायः नहीं के बराबर है। जो कोई इन मुद्दों को उठाता है उसे झट से नक्सल-समर्थक बुद्धिजीवी कह दिया जाता है, हालाँकि यह भी सच है कि बहुत से तथाकथित वामपन्थी हैं जो इन मुद्दों की आड़ में राष्ट्रद्रोही भावनाएं भड़काते हैं।जबतक वनों पर वनवासियों का राज था, तबतक वन सुरक्षित थे, हमारा पर्यावरण सुरक्षित था, पूरे देश का मानसून और जलवायु का वार्षिक चक्र नियमित था | इस स्वर्णिम राष्ट्र में कभी अकाल नहीं पड़ता था, अकाल शब्द का अर्थ ही है "जो काल कभी न देखा हो"।
तब वनदेवी प्रसन्न थीं, जलदेवता और अन्य सारे देवता प्रसन्न थे, और जैसा कि ऋग्वेद में गौतम रहूगण ने स्वराज्य स्तुति में लिखा - तब स्वराज्य था क्योंकि सबके भीतर स्थित होकर साक्षीभाव से सबकुछ देखने वाले इन्द्र भी रंजित (प्रसन्न) थे। जब देवता प्रसन्न हों तो प्रजा का रंजन होना ही है। वास्तविक "स्व" का राज ही स्वराज है। जिस प्रकार माँ की गोद में बैठे शिशु को यह अनुभूति नहीं होती कि वह माँ से भिन्न कोई "अन्य" जीव है, उसी तरह वनवासी को यह ज्ञान नहीं होता कि प्रकृति से पृथक उसका अस्तित्व है।
सत्तर सालों के विकास से गैर-वनवासी समाज में कितने किसान अब भूमिहीन मजदूर बनने को विवश हो गए हैं इसके आँकड़ें टटोलने का कभी प्रयास करें। उन्नीसवीं शती के मध्य में भारत में एक भी भूमिहीन मजदूर नहीं था। जो भूदास थे उनके पास भी पुश्तैनी भूमि थी जिसकी पूरी उपज वे खाते थे, गड़बड़ी यह थी की बदले में मालिक के यहाँ बेगार में काम करना पड़ता था। लेकिन खेती से जुड़ा कोई भी व्यक्ति भूमिहीन नहीं था। खेती से स्वतन्त्र सर्वहारा मजदूर नहीं रहेंगे तो कारखानों में काम कौन करेगा? ब्रिटेन में जबरन बाड़ाबन्दी कानून बनाकर छोटे किसानों को भूमिहीन बनाया गया ताकि भारत की लूट के धन से खुलने वाले कारखानों में काम करने के लिए मजदूर मिल सकें। भारत अभी उतना असभ्य नहीं हुआ है, अतः जबरन खेत नहीं छीने जाते, धूर्त सत्ताधारियों ने कृषि को जानबूझकर अलाभकारी बना डाला, कृषि-उत्पाद का मूल्य गैर-कृषि उत्पादों की तुलना में धीरे-धीरे घटाते गए जो सरासर लूट है, ताकि छोटे किसान या तो आत्महत्या कर लें या कारखानों में मजदूरी करें। स्वतन्त्रता के बाद भी खेत रखने वाले किसानों की तुलना में भूमिहीन मजदूरों की संख्या तेजी से बढ़ी है, यद्यपि उतना रोजगार सर्जित करने में गैर-कृषि क्षेत्र असमर्थ रहा है। जो तथाकथित "सभ्य" समाज स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता वह अपने से पृथक जिन्हें मानता है उन वनवासियों के हितों की रक्षा कैसे करेगा?
सरकारी नौकरी में आरक्षण देने से वनवासियों की समस्याएं मिट जाएंगी? प्रकृति के आँचल में पलने वालों को वहाँ से बेदखल करके कारखानों या निर्माण-कार्य में मजदूर बना देने से उनकी समस्याएं मिट जाएंगी? सत्तर सालों में कितनी मिटा पाएं हैं? अपनी समस्याएं तो मिटा नहीं पाते और कितने सालों तक धोखा देंगे? किसे धोखा देंगे? अपने ही "राष्ट्र" को, जिसका वे भी हिस्सा हैं?
समस्याओं का समाधान तभी सम्भव है जब पहले ईमानदारी पूर्वक आप समस्याओं के अस्तित्व को स्वीकारें, उनका डायग्नोसिस ठीक से करें। रोग की पहचान हो जाय तभी तो इलाज सम्भव है। अभी तो "विकास" की परिभाषा ही गलत है, केवल भौतिक समृद्धि को विकास माना जा रहा है। इतना भी नहीं सोचते कि प्रकृति का अनियन्त्रित दोहन आत्मघाती है, कभी न कभी तो प्रकृति के भण्डार चुक जाएंगे, तब आपकी आने वाली नस्लों का क्या होगा? मंगलयान द्वारा कहीं दूर भेज देंगे?
वनवासियों की समस्याओं को वामपन्थियों का झूठा प्रचार कहा जा रहा है। मीडिया तो इस बात की चर्चा तक नहीं करती कि कांग्रेस और भाजपा ने आपसी झगड़ों को भुलाकर सलवा जुडूम के नाम से निजी सेना बनायी थी जो नक्सलों से लड़ने के नामपर वनवासी क्षेत्रों पर हथियारबन्द आक्रमण करती थी - अदालत ने रोक लगायी। देश में पुलिस है, CRPF है, अर्धसैनिक बल हैं, सेना है, फिर निजी सेना क्यों? वह भी सरकार के वरदहस्त के अन्तर्गत। क्या यही सभ्य समाज के क़ानून का राज है? निजी सेना इसलिए बनायी गयी थी ताकि गैरकानूनी तरीके से वनवासियों को नक्सल कहकर उनके क्षेत्रों से भगाया जा सके और जो न भागे उनका सफाया किया जा सके - पुलिस या सेना तो ऐसा अवैध कार्य करेगी नहीं। यह अवैध कार्य कांग्रेस सरकार ने आरम्भ किया था, किन्तु भाजपा के बहुत से नेताओं ने भी सहयोग दिया था।
इन्हीं समस्याओं की आड़ में नक्सलों को पनपने और बढ़ने का अवसर मिलता है। इन्टरनेट पर जीने वाले आकाशीय लोगों को समझ में नहीं आता कि सरकार सड़क बनाकर विकास कर रही है तो नक्सल विरोध क्यों करते हैं। केवल नक्सल ही विरोध करते तो वनवासियों ने सरकार का साथ क्यों नहीं दिया? हाल में CRPF पर हुआ हमला न तो आकस्मिक था और न ही सारे स्थानीय लोग इसकी पूर्वयोजना से अनजान थे - सैकड़ों लोगों को पहले से पता था। उनमें से से एक ने भी पुलिस को सूचना क्यों नहीं दी?
"विकास" का अपना मॉडल वनवासियों पर न थोपें, उनकी आकांक्षाएं क्या हैं यह जानने का प्रयास करें। उन्हें अपनी तथाकथित मुख्यधारा में लाने के स्थान पर एक पल के लिए यह सोचे कि आप ही मुख्यधारा के ठेकेदार नहीं हैं। जब प्रकृति किसी मुख्यधारा को एक्सटिंक्ट करती है तो किसी गौण धारा को ही भविष्य की मुख्यधारा बनाने के लिए चुन लेती है। प्रकृति का नियन्ता बनने का दम्भ न पालें, यह अधिकार केवल ऊपर वाले को है।ऐसी समस्याओं को देश में पालकर रखियेगा तो शत्रु देशों को टाँग घुसाने का अवसर मिलेगा ही। हम चीन और पाकिस्तान की नीतियाँ नहीं बदल सकते, अपनी नीतियाँ सुधार सकते हैं। भारत में नक्सलवाद के प्रमुख केन्द्र बस्तर या हैदराबाद में नहीं, नेपाल में हैं, जहाँ उनके तार चीन और पाकिस्तान से जुड़े हैं। किन्तु समस्या की जड़ हमारी राजसत्ता की वनवासी-विरोधी नीतियों में है जिन्हें सुधारना हमारा दायित्व है।
मार्क्स इस बात के घोर विरोधी थे कि क्रान्ति बन्दूक की नाल से निकलती है। श्रमिक वर्ग के जागरण से क्रान्ति निकलती है यह असली मार्क्सवाद है। लेनिन ने उसमें यह परिवर्तन किया कि पूँजीवाद के विकास के बाद समाजवाद की राह होते हुए साम्यवाद तक पँहुचने का लम्बा मार्क्सवादी रास्ता न चुनकर रूस जैसे एक पिछड़े देश में सशस्त्र क्रान्ति की जाय। स्तालिन ने लेनिन की नियन्त्रित हिंसा को बेलगाम कर दिया, जिसे माओ ने राक्षसी सीमा तक पँहुचाया।
किन्तु आज चीन में भी माओवाद नहीं है। अतः भारत में माओवाद के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है उसमें कई प्रकार की धाराएं मिश्रित हैं, जैसे कि भटके हुए हताश वामपन्थी जो किसी न किसी प्रकार थोड़ी सी "सत्ता" की मलाई चखना चाहते हैं, हिन्दू-विरोधी ईसाई मिशनरी और तथाकथित दलित विचारक, आदि। ब्राह्मणवाद का विरोध कई दशकों से माओवादी नक्सलों के प्रतिबन्धित साहित्य का मुख्य एजेंडा रहा है। हिन्दू धर्म को ये लोग "ब्राह्मणवाद" कहते हैं, हिन्दू धर्म की ऐसी परिभाषा यूरोप के तथाकथित विद्वानों की देन है। ब्राह्मणों से शेष हिन्दुओं का अलगाव हो जाय तो उन्हें ईसाई बनाना आसान हो जाएगा। कम्युनिस्ट सोचते हैं कि तब लोगों को कम्युनिस्ट बनाना आसान हो जाएगा।कठमुल्ले सोचते हैं कि तब मुसलमान बनाने का रास्ता खुल जाएगा और भीमासुर सोचते हैं कि तब हिन्दुओं को बुद्ध के 501 वें बोधिसत्व "भीम" का अनुयायी बनाना सुगम होगा। सबका चोट ब्राह्मण पर ही है।
बहुत से अन्ध-राष्ट्रवादी भी हल्ला मचाते हैं कि जातियों का अस्तित्व हिन्दू समाज के लिए घातक है - ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें वनवासियों को सुनाइयेगा तो वे भड़क जाएंगे, सोचेंगे आप उनकी पहचान को मिटाना चाहते हैं। जातियाँ और जनजातियाँ तब भी थीं जब भारत महान था। हर पशु-पक्षी और पेड़-पौधे में जातियाँ होती हैं, जातियाँ होना और जातिवाद करना पृथक परिघटनाएं हैं।
किसी जाति को हीन समझना जातिवाद है। वनवासी को हीन समझा जाता है यह एक सच्चाई है - जबतक यह दृष्टिकोण नहीं बदलेगा तबतक कहीं नक्सलवाद तो कहीं किसी अन्य किस्म का उग्रवाद पनपता रहेगा। उग्रवाद को पनपने की जमीन और खाद हम देते हैं, और शिकायत करते हैं कि चीन ने यूँ कर दिया। आप दलाई लामा को प्रवासी सरकार बनाकर चीन-विरोधी राजनैतिक गतिविधि की छूट दीजियेगा तो चीन को भी जब जहाँ मौका मिलेगा परेशान करेगा ही। किन्तु चीन की इस बात में कतई रूचि नहीं है कि माओ का दर्शन भारत में फैले, उस दर्शन को तो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी व्यवहार में त्याग दिया है, केवल नाम के लिए कम्युनिस्ट है। चीन की रूचि इसमें है कि भारत एक शक्तिशाली और विकसित राष्ट्र न बने और चीन के वर्चस्व में बाधक न बने। चीन की मंशा पूरी न हो यह दायित्व चीन का नहीं, हमारा है। अपनी सभी जनजातियों और जातियों को समेटकर एक छाते के नीचे रखना हमारा दायित्व है, उन्हें मिटाकर एक काल्पनिक राष्ट्रवाद को उनपर थोपना राष्ट्रहित में नहीं है।
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